निकोबार पोर्ट हब पहले बना होता तो वह दुबई-सिंगापुर जैसा होता, काश राहुल-सोनिया ये समझ पाते

अंडमान निकोबार को लेकर भारत सरकार ने अब तक बहुत उदासीनता बरती है. भारत ने पहले ध्यान दिया होता तो आज हमारे पास भी दुबई और सिंगापुर की तरह दुनिया का एक महत्वपूर्ण पोर्ट हब होता. विरोध का जो लेवल है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अभी भी यह सपना दूर की ही कौड़ी है.

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राहुल गांधी और सोनिया गांधी राहुल गांधी और सोनिया गांधी

संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 09 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 1:50 PM IST

बंगाल की खाड़ी में स्थिति अंडमान और निकोबार द्वीप समूह विश्व के सबसे व्यस्त समुद्री मार्गों मलक्का जलडमरूमध्य के निकट स्थित है. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यह जलडमरूमध्य वैश्विक व्यापार का 40% से अधिक हिस्सा संभालता है, जो एशिया को यूरोप, अफ्रीका और मध्य पूर्व से जोड़ता है. इतने महत्वपूर्ण मार्ग पर भारत का 572 द्वीपों वाली संरचना इसे एक आदर्श ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, नौसैना बेस और लॉजिस्टिक्स हब के रूप में बदल सकती थी. पर इसके लिए आजादी के बाद कभी काम ही नहीं किया गया.

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अब भारत सरकार ने इस महत्वपूर्ण कार्य का श्रीगणेश किया है तो पर्यावरण के नाम पर इसका विरोध शुरू हो गया है. दुनिया में एक बहुत बड़ी लॉबी है जो कभी नहीं चाहती है कि भारत एक संपन्न और ताकतवर देश बने. इसलिए किसी न किसी बहाने यहां के रक्षा और विकास प्रोजेक्ट को पलीता लगा दिया जाता है.

सोनिया गांधी ने द हिंदू अखबार में एक ऑर्टिकल लिखकर सरकार के कई लाख करोड़ के प्रोजेक्ट को पर्यावरण पर हमला बताया है. राहुल गांधी ने भी अपने एक्स हैंडल पर सोनिया के लेख को ट्वीट किया है और उनकी तर्कों से सहमति जताई है.

सोनिया गांधी की आदिवासियों के प्रति चिंता कितनी गंभीर है?

ग्रेट निकोबार परियोजना में ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, डिफेंस बेस, टाउनशिप और पावर प्लांट शामिल हैं. 160 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के इस प्रोजेक्‍ट को सोनिया गांधी यहां के पर्यावरण और आदिवासियों के लिए अस्तित्‍व का खतरा' मान रही हैं. ग्रेट निकोबार दो आदिवासी समुदायों निकोबारीज और शोम्पेन का घर है. निकोबारीज कृषि और मछली पालन पर निर्भर हैं, जबकि शोम्पेन वन-आधारित शिकार और संग्रहण पर.

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गांधी के लेख में कहा गया है कि शोम्पेन पॉलिसी (ट्राइबल अफेयर्स मिनिस्ट्री द्वारा अधिसूचित) विकास परियोजनाओं में उनके कल्याण को प्राथमिकता देती है, लेकिन इसे अनदेखा किया गया. दरअसल सोनिया जिस शोम्पेन की बात कर रही हैं 2001 में उनकी आबादी लगभग 300 अनुमानित थी. शोम्पेन गांव-ए और शोम्पेन गांव-बी में अधिकांश शोम्पेन निवास करते हैं. 2004 में आई सुनामी से पहले, इन गांवों में क्रमशः 103 और 106 शोम्पेन थे. जो सुनामी के बाद सिर्फ 10 और 44 ही बचे. 

