आज गंगा दशहरा है. यह पर्व ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तिथि को मनाया जाता है. माना जाता है कि इसी दिन गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था. इस दिन गंगा स्नान, गंगा जल का प्रयोग और दान करना विशेष लाभकारी होता है. इस दिन गंगा की आराधना करने से पापों से मुक्ति मिलती है. व्यक्ति को मुक्ति मोक्ष का लाभ मिलता है.
गंगा का पौराणिक महत्व
माना जाता है कि गंगा का जन्म भगवान विष्णु के पैरों से हुआ था. साथ ही, यह शिव जी की जटाओं में निवास करती हैं. शिवजी ने अपनी जटाओं को सात धाराओं में विभाजित कर दिया. ये धाराएं हैं- नलिनी, हृदिनी, पावनी, सीता, चक्षुष, सिंधु और भागीरथी. भागीरथी ही गंगा हुई और हिन्दू धर्म में मोक्षदायिनी मानी गई.
गंगा दशहरा पर क्या करें?
इस दिन किसी पवित्र नदी या गंगा नदी में स्नान करें. घी मिश्रित तिल और गुड़ को या तो जल में डालें या पीपल के नीचे रख दें. मां गंगा का ध्यान करके उनकी पूजा करें. उनके मंत्रों का जाप करें. पूजन में जो भी सामग्री प्रयोग करें उनकी संख्या 10 होनी चाहिए. विशेष रूप से 10 दीपक का प्रयोग करें. दान भी दस ब्राह्मणों को करें. लेकिन ब्राह्मणों को दिए जाने वाले अनाज सोलह मुट्ठी होने चाहिए
कैसे हुआ मां गंगा का अवतरण?
एक बार महाराज सगर ने व्यापक यज्ञ किया. उस यज्ञ की रक्षा का भार उनके पौत्र अंशुमान ने संभाला. इंद्र ने सगर के यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया. यह यज्ञ के लिए विघ्न था. परिणाम स्वरूप अंशुमान ने सगर की साठ हजार प्रजा लेकर अश्व को खोजना शुरू कर दिया. सारा भूमंडल खोज लिया पर अश्व नहीं मिला. फिर अश्व को पाताल लोक में खोजने के लिए पृथ्वी को खोदा गया. खुदाई पर उन्होंने देखा कि साक्षात् भगवान 'महर्षि कपिल' के रूप में तपस्या कर रहे हैं. उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है. प्रजा उन्हें देखकर 'चोर-चोर' चिल्लाने लगी और इस तरह महर्षि कपिल की समाधि टूट गई. महर्षि ने अपने आग्नेय नेत्र खोले और सारी प्रजा भस्म हो गई. इन मृत लोगों के उद्धार के लिए ही महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कठोर तप किया था.
भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उनसे वर मांगने को कहा तो भगीरथ ने 'गंगा' की मांग की. इस पर ब्रह्मा ने कहा- 'राजन! तुम गंगा का पृथ्वी पर अवतरण तो चाहते हो? परंतु क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी? मेरा विचार है कि गंगा के वेग को संभालने की शक्ति केवल भगवान शंकर में है. इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए.'
महाराज भगीरथ ने वैसे ही किया. उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ा. तब भगवान शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेटकर जटाएं बांध लीं. इसका परिणाम यह हुआ कि गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका. महाराज भगीरथ ने भगवान शिव की आराधना में घोर तप शुरू किया. तब कहीं भगवान शिव ने गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया. इस प्रकार शिवजी की जटाओं से छूट कर गंगाजी हिमालय की घाटियों में कल-कल निनाद करके मैदान की ओर मुड़ी. इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगा का वरण करके बड़े भाग्यशाली हुए. उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया. युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है. गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, मुक्ति भी देती है. इसी कारण भारत तथा विदेशों तक में गंगा की महिमा गाई जाती है.