बिहार विधानसभा चुनाव से पहले वोटर लिस्ट सुधार की प्रकिया स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) को लेकर पटना से दिल्ली तक की सियासत गर्मा गई है. आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने एसआईआर को लेकर मोर्चा खोल दिया है और अब विधानसभा चुनाव का बहिष्कार करने तक की धमकी दे दी है. तेजस्वी ने साफ कहा कि यही स्थिति रही तो चुनाव में हिस्सा लेने का कोई फायदा नही हैं.
तेजस्वी यादव ने कहा कि अगर चुनाव आयोग की ओर से एसआईआर में पारदर्शिता नहीं बरती गई, तो 'महागठबंधन' बिहार चुनाव का बहिष्कार करने पर विचार कर सकता है. तेजस्वी ने कहा कि चुनाव के बॉयकॉट पर हम अपने सहयोगी दलों से चर्चा करेंगे, क्योंकि जनता जानना चाहती है और बाकि पार्टियां क्या चाहती है.
तेजस्वी ने कहा कि जब चुनाव ईमानदारी से करवाया ही नहीं जा रहा तो चुनाव ही क्यों करवा रहे हैं. बिहार में बीजेपी को एक्सटेंशन दे दो. उन्होंने कहा कि चुनाव कांप्रेमाइज हो चुका है. ऐसी स्थिति में चुनाव में हिस्सा लेने का क्या फायदा. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल कि अगर महागठबंधन में शामिल सभी दल चुनाव का बॉयकॉट कर दें तो क्या चुनाव नहीं होगा?
तेजस्वी बॉयकाट करते हैं तो क्या होगा?
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आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने जिस तरह चुनाव के बहिस्कार करने की बात कही है, उससे बिहार की राजनीति को नया मोड़ आ सकता है. तेजस्वी के इस ऐलान के बाद से सभी की निगाहें महागठबंधन के फैसला पर टिकी हुई हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, और किसी भी दल या फिर गठबंधन के बहिष्कार से चुनाव प्रक्रिया रुकना असंभव है.
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता ध्रुव गुप्ता कहते हैं कि चुनाव कराने का काम चुनाव आयोग का है. संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को चुनाव कराने, उसकी प्रक्रिया तय करने, उसे नियंत्रित करने का अधिकार देता है. इस पर कोई रोक नहीं लगा सकता. चुनाव आयोग ही तय करता है कि चुनाव निष्पक्ष हो. प्रतिस्पर्धी हो यानी कि जो चाहे वह चुनाव लड़े और उसे बराबर का मौका मिले. किसी के साथ पक्षपात न हो सके. सांसद पप्पू यादव ने भी कह दिया है कि निर्वाचन आयोग तैयारी नहीं होता है, तब चुनाव बहिष्कार आखिरी विकल्प होगा.
तेजस्वी के बहिस्कार से नहीं पड़ेगा असर
चुनाव आयोग को निर्धारित समय पर चुनाव कराने की जिम्मेदारी है. ऐसे में कोई राजनीतिक दल बहिष्कार का फैसला करता है तो सिर्फ उस दल की सियासी रणनीति को प्रभावित करता है, न कि चुनाव की प्रक्रिया को. इसीलिए भले ही उसमें कोई भी दल हिस्सा लें या नहीं. अगर केवल सत्ताधारी यानी जो दल सरकार चला रहा है, वही चुनाव में अपने कैंडिडेट खड़े करता है, या कोई निर्दलीय कैंडिडेट भी होता है तो भी चुनाव कराना निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी है.
तेजस्वी यादव या महागठबंधन के चुनाव बहिष्कार करने का कोई भी असर नहीं पड़ेगा. हां, यह जरूर है कि विपक्षी गठबंधन एकजुट होकर बहिष्कार करता है, तो यह जनता और मतदाताओं के बीच भ्रम व अविश्वास की स्थिति पैदा हो सकती है, जिससे मतदान प्रतिशत पर असर पड़ सकता है. इसके अलावा चुनाव की प्रक्रिया में किसी तरह की कोई अड़चन नहीं आएगी.
कश्मीर से पूर्वोत्तर तक चुनाव के बहिष्कार
बिहार में भले ही पहली बार तेजस्वी यादव चुनाव के बहिष्कार करते रहे हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक चुनाव के बॉयकाट किए गए. चुनाव बहिष्कार का बीज किसी अलगाववादी दल ने नहीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की नींव रखने का दावा करने वाली नेशनल कांफ्रेंस ने बोया था. इस तरह से कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक चुनाव का बहिष्कार सियासी दल करते रहे हैं, लेकिन उससे चुनाव पर कोई भी असर नहीं पड़ा.
