scorecardresearch
 

चुनाव सुधार का संकट... क्या बैलेट पेपर से वोटिंग के लिए तैयार है विपक्ष और देश?

संसद में चुनाव सुधारों पर बहस हो रही है. ईवीएम पर सवाल उठाने वाले विपक्ष के कई नेता अब बैलेट पेपर्स से चुनाव करवाने की डिमांड कर रहे हैं. सवाल उठता है कि क्या बिजली सेक्टर अगर ठीक से काम नहीं कर रहा है तो हम सुधार करेंगे, उसे और रोशन और पारदर्शी बनाएंगे या लालटेन युग में जाने की मांग करेंगे?

Advertisement
X
संसद में चुनाव सुधारों पर चर्चा करते हुए कांग्रेस नेता मनीष तिवारी और अखिलेश य़ादव ने आगामी चुनाव से बैलेट से कराने की मांग रखी.(Photo: Screengrab)
संसद में चुनाव सुधारों पर चर्चा करते हुए कांग्रेस नेता मनीष तिवारी और अखिलेश य़ादव ने आगामी चुनाव से बैलेट से कराने की मांग रखी.(Photo: Screengrab)

संसद में चुनाव सुधार पर चर्चा हो रही है. देखने में आ रहा है कि विपक्ष कुछ बड़े नेताओं ने जिसमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ,  कांग्रेस नेता मनीष तिवारी, आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आदि जैसे कई पार्टियों के नेता चाहते हैं कि देश में भविष्य के चुनाव ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से हो.

अखिलेश यादव ने ईवीएम पर उठते सवालों और विश्वसनीयता को देखते हुए भारत को फिर से बैलेट पेपर पर लौटना चाहिए. उन्होंने जर्मनी का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां ईवीएम से दिया गया वोट मान्य ही नहीं माना जाता, इसलिए भारत में भी पारंपरिक बैलेट प्रक्रिया को लागू करना जरूरी है ताकि आम लोगों को कोई संदेह न रहे. उन्होंने कहा कि कई उपचुनावों में वोट चोरी नहीं हुई, बल्कि सीधे-सीधे वोट की डकैती हुई है.

जाहिर है कि मनुष्य की प्रकृति है कि पास्ट बहुत अट्रैक्ट करता है.पर भारत में जिस तरह वोटिंग होती रही है उसे तो सोचकर रूह कांप जाती है. बैलेट से चुनाव की मांग करने वाले भूल जाते हैं कि उस दौर के चुनावों में हिंसा, बूथ लूटना, फर्जी वोटिंग आदि ने पूरे शबाब पर होती थी.

Advertisement

सवाल यह उठता है कि क्या अगर रेलवे और एविएशन सेक्टर ठीक ढंग से काम नहीं कर रहा है तो क्या हमें बैलगाड़ी युग में चले जाना चाहिए. या बिजली व्यवस्था बदहाल हो गई है तो लालटेन युग में जाना चाहिए. सामान्य तर्क शक्ति रखने वाला कोई भी शख्स जिसने बैलेट पेपर्स से होने वाले चुनावों का हाल देखा है वो कभी नहीं चाहेगा कि देश में फिर ईवीएम को रिटायर कर दिया जाए.

बैलेट पेपर युग (1952–2004 तक) में भारत में क्या-क्या होता था. आइये याद करते हैं पुराना जमाना...

1- क्या हम चाहेंगे कि बूथ कैप्चरिंग फिर आम हो जाए

यूपी, बिहार, बंगाल, आंध्र में राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के लिए बाहुबल का सहारा अहम होता था. नेताओं के गुंडे सुबह-सुबह बूथ पर कब्जा कर लेते थे पूरा बैलेट बॉक्स उठाकर ले जाते थे या 10-15 मिनट में हजारों फर्जी स्टैम्प लगा देते थे. 1980-90 के दशक में बिहार में एक ही बूथ पर 2500-3000 फर्जी वोट डल जाते थे. पुलिस खड़ी देखती रहती थी. बाद में बूथ लूटने में मास्टरी करने वाले नेताओं की जगह खुद नेता बनने लगे. इसका नतीजा हुआ कि विधायिका और संसद में आधे से अधिक दागी लोग पहुंचने लगे.

2- क्या हम चाहेंगे कि मतदान के लिए अंतहीन समय लगे

मतदान करने में बहुत टाइम लगता था. इसके कारण इतनी भीड़ लग जाती थी कि सबको वोट देने का मौका ही नहीं मिल पाता था. एक व्यक्ति को बैलेट लेना, पीछे जाना, स्टैम्प लगाना, मोड़ना, बॉक्स में डालने में  औसतन 4 से 5 मिनट लगता था. दोपहर 2 बजे तक लाइन इतनी लंबी हो जाती थी कि लाखों लोग वोट ही नहीं डाल पाते थे. 1996 में कई जगह टर्नआउट 30-35% तक गिर गया था.