सवाल यह उठता है कि इन जनजातियों को बचाने के दो तरीके हैं. पहला तरीका है उन्हें उनके हाल में रहने के लिए छोड़ दिया जाए. जाहिर है कि प्रकृति से लड़ने की क्षमता उनमें कमजोर रही है. सुनामी से वह नहीं लड़ सकते थे. अगर निकोबार में भौतिक विकास होता तो वहां अब तक जापान की तरह तमाम बंकर बन चुके होते. जो उन्हें सुनामी से बचाने में कारगर साबित हो सकते थे. वैसे भी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया सभी आदिवासियों की जमीन पर बसे हैं और उन्होंने समावेशी विकास का मॉडल दुनिया को दिखाया है. भारत को भी निसंकोच समावेशी विकास के मॉडल पर काम करना चाहिए.

सोनिया गांधी के लेख में ग्रेट निकोबार को seismically sensitive earthquake prone zone बताया गया है. 2004 के सुनामी की तबाही और जुलाई 2025 का 6.2 तीव्रता का भूकंप इस खतरे की याद दिलाता है. अगर सोनिया गांधी के इस तर्क को माना जाए तो जापान में कोई विकास होना ही नहीं चाहिए था. वहां हर रोज भूकंप आता है पर दुनिया का सबसे बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर जापानियों ने वहां खड़ा कर सर्वाइव कर रहे हैं. यदि आजादी के बाद भारत ने पर्यावरणीय संतुलन को ध्यान में रखते हुए अंडमान निकोबार में निवेश किया होता, तो यह क्षेत्र सिंगापुर और दुबई की तरह एक वैश्विक हब बन सकता था, बिना आदिवासी समुदायों को खतरे में डाले.

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स्वतंत्रता के बाद की ऐतिहासिक चुनौतियां और खोए अवसर

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल को अपनाया गया. जिसके चलते अंडमान जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में भारी निवेश संभव न था. बाहरी पूंजी निवेश न होने के चलते संसाधनों की कमी, तकनीकी सीमाएं और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने इस क्षेत्र को उपेक्षित रखा.

दूसरी तरफ सिंगापुर ने 1960-70 के दशक में ली कुआन यू की नीतियों से अपना बंदरगाह विकसित किया. गौरतलब है कि तब सिंगापुर की स्थिति भारत के मुकाबले बेहद खराब थी. दुबई पोर्ट भी तेल आधारित अर्थव्यवस्था के चलते पॉपुलर और डिवेलप नहीं हुआ. दुबई को फ्री पोर्ट हब बनाने के चलते लोकप्रियता मिली. 

सोनिया गांधी की तरह ही पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारें भी पारिस्थितिक चिंताओं के नाम पर विकास को रोकती रहीं. सोनिया गांधी ने अपने लेख में खुद लिखा है कि कांग्रेस शासित काल में एयरस्ट्रिप्स, रडार सुविधाओं और पोर्ट विस्तार को नाजुक पारिस्थितिकी के कारण रोका गया. जिसके चलते अंडमान द्वीप समूह रणनीतिक और आर्थिक दोनों ही रूप से पिछड़ गया. सोनिया गांधी ने अपने लेख में मुख्य फोकस वर्तमान मोदी सरकार की नीतियों पर रखा है. उन्होंने ग्रेट निकोबार परियोजना को half-baked और ill-conceived policymaking कहा है.

अंडमान और निकोबार को पोर्ट हब बनाने का काम पहले हुआ होता तो... 

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अंडमान को पोर्ट हब बनाने से भारत वैश्विक व्यापार का एक प्रमुख केंद्र बन सकता था. मलक्का जलडमरूमध्य, जो विश्व के 40% समुद्री व्यापार को संभालता है, के निकट होने से ट्रांसशिपमेंट, और लॉजिस्टिक्स सेवाएं प्रदान की जा सकती थीं. यह सिंगापुर और कोलंबो जैसे बंदरगाहों पर भारत की कार्गो निर्भरता को कम करता, जिससे विदेशी मुद्रा की बचत होती. उदाहरण के लिए, सिंगापुर का पोर्ट 30 मिलियन TEU (ट्वेंटी-फुट इक्विवेलेंट यूनिट) कार्गो संभालता है, और अंडमान इसकी प्रतिस्पर्धा कर सकता था. 

इससे भारत को निर्यात-आयात लागत में कमी, रोजगार सृजन (विशेषकर मत्स्य पालन और शिपिंग उद्योग में), और स्थानीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि होती. पर्यटन और क्रूज टर्मिनल जैसे क्षेत्र भी विकसित होते, जिससे राजस्व बढ़ता.