देश में कब-कब, कहां-कहां चुनाव के बहिष्कार
भारत में चुनाव बहिष्कार के उदाहरण पहले भी देखे गए हैं, लेकिन इनका प्रभाव सीमित रहा है. 1989-90 में जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी संगठनों और कुछ स्थानीय दलों ने अशांत स्थिति के चलते चुनावों का बहिष्कार किया था. हालांकि, शेख अब्दुल्ला ही यहां इस प्रथा को लेकर आए थे. उन्होंने हमेशा अपनी दलगत सियासत के नफा-नुकसान के आधार पर कभी चुनावों में भाग लिया तो कभी बहिष्कार किया.
1989 के मिजोरम विधानसभा चुनाव: मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ विरोध में चुनाव का बहिष्कार किया था. नतीजा कांग्रेस ने सभी 40 सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन विपक्षी दलों ने बाद में इसे चुनौती दी. यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, जहां कोर्ट ने कहा कि बहिष्कार से चुनाव रद्द नहीं होता, बशर्ते प्रक्रिया वैध हो. बिहार पर यह बिल्कुल फिट बैठता है.
कश्मीर में चुनाव बॉयकाट का इतिहास
1946 में कश्मीर की सियासत में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और दूसरी मुस्लिम कांफ्रेंस ही मुख्य खिलाड़ी थी. महाराजा ने उस समय प्रजा सभा के चुनाव कराए, लेकिन शेख अब्दुल्ला ने चुनावों के बहिष्कार का एलान कर दिया था. मुस्लिम कांफ्रेंस ने उन चुनावों में हिस्सा लिया और उसे बहुमत मिला था. साल 1953 से 1972 तक कश्मीर में हुए सभी चुनाव में नेशनल कॉफ्रेंस ने हिस्सा नहीं लिया. इसके बाद 1996 के संसदीय चुनावों में भी नेशनल कॉफ्रेंस ने बहिष्कार किया था. इसके अलावा अफजल बेग के प्लेबिसाइट फ्रंट ने भी चुनाव से दूर थी.
1999 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में कुछ विपक्षी दलों खासकर अलगाववादी संगठनों ने बहिष्कार का ऐलान किया था. इसके बावजूद राज्य में चुनाव हुए और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सरकार बनाई. इसके बाद भी अलगावदी संगठनों ने चुनाव बॉयकाट अभियान चलाया, लेकिन उसका कोई असर नहीं पड़ा.
मिजोरम में चुनाव बहिष्कार का फरमान
पूर्वोत्तर के मिजोरम में चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया गया था. 1989 के मिजोरम विधानसभा चुनाव में मिजो नेशनल फ्रंट ने (कांग्रेस सरकार के खिलाफ विरोध में चुनाव का बहिष्कार किया था. इसके चलते मिजो नेशनल फ्रंट ने चुनाव में शामिल नहीं हुई, जिसके चलते कांग्रेस राज्य की सभी 40 सीटों पर जीत हासिल की. इसके बाद विपक्षी दलों ने बाद में इसे चुनौती दी. यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, जहां कोर्ट ने कहा कि बहिष्कार से चुनाव रद्द नहीं होता, बशर्ते प्रक्रिया वैध हो.
पंजाब-हरियाणा में चुनाव बॉयकाट का दांव
पूर्वोत्तर राज्यों जैसे मणिपुर और नागालैंड में भी स्थानीय संगठनों ने समय-समय पर बहिष्कार की अपील की है. हालांकि, इन मामलों में चुनाव प्रक्रिया रुकी नहीं, बल्कि कम मतदान के साथ संपन्न हुई. साल 1991 में पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बहिष्कार किया, लेकिन राजीव गांधी की हत्या के बाद चुनाव रद्द कर दिए गए. इसके अलावा 2014 में हरियाणा पंचायत चुनाव का कुछ क्षेत्रों में विपक्षी दलों ने शिक्षा और आय मानदंडों के विरोध में चुनाव का बहिष्कार किया. इसके बाद भी चुनाव आयोग ने कराया.
बिहार में क्या होगा बॉयकाट फरमान का असर
बिहार विधानसभा का कार्यकाल 22 नवंबर 2025 को समाप्त हो रहा है, और चुनाव अक्टूबर-नवंबर में संभावित हैं. SIR प्रक्रिया 30 सितंबर तक पूरी होगी, जिसके बाद विपक्ष का अगला कदम देखना अहम होगा. तेजस्वी का यह बयान क्या सिर्फ दबाव की रणनीति है या वाकई बहिष्कार की ओर बढ़ेगा, यह आने वाले दिनों में साफ होगा. फिलहाल बिहार की सियासत में सीआरआई का मुद्दा गरमाया हुआ है, और जनता की नजरें इस पर टिकी हुई है. विपक्ष चुनाव बहिष्कार का ऐलान कर रहा है, जिसका कोई सीधा असर तो नहीं पड़ेगा, लेकिन राजनीतिक दबाब का दांव जरूर माना जा रहा है.