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चुनाव सुधारों को रौंदने के लिए सभी दल मिलकर खड़े दिखाई दे रहे हैं: संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आरोप लगाया है कि आज सारी सत्ता का चेहरा एक है और पार्टी लाइन से परे सभी दल जनाकांक्षाओं और चुनाव सुधारों को रौंदने के लिए मिलकर खड़े दिखाई देते हैं.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आरोप लगाया है कि आज सारी सत्ता का चेहरा एक है और पार्टी लाइन से परे सभी दल जनता की आशाओं और चुनाव सुधारों को रौंदने के लिए मिलकर खड़े दिखाई देते हैं.

संघ ने बीजेपी या अन्य किसी पार्टी का नाम लिये बिना उनसे सवाल किया, ‘सूचना का जो अधिकार जनता के लिए वरदान है, वह राजनीतिक दलों के लिए अभिशाप क्यों कर होगा? लोकतंत्र के मंदिर में दागियों को रोकने की पहल में आखिर बुरा क्या था?’

संघ के मुखपत्र पांचजन्य के नये अंक के संपादकीय में यह प्रश्न उठाते हुए कहा गया कि केंद्रीय सूचना आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले खारिज किये जाने लायक थे या फिर लोकतंत्र के प्रहरियों की ही नीयत में खोट पैदा हो गई? सवाल कई हैं परंतु एक बात जो साफ समझ में आती है, वह यह है कि भारतीय लोकतंत्र संभवत: अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है.

इसमें कहा गया कि उपरी तौर पर भले महसूस न हो, परंतु स्थितियां काफी खराब हैं. ज्यादा खतरनाक बात यह है कि सत्ताधीशों का अहम पहले वैयक्तिक दिखता था और गुस्सा प्रत्यक्ष होता था. पर आज इसका दायरा और रूप बदल गये हैं. दिखता कोई नहीं, लेकिन सारी सत्ता का चेहरा एक है.

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आरटीआई से अपने आप को बाहर रखने के सभी दलों के एकजुट होने पर रोष प्रकट करते हुए संघ ने कहा, ‘जन प्रतिनिधियों द्वारा अपनी बिरादरी को अति विशेष और सारे कानूनों से परे मानने की यह पहल देश को किस दिशा में पहुंचाएगी, यह राजनीतिक भ्रष्टाचार और शासकीय संवेदनहीनता की खबरें बताती हैं.’

संपादकीय में कहा गया कि संसद और राजनीतिक दलों की विशेष स्थिति से इनकार नहीं. यह भी ठीक है कि ‘एक दिन की जेल पर नामांकन रद्द करने’ जैसे बिंदु राजनीतिक दलों की चिंता बढ़ाते हैं. परंतु जन प्रतिनिधियों के अधिकार कुछ कर्तव्यों के खूंटे से बंधे हैं. इसमें कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 संसद को यह जिम्मेदारी भरा अधिकार देते हैं कि वह जन प्रतिनिधियों की योग्यता की कसौटी तय करे लेकिन क्या यह काम ईमानदारी से हुआ? कर्तव्यों का खूंटा उखाड़कर स्वतंत्रता की आड़ में स्वच्छंद विचरने की आजादी आखिर क्यों मिलनी चाहिए? जन प्रतिनिधियों की ऐसी कल्पना क्या संविधान की मूल भावना रही होगी?

संघ ने कहा कि दुख की बात यह है कि शुचिता के जो स्वर संसद में उठने चाहिए थे, वे सीआईसी और सर्वोच्च न्यायालय से उठे, इस पर भी उन्हें प्रजातंत्र के कथित ‘पहरेदारों’ ने ही शांत कर दिया.

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