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कूटनीतिक दर्जा नहीं दिया, फिर क्यों तालिबान से मेलजोल को लेकर देशों में मची हुई है होड़?

UN से जुड़े किसी भी देश ने अब तक तालिबान को आधिकारिक दर्जा नहीं दिया. वो अब भी आतंकी संगठन है, जिसने अफगानिस्तान पर जबरन कब्जा कर रखा है. इसके बावजूद हाल में तस्वीर तेजी से बदली. ईरान से लेकर चीन समेत लगभग सारे मुल्क उससे बातचीत कर रहे हैं. इनमें भारत भी शामिल है, और अमेरिका भी.

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कई देश तालिबान के साथ संपर्क बढ़ा रहे हैं. (Photo- Reuters)
कई देश तालिबान के साथ संपर्क बढ़ा रहे हैं. (Photo- Reuters)

अगस्त 2021 में अफगानिस्तान में तख्तापलट कर तालिबान सत्ता में आ गया. नब्बे के दशक का घाव अभी भरा भी नहीं था, और तालिबानी हुकूमत ने खुरंड में दोबारा चोट कर दी. लगभग चार साल हो चुके, और किसी भी देश ने अब तक तालिबान को राजनीतिक दल या सरकार का दर्जा नहीं दिया है. हालांकि हाल में कुछ बदला. वहां के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी कई देशों से मिल रहे हैं. अचानक ऐसा क्या हुआ, जो मान्यता के बगैर भी तालिबान हाथोंहाथ लिया जा रहा है. 

क्या है तालिबान और क्यों देश उससे कटे हुए 

पश्तो में सीखने वाले को तालिबान कहते हैं. नब्बे के दशक में जब रूस अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को लौटा रहा था, तब ये संगठन आकार लेने लगा. इसकी शुरुआत धार्मिक संस्थानों में हुई. इसके तहत कट्टर मान्यताओं का प्रचार होने लगा. जल्द ही इसका असर बढ़ा और साल 1996 में इस संगठन ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया.

यहां से देश पर चमरपंथी ताकतें राज करने लगीं. वे महिलाओं को बुरके में रहने और पुरुषों के बगैर घर से न निकलने को कहतीं. इस्लामिक कानून इतनी कट्टरता से लागू हुए कि संगीत पर भी बैन लग गया. कट्टरता के इसी दौर में तालिबान को देशों ने आतंकी संगठन का दर्जा देना शुरू कर दिया क्योंकि वे दूसरे देशों की सीमाओं तक भी अपनी कट्टरता पहुंचा रहे थे. 

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9/11 के बाद अमेरिकी सेनाओं ने तालिबान को लगभग खत्म कर दिया, लेकिन भीतर ही भीतर चिंगारी फैलती रही. नतीजा ये हुआ कि ठीक बीस साल बाद इस टैरर गुट ने एक बार फिर काबुल में वापसी की. इस बार उसने चुनी हुई सरकार को गिरा दिया.

क्या बदल चुका है तालिबान

तालिबान 2.0 दावा कर रहा है कि वो पहले से कहीं नर्म पड़ चुका, लेकिन पुरानी आदत जाते-जाते जाती है. फिलहाल तालिबान उदारता के दावों के बाद भी उतना ही कट्टर दिख रहा है. महिलाओं का अकेले सफर मना है. लड़कियां एक तय उम्र के बाद पढ़ाई नहीं कर सकतीं. गीत-संगीत से लेकर तमाम चीजों पर पाबंदी लग चुकी. मानवाधिकार हनन के मामले को देखते हुए ही देशों ने उससे दूरी बना रखी है, और मान्यता देने से बच रहे हैं. 

women in taliban afghanistan photo AFP

क्या होगा मान्यता देने या न देने से 

यह वो कंडीशन है, जिसमें दो देश एक-दूसरे को स्वीकार करते हैं. इसके बाद वे आर्थिक और राजनैतिक रिश्ते रख सकते हैं. दोनों के दूतावास होते हैं और वहां तैनात लोगों को डिप्लोमेटिक इम्युनिटी भी मिलती है. इसके बाद ही इंटरनेशनल लोन मिल पाता है. 