Advertisement

3- क्या हम चाहेंगे कि इनवैलिड वोटों की फिर बाढ़ आ जाए

गलत जगह स्टैम्प, ज्यादा स्टैम्प, कम स्टैम्प, फटा बैलेट आदि के चलते औसतन 6 से 12% वोट इनवैलिड हो जाते थे. 1991 लोकसभा चुनाव में कुल 9.2% वोट इनवैलिड हुए थे . यानी लगभग 4.5 करोड़ वोट बेकार! आज की तारीख में ये 10 करोड़ से 12 करोड़ होगा.

4- क्या हम चाहेंगे कि काउंटिंग में 4-10 दिन लगें

543 लोकसभा सीटों और हजारों विधानसभा सीटों के बैलेट गिनने में कई-कई दिन लगते थे. 1998 में राजस्थान में काउंटिंग 9 दिन तक चली. इस दौरान हॉर्स-ट्रेडिंग, धांधली, बॉक्स बदलने के आरोप आम हो जाते थे.

5- क्या हम चाहेंगे कि कागज की भयानक बर्बादी हो

1999 लोकसभा चुनाव में अकेले 80 लाख किलो कागज इस्तेमाल हुआ था. हर चुनाव में लाखों पेड़ कटते थे और अरबों रुपये सिर्फ छपाई में खर्च होते थे. क्या आज की तारीख में इस तरह की बर्बाद करना कोई बर्दाश्त करेगा.

क्यों आज की तारीख में फिजीबल नहीं रहा बैलेट पेपर

1 -लॉजिस्टिकली असंभव

 कागज, छपाई और काउंटिंग का भयानक बोझ सरकार पर आएगा , मतलब सीधा बोझ आम करदाताओं पर ही पड़ेगा. 97 करोड़ मतदाता × औसतन 12-15 उम्मीदवार प्रति सीट  का मतलब है कि लगभग 12 से 14 अरब बैलेट पेपर प्रिंट करने पड़ेंगे.   2024 में सिर्फ VVPAT स्लिप्स की छपाई पर ही 5000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. आज की तारीख में बैलेट पेपर का खर्च 5 से 7 गुना ज्यादा लगेगा.  

Advertisement

2-काउंटिंग में 5-10 दिन लगेंगे 

आजकल मंदिरों में चढ़ावा गिनने और भ्रष्ट अधिकारियों के घर नोट गिनने के लिए मशीन लगानी पड़ती है तो 2 से 3 दिन लग जाते हैं. जब बैलेट की गिनती आदमी करेंगे तो जाहिर है कि कई दिन लगेंगे. फिर मांग होगी कि बैलेट पेपर को गिनने की मशीन लगाई जाए. फिर चुनाव हारने पर विपक्ष कहेगा कि बैलेट पेपर गिनने वाली मशीन में गड़बड़ी की गई है. जाहिर है कि मशीन का इस्तेमाल तो आने वाले दिनों में बढ़ना ही है. फिलहाल जब नतीजे आने में देर होगी तो अराजकता फैलने का पूरा चांस रहेगा. हॉर्स-ट्रेडिंग और कोर्ट केस में उलझ कर रह पूरी व्यवस्था के चौपट होने का खतरा रहेगा.

3-बूथ कैप्चरिंग और फर्जी वोटिंग की वापसी तय

1990 के दशक में यही वजह थी कि बैलेट पेपर को छोड़ा गया था. यूपी-बिहार में एक बूथ पर 2000-3000 फर्जी वोट डल जाते थे. आज भी ग्रामीण इलाकों में हथियारबंद नेताओं के गुंडे मौजूद हैं. बैलेट आते ही बूथ कैप्चरिंग 100% वापस आएगी. जैसा सांसद राजीव प्रताप रूड़ी ने लोकसभा में आज मंगलवार को किस्सा सुनाया वो देश के अलग अलग हिस्सों में आम था.

रूडी कहते हैं कि 90 के दशक में मेरी सीट पर हुए चुनाव में 1200 बूथ पर मतदान हुआ, फिर 133 पर पुनर्मतदान, और 33 पर तीसरी बार फिर मतदान.जाहिर है कि इस तरह चुनावी हिंसा में हजारों लोग मारे जाते थे. रूडी ने  बताया कि  बिहार के मंत्री, विधायक बूथ लूटने के आरोप में पकड़े गए थे. 1998 में छह हजार बूथों पर पुनर्मतदान हुआ था. यही कारण रहा कि चुनाव आयोग ने अभी साफ कहा कि बैलेट वापसी  का मतलब बूथ कैप्चरिंग की गारंटी है.

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement