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ट्रंप की युद्धनीति, कूटनीति और फूटनीति... फिर एक बार अमेरिका ने साबित किया दुनिया का चौधरी वही है!

Iran-Israel conflict: डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान-इजरायल के बीच सीजफायर करवाकर एक बार फिर दिखा दिया कि जब दुनिया संकट में होती है तो फैसला अब भी वॉशिंगटन से ही होता है. कहा जा सकता है कि ग्लोबल गेम कहें या दो देशों की जंग मैदान अब भी अमेरिका बनाता है, नियम भी वहीं तय करता है और अंपायर भी वही होता है.

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अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप. (फोटो-रॉयटर्स)
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप. (फोटो-रॉयटर्स)

युद्धनीति, कूटनीति और फूटनीति... अमेरिका ने एक बार फिर से साबित कर दिया है कि फिलहाल दुनिया का चौधरी वही है. अमेरिका ने ईरान-इजरायल युद्ध से साबित किया कि वह अपनी शर्तों और सुविधाओं पर जंग शुरू करवा सकता है, उसे तय डायरेक्शन में ले जा सकता है और उद्देश्य पूरा होने पर उसे खत्म भी करा सकता है. ईरान-इजरायल का युद्ध इसी थ्योरी को दोहराते हैं. 

डोनाल्ड ट्रंप की हालिया मध्य-पूर्व सीजफायर डील ने एक बार फिर दिखा दिया कि जब दुनिया संकट में होती है, तो फैसला अब भी वॉशिंगटन से ही होता है. कहा जा सकता है कि ग्लोबल गेम कहें या जंग, मैदान अब भी अमेरिका बनाता है, नियम भी वहीं तय करता है और अंपायर भी वही होता है.

याद कीजिए जब कनाडा से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अचानक लौट गए तो कोई ये समझ नहीं पाया कि आखिर इमरजेंसी क्या थी. तब ट्रंप ने अपने लौटने की वजह (Important matters) बताई थी. 

इसके कुछ ही घंटे बाद जब इजरायल ने ईरान पर हमला कर दिया तो ट्रंप के जी-7 से जल्द लौटने की वजह दुनिया को पता चल गई. तब ट्रंप ने कहा था कि वे ईरान के परमाणु प्रोग्राम का सचमुच में खात्मा चाहते हैं.

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24 जून को तड़के ट्रंप ने फिर से घोषणा की कि ईरान के परमाणु केंद्रों को पूर्ण रूप से नष्ट करने के बाद तेहरान सीजफायर पर सहमत हुआ है. 

यानी कि ट्रंप ईरान से जो चाहते थे वो उन्होंने वो उद्देश्य हासिल कर लिया. 

इस संकट में ट्रंप की सैन्य, रणनीतिक, और कूटनीतिक रणनीतियों ने अमेरिका की प्रभुता को पुनः स्थापित किया, जिसमें सटीक सैन्य हस्तक्षेप, क्षेत्रीय गठबंधनों का उपयोग, और कूटनीतिक मध्यस्थता शामिल थी. इस संकट के दौरान दुनिया की दूसरी बड़ी ताकतें जैसे चीन और रूस ने इजरायली आक्रमण की निंदा तो जरूर की, लेकिन वे ट्रंप और नेतन्याहू को उनकी मनमर्जी करने से नहीं रोक सके.

सैन्य शक्ति का प्रदर्शन (युद्धनीति): अमेरिका ने इस टकराव में अपनी सैन्य ताकत का सीमित लेकिन प्रभावी उपयोग किया. 22 जून 2025 को बी-2 स्टेल्थ बॉम्बर से जीबीयू-57 बंकर बस्टर बम गिराकर अमेरिका के तीन परमाणु केंद्रों फोर्डो, नतांज और इस्फहान को तहस नहस कर दिया. 

इस हमले में एक बार फिर से विश्व फलक पर अमेरिका की सैन्य श्रेष्ठता साबित कर दी. गौरतलब है कि जीबीयू-57 बंकर बस्टर सबसे बड़ा गैर परमाणु बम है. इस हमले ने दुनियावी मसलों के प्रति अमेरिका का कमिटमेंट भी साबित कर दिया. इससे यह भी मैसेज गया कि ट्रंप जिस मुद्दे को उठाते हैं उसे पूरा करते हैं. 

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ये विश्व पटल पर अमेरिका की तकनीकी और रणनीतिक श्रेष्ठता को साबित करने के लिए काफी था. 

रूस -चीन की सीमित प्रतिक्रिया, जर्मनी-ब्रिटेन का साथ

वहीं दूसरी ओर अमेरिका के समानांतर दुनिया की दूसरी ताकतों जैसे चीन और रूस ने इजरायली आक्रमण की निंदा की, इसे अंतरराष्ट्रीय नियमों के खिलाफ बताया, यहां तक कि ये भी कहा कि बल प्रयोग से समस्याएं नहीं सुलझती हैं, इस मसले पर रूसी राष्ट्रपति पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने फोन पर बात भी की, लेकिन इन दोनों में से किसी ने भी ईरान को प्रत्यक्ष सैन्य मदद नहीं दी. 

इससे एक बार फिर से साबित हुआ कि दुनिया के मसले अमेरिका ही उठाता है और वही इसे अंजाम तक ले जाता है. रूस और चीन की सीमित प्रतिक्रिया ने साबित किया कि मध्य पूर्व में अमेरिका का कोई सानी नहीं है. अमेरिका के सैन्य अड्डे, गठबंधन, और तेल अर्थव्यवस्था पर प्रभाव इसे इस क्षेत्र में अपरिहार्य बनाते हैं. 

यहां एक बात और भी लाजिमी है कि ईरान-इजरायल जंग में यूरोप की शक्तियां भी अमेरिका के समर्थन में रहीं. 

इस जंग पर प्रतिक्रिया देते हुए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को दुनिया के लिए खतरा बताया और संयम की अपील की, ब्रिटेन ने इजरायल की सुरक्षा का समर्थन किया और अमेरिका की आलोचना करने से परहेज किया. यानी कि ब्रिटेन का अमेरिका को एक तरह से मूक समर्थन था. 

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जर्मनी के चांसलर फ्रेडरिक मर्ज ने इजरायल को समर्थन दिया, लेकिन स्वीकार किया कि इजरायल अकेले ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नष्ट नहीं कर सकता. चांसलर फ्रेडरिक मर्ज ने भी अमेरिकी नेतृत्व में विश्वास जताया और ट्रंप की नीतियों का विरोध नहीं किया. 

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने युद्धविराम की वकालत की और ईरान में तख्तापलट की कोशिश को "रणनीतिक गलती" बताया.

साफ है कि यूरोप के बड़े देश इस अहम मसले पर अमेरिकी नीतियों से सहमत दिखे.  

ईरान पर मनोवैज्ञानिक और रणनीतिक दबाव

इसके साथ ही इजरायल को रिफ्यूलिंग विमान और खुफिया जानकारी, लॉजिस्टिक सपोर्ट सैटेलाइट तंत्र प्रदान कर अमेरिका ने अपने सबसे मजबूत क्षेत्रीय सहयोगी को सशक्त बनाया.  इन हमलों ने रूस और चीन जैसे ईरान के सहयोगियों को स्पष्ट संदेश दिया कि अमेरिका की सैन्य पहुंच और इच्छाशक्ति बेजोड़ है. वहीं रूस और चीन की निष्क्रियता ने अमेरिकी चौधराहट को और भी स्पेस दिया. 

रणनीतिक चतुराई और फूटनीति: ट्रंप ने अपनी रणनीति में ईरान पर मनोवैज्ञानिक और रणनीतिक दबाव बनाया. उनके "MIGA" (Make Iran Great Again) बयान और रिजीम चेंज की चर्चा से ईरान बैकफुट पर आने को मजूबर हुआ. 