अंडमान का पोर्ट हब हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की नौसैनिक और रणनीतिक स्थिति को मजबूत करता. यह चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स रणनीति का जवाब देता, विशेषकर मलक्का जलडमरूमध्य पर निगरानी बढ़ाकर. भारत की लुक ईस्ट और एक्ट ईस्ट नीतियों को बल मिलता, जिससे ASEAN देशों के साथ व्यापार और रक्षा सहयोग बढ़ता. अंडमान एक सैन्य और व्यापारिक चौकी के रूप में कार्य करता, जिससे भारत की क्षेत्रीय प्रभावशीलता बढ़ती.

पोर्ट हब के विकास से अंडमान में बुनियादी ढांचा (सड़क, बिजली, टेलीकॉम) बेहतर होता, जिससे स्थानीय समुदायों को शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के अवसर मिलते. यदि पर्यावरणीय संतुलन और आदिवासी अधिकारों (जैसे निकोबारीज और शोम्पेन) का ध्यान रखा जाता, जैसा कि सोनिया गांधी ने अपने लेख में FRA 2006 और PESA के उल्लंघन पर चेतावनी दी है, तो यह समावेशी विकास का मॉडल बन सकता था.

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अंडमान के पोर्ट हब ने सिंगापुर और दुबई की तरह भारत को वैश्विक व्यापार में अग्रणी बनाया होता. सिंगापुर की मुक्त व्यापार नीतियों और दुबई के जेबेल अली पोर्ट की तरह, अंडमान भारत को दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया का व्यापारिक प्रवेश द्वार बना सकता था.

आजादी के बाद अंडमान निकोबार में प्रमुख पोर्ट हब विकसित करने के प्रस्ताव और रुकावटें

स्वतंत्रता के बाद अंडमान और निकोबार को पोर्ट हब बनाने के कई प्रस्ताव आए, लेकिन पर्यावरणीय, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक रुकावटों के चलते कभी क्रियान्वित नहीं किया जा सका. मलक्का जलडमरूमध्य के निकट इसकी रणनीतिक स्थिति इसे वैश्विक व्यापार केंद्र बनाने में सक्षम थी, लेकिन उपेक्षा के कारण ही भारत के पड़ोस में सिंगापुर और दुबई जैसे पोर्ट उभरे. 

1950-60 में छोटे पोर्ट सुधार और मत्स्य पालन प्रस्ताव आए, लेकिन बड़े हब की योजना नहीं बनीं. 1965 में अंडमान हार्बर वर्क्स की स्थापना हुई, जो सीमित रही. 1970 के दशक में ग्रेट निकोबार में ट्रांसशिपमेंट पोर्ट का पहला प्रस्ताव आया, जिसका लक्ष्य सिंगापुर से कार्गो स्थानांतरित करना था. राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण, पर लागू नहीं हुआ. अस्सी के दशक की शुरूआत में आर. श्रीनिवासन समिति ने पोर्ट मैनेजमेंट बोर्ड की सिफारिश की, जो माइनर पोर्ट्स की तरह काम करे. छोटे पोर्ट (पोर्ट ब्लेयर, डिग्लिपुर) विकसित हुए, लेकिन हब नहीं बनाया जा सका.

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 2001 में अंडमान निकोबार कमांड स्थापित हुआ. 2004 की सुनामी के बाद पुनर्निर्माण और 2015 में10,000 करोड़ की योजना (ट्रांसशिपमेंट, बंकरिंग) प्रस्तावित हुई. 2021 में नीति आयोग की 72,000 करोड़ की ग्रेट निकोबार परियोजना में कंटेनर टर्मिनल, हवाई अड्डा और टाउनशिप शामिल हैं. 2022 में पर्यावरण मंजूरी मिली, 2028 तक इसे पूरा करने का लक्ष्य है. पर जिस तरह सोनिया-राहुल गांधी जैसी हस्तियां इसके विरोध में उतर आईं हैं उससे लगता नहीं है कि डेडलाइन पर यह काम पूरा हो सकेगा.

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