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मोदी विरोध में डूबे राहुल गांधी पर देश-विरोधी होने का आरोप क्यों लग जाता है?

राहुल गांधी का केंद्र की बीजेपी सरकार पर हमला या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बात बात पर कठघरे में खड़ा कर देना स्वाभाविक लगता है, लेकिन कई बार ऐसा लगता है जैसे लक्ष्मण रेखा पार हो जाती हो. मोदी विरोध के चक्कर में लगता है जैसे देश की ही परवाह नहीं हो - सबसे बड़ा सवाल यही है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध के मुद्दे पर राहुल गांधी देश को क्यों लपेट ले रहे हैं? (Photo: PTI)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध के मुद्दे पर राहुल गांधी देश को क्यों लपेट ले रहे हैं? (Photo: PTI)

राहुल गांधी लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं. सत्ता पक्ष के कामकाज पर निगरानी रखना और जरूरी मुद्दों पर विरोध प्रकट करना उनका हक बनता है. लोकतंत्र में ये स्वाभाविक व्यवस्था होती है. संविधान के तहत ही ये पूरी व्यवस्था चलती है.

मुद्दों पर ऐसा विरोध राजनीतिक वजहों से हो सकता है. लेकिन, ये विरोध लोक हित में होना चाहिए. समाज के हित में होना चाहिए. देश हित में होना चाहिए. विरोध सिर्फ इसलिए नहीं होना चाहिए, क्योंकि विरोध करना ही है. ये विरोध सकारात्मक आलोचना की तरह होना है. 

विरोध विचारधारा से होना चाहिए, व्यक्ति से नहीं. विरोध पॉलिटिकल होना चाहिए, पर्सनल नहीं - लेकिन, राहुल गांधी ट्रैक रिकॉर्ड को देखें तो ज्यादातर विरोध राजनीतिक ही हैं, लेकिन विरोध के पीछे की असली वजह पर्सनल लगती है. 

राहुल गांधी बार बार बताते हैं कि उनका विरोध विचारधारा से हैं, लेकिन अक्सर ये विरोध व्यक्ति से लगने लगा है. राहुल गांधी नफरत की राजनीति में मोहब्बत की दुकान खोलने का दावा करते हैं, लेकिन कभी कभी मोहब्बत की दुकान में नफरत के सामान ही नजर आते हैं. 

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कांग्रेस के भीतर से भी कई बार राहुल गांधी के विरोध पर सवाल उठाये जाते रहे हैं, और सलाह भी दी जाती रही है. लेकिन, वो कभी ऐसी किसी सलाह या सवाल की परवाह नहीं करते. मुश्किल ये है कि ऐसी सलाह देने वालों को डरपोक करार देते हैं - और यहां तक बोल देते हैं कि जो डर रहे हैं, वे जहां जाना हो चले जायें - लेकिन, कई बार उनकी बात इसलिए भी नहीं समझ में आती है क्योंकि मीडिया को ठंड लगने की वजह भी वो डर लगने से जोड़कर पेश कर देते हैं. शायद, यही डर समझाने के लिए वो कड़कती ठंड में भी सफेद टी-शर्ट पहनकर घूमते हैं. 

कांग्रेस के सीनियर नेताओं की भी समझाइश रही है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध ही करना है, तो उनकी सरकार की नीतियों की करनी चाहिए, न कि उन पर निजी हमले किए जाने चाहिए. क्योंकि, निजी हमले बैकफायर भी कर सकते हैं. राहुल गांधी अपनी धुन के पक्के हैं. सलमान खान के फिल्मी डायलाग की तरफ वो अपने कमिटमेंट को पूरा करके ही दम लेते हैं. 

मुश्किल ये है कि विरोध की इस राजनीति का शिकार देश भी होने लगा है - और आलम ये है कि मोदी विरोध के कमिटमेंट के चलते वो ट्रंप की नजर से भारत के 'डेड-इकॉनमी'  को भी सही ठहरा देने में संकोच नहीं कर रहे हैं.

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क्या राहुल गांधी पर मोदी विरोध का मामला इस कदर हावी हो गया है कि देश ही पीछे छूट जा रहा है?

1. राहुल गांधी को क्यों लगा, भारत 'डेड इकॉनमी' है?

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सीजफायर को लेकर राहुल गांधी आपे से बाहर हो गये थे. और, एक दिन तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सरेंडर कहकर बुलाने लगे. बोले, ट्रंप ने कहा सरेंडर और वो सरेंडर कर दिये. ये मामला संसद में बहस के दौरान भी उठा था, और प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, 'दुनिया के किसी भी नेता ने भारत को ऑपरेशन रोकने के लिए नहीं कहा है.' 