राष्ट्रपति ट्रंप ने (Make Iran Great Again)  की चर्चा कर ईरान में रिजीम चेंज यानी कि सत्ता में बदलाव की ओर इशारा जरूर किया, लेकिन अमेरिकी प्रशासन इसे लेकर गंभीर नहीं था. 

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इस बयान ने ईरान में आंतरिक असंतोष को उकसाने की कोशिश की.  इसके साथ ही ट्रंप ने क्षेत्रीय गठबंधनों का उपयोग किया. ईरान इस दौरान स्ट्रेट ऑफ हॉर्मूज को बंद करने का प्रस्ताव पास कर दुनिया में कच्चे तेल का संकट पैदा करना चाह रहा था. ताकि इस जंग की तपिश दुनिया के दूसरे मुल्क भी महसूस करें. 

लेकिन अमेरिका ने सऊदी अरब और UAE को तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित कर वैश्विक तेल कीमतों को नियंत्रित किया. इससे ईरान की ऑयल डिप्लोमेसी भी काम नहीं कर पाई. 

इस जंग के दौरान कतर की मध्यस्थता को बढ़ावा देकर अमेरिका ने पश्चिम एशिया की एकता को विभाजित कर दिया. यह फूट डालने की रणनीति थी, जिसने ईरान को अलग-थलग कर दिया और अमेरिका की क्षेत्रीय पकड़ को मजबूत किया. गौरतलब है कि इससे पहले ट्रंप ने सीरिया के नए शासक जिसे अमेरिका कभी अपना वांटेड समझता था के साथ मंच साझा कर उसे विश्व पटल पर वैधता दे दी.  

अमेरिका दुनिया का चौधरी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही रहा है

बता दें कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही अमेरिका ने सैन्य, आर्थिक, और कूटनीतिक शक्ति के बल पर वैश्विक प्रभुता हासिल की जिसने उसे "दुनिया का चौधरी" बनाया. इस रेस में उसे सोवियत रूस से टक्कर मिली. लेकिन 1990 में USSR के विलय के साथ ही रूस इस टक्कर में पिछड़ गया.

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NATO जैसे गठबंधनों और वैश्विक सैन्य अड्डों ने पूरी दुनिया में उसकी पहुंच को मजबूत किया. UN में स्थायी सदस्यता, विश्व बैंक और IMF जैसे संस्थानों पर उसके नियंत्रण ने उसे कूटनीति ताकत दी. 

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना और सुरक्षा परिषद में वीटो शक्ति ने उसे वैश्विक निर्णयों में प्रभुत्व दिया. सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद अमेरिका ने वियतनाम, क्यूबा में ऑपरेशन चलाए. अमेरिका ने पिछले कुछ दशकों में खाड़ी देशों में सैन्य कार्रवाइयां की. शीत युद्ध के बाद, एकध्रुवीय विश्व में अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, और हाल के ईरान-इजरायल संकट में कूटनीतिक और सैन्य हस्तक्षेप से अपनी प्रभुता बनाए रखी.

इस सीजफायर ने ट्रंप को एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित किया, जो सैन्य शक्ति और कूटनीति का संतुलन बना सकता है. सबसे बड़ी बात यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिका की बेवक्त और बेतरतीब वापसी ने विश्व पटल पर अमेरिका की प्रतिष्ठा को धुमिल किया था. इससे ये मैसेज गया था कि अब अमेरिका दुनिया के मसले में दखल देने को इच्छुक नहीं है और वो अपना सैन्य विस्तार समेटना चाहता है. 

कई बार तो यह भी मैसेज गया कि इस काम को अब चीन करने वाला है. लेकिन ईरान-इजरायल जंग का मकसद हासिल होने के बाद इसे बंद करवाकर अमेरिका एक बार फिर से पंच की भूमिका में आग या है. 

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