कौन देता है रिकॉग्निशन 

आमतौर पर किसी भी देश का सुप्रीम लीडर अपने साथियों के साथ ये तय करता है. लेकिन यह प्रोसेस आसान नहीं. इसमें देखना होता है कि नई सत्ता हिंसक तो नहीं, या फिर कितने लीगल ढंग से आई है. साथ ही फॉरेन पॉलिसी भी देखनी होती है. मसलन, अगर भारत, तालिबान को स्वीकार ले तो क्या पड़ोसी देश उससे नाराज हो जाएंगे, या फिर क्या उसके राजदूत देश में आकर जासूसी करने लगेंगे. सारे पहलू देखने के बाद ही ये तय होता है.

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वैसे देश तालिबान को लेकर हां-न में अटके हुए हैं. एक तरफ तो वे दर्जा नहीं दे रहे, दूसरी तरफ उससे बातचीत भी करना चाह रहे हैं. हाल में तालिबान के विदेश मंत्री मुत्ताकी ने कई देशों के नेताओं से बात की. इनमें भारत और पाकिस्तान के अलावा, ईरान और बीजिंग भी शामिल हैं.

वॉशिंगटन भी कम कर रहा दूरियां

अमेरिकी लीडरशिप भी तालिबान के लगातार संपर्क में है, जबकि 9/11 के बाद अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान में भारी तबाही मचाई थी. महीनेभर पहले ही यूएस ने तालिबान के तीन नेताओं पर से इनामी राशि हटा ली. इसमें वे लोग भी शामिल हैं, जिनपर अफगानिस्तान की पूर्व सरकार के खिलाफ हमलों का आरोप है, जिसे खुद अमेरिका का सपोर्ट था. हमले में अमेरिकी नागरिक समेत छह लोग मारे गए थे. कई और रिपोर्ट्स दावा कर रही हैं कि यूएस ने अफगान सेंट्रल रिजर्व में से लगभग साढ़े 3 बिलियन डॉलर पर से पाबंदी हटा दी, मतलब अफगानी सरकार अब इसका अपनी तरह से इस्तेमाल कर सकती है. 

taliban afghanistan photo AP

क्या वजह है इस उदारता के पीछे

चार साल बीतने को हैं. ऐसे में बढ़ती ग्लोबल अस्थिरता के बीच ये डर बढ़ रहा है कि तालिबान के राज में अफगान में कहीं आतंकवाद न बढ़ने लगे. अफगानिस्तान में बम-बारूद से लेकर मॉडर्न हथियार रखे हुए हैं, जो अमेरिकी सेना जल्दबाजी में छोड़ गई थी. ऐसे देश से कट जाना बेहद खतरनाक हो सकता है. हो सकता है कि इसी आइसोलेशन में देश में आतंकवाद बढ़ता हुए दूसरी सीमाओं तक पहुंच जाए. मेलजोल रहेगा तो कम से कम गतिविधियों पर नजर रखना आसान रहेगा. यही सोचते हुए देश अब तालिबान से दोस्ती कर रहे हैं. 

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रिफ्यूजी क्राइसिस से बचने के लिए भी पास आ रहे

तालिबान ने कुछ समय पहले ही चेतावनी दी थी कि उनके यहां इकनॉमिक संकट की वजह से बड़ी संख्या में लोग भागकर अमेरिका समेत पूरे पश्चिम और बाकी देशों में फैल जाएंगे. ये आशंका से ज्यादा एक किस्म की चेतावनी थी. इसके बाद से ही देशों ने डिप्लोमेटिक एंगेजमेंट शुरू की. बता दें कि तालिबान के आते ही लाखों लोग अफगानिस्तान छोड़कर भागे. कुछ अवैध रास्तों से, कुछ शरणार्थी के तौर पर. इससे ईरान, पाकिस्तान, ताजिकिस्तान, यहां तक कि तुर्की तक पर दबाव बढ़ गया. अब देश और शरणार्थी लेने की स्थिति में नहीं. इसलिए भी वे बातचीत का रास्ता अपना रहे हैं. 

एक वजह और भी है. आइसोलेशन की स्थिति में चीन और रूस तालिबान से नजदीकी बढ़ा रहे हैं. देशों को डर है कि कहीं ऐसा न हो कि डॉयलॉग न होने की वजह से ये दोनों देश अफगानिस्तान के करीब आ जाएं और वे पीछे रह जाएं. 

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