टैरिफ पर अपने स्टैंड को सही साबित करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने रूस के साथ साथ भारत की अर्थव्यवस्था को भी एक ही खांचे में डालकर पेश कर दिया. डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि भारत और रूस दोनों 'डेड इकॉनमी' हैं.

और इसी मुद्दे पर जब संसद परिसर में राहुल गांधी की राय पूछी गई, तो वो ट्रंप के सपोर्ट में खड़े पाए गए. बोले, हां, वो सही हैं... प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को छोड़कर हर कोई यह जानता है.

समझना मुश्किल हो रहा है कि क्या राहुल गांधी वास्तव में भारत की अर्थव्यवस्था के बारे ऐसा ही विचार रखते हैं? 

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आखिर राहुल गांधी भारत की अर्थव्यवस्था को 'डेड इकॉनमी' क्यों मानते हैं? सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति ने खुन्नस निकालने के लिए बोल दिया, महज इसलिए? 

आखिर राहुल गांधी को भारत सरकार से ज्यादा भरोसा अमेरिका पर क्यों होने लगा? ऐसा तो कभी रघुराम राजन ने भी नहीं कहा है, जिनसे राहुल गांधी अक्सर देश की अर्थव्यवस्था पर राय मशविरा करते रहे हैं. केंद्र की बीजेपी सरकार को घेरने के लिए उनके एक्सपर्ट व्यू का भी कांग्रेस की तरफ से इस्तेमाल किया जाता रहा है. 

2. जम्मू-कश्मीर और धारा 370

जम्मू-कश्मीर से 2019 में धारा 370 पर संसद में प्रस्ताव पेश किया गया, और संसद में इसे हटाने का प्रस्ताव पास हुआ था. ये प्रस्ताव बहुमत से पास हुआ था. लेकिन, राहुल गांधी और कई कांग्रेस नेता आखिर तक अपने रुख पर डटे रहे, जबकि कई नेताओं ने कांग्रेस की मीटिंग में भी पार्टी के स्टैंड का विरोध किया था. बाद में धीरे धीरे वे नेता कांग्रेस छोड़कर चले गये. 

आज की तारीख में कांग्रेस का जम्मू-कश्मीर में सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन है, लेकिन पार्टी सरकार में शामिल नहीं है और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की बातों से भी कभी नहीं लगता कि कांग्रेस के साथ कोई रिश्ता बचा भी है. 

3. पुलवामा आतंकी हमले पर सवाल

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राहुल गांधी ने पुलवामा हमले पर भी सवाल उठाया था, 'पुलवामा से सबसे ज्यादा फायदा किसे हुआ? असली गुनहगार कौन है?'

और वैसे ही उरी आतंकी हमले के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक पर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर सेना के जवानों के 'खून की दलाली' जैसा गंभीर आरोप लगाया था. 

4. चीन के मसले पर घेरने की कोशिश

गलवान घाटी, लद्दाख झड़प और डोकलाम विवाद पर राहुल गांधी के बयानों का हवाला देते हुए चीन के सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने ये समझाने की कोशिश की कि कैसे भारत के विपक्षी दलों को अपनी ही सरकार पर भरोसा नहीं रह गया है. 

तब राहुल गांधी के बयान थे, 'चीन ने हमारी जमीन ले ली... प्रधानमंत्री डरपोक हैं' - और 'जब चीन सैनिक जमा कर रहा था, मोदी जी सो रहे थे'.

5. लोकतंत्र पर खतरे की आशंका जताना

राहुल गांधी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम में कहा था कि भारत में लोकतंत्र पर हमला हो रहा है. देश में हो रहे आम चुनाव के दौरान संविधान बदल देने और आरक्षण खत्म कर देने जैसी बातों की बात और होती है, लेकिन विदेशी जमीन पर ऐसे बयान देश के खिलाफ जाते हैं. 

'पेगासस से निगरानी' और 'विपक्ष को चुप कराया जा रहा है' जैसे आरोपों का बिल्कुल उल्टा असर होता है, और न्यूयॉर्क टाइम्स, बीबीसी, द इकॉनमिस्ट जैसे मीडिया संस्थान अपने एडिटोरियल के जरिये ये समझाने की कोशिश करते हैं कि भारत आंशिक रूप से स्वतंत्र है या तानाशाही का शिकार हो रहा है. 

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सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि मोदी विरोध के चक्कर में देश कैसे पीछे छूट जाता है? 

ऐसी बातों का सबसे खराब पहलू तो ये है कि राहुल गांधी की बातों को अंतरराष्ट्रीय मीडिया अलग अलग देशों में अपने हिसाब से इस्तेमाल करता है, और देश की छवि खराब होती है. 

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