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ममता बनर्जी के 4 ब्रह्मास्त्र, 13 साल बाद भी इसलिए बरकरार है बंगाल में जादू

ये ममता बनर्जी की राजनीतिक ताकत ही है कि भारतीय जनता पार्टी पूरी ताकत लगाकर भी टीएमसी का कुछ बिगाड़ नहीं पा रही है. आखिर वो कौन से कारण हैं जिसके चलते साल दर साल वो और मजबूत होती जा रही हैं.

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ममता बनर्जी ने बंगाल में कौन सा जादू किया?
ममता बनर्जी ने बंगाल में कौन सा जादू किया?

13 सालों के बाद भी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का ‘मां, माटी, मानुष’ का जलवा बरकरार है. पश्चिम बंगाल में 2024 के लोकसभा चुनावों में न संदेशखाली का मुद्दा चला और न ही सीएए का. दीदी ने अकेले ही बीजेपी के इन दोनों तीरों को निपटा दिया. जो काम उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने मिलकर किया उससे भी बेहतर तरीके से ममता बनर्जी ने बंगाल में कर दिया. कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों की सहायता के बिना दीदी ने आखिर ये सब कैसे कर लिया? आइये दीदी के उन ब्रह्मास्त्र की चर्चा करते हैं जिनके बलबूते भारतीय जनता पार्टी के हर दांव को उन्होंने तहस नहस कर दिया. इतना ही नहीं बीजेपी साल 2019 के आंकड़े को भी नहीं छू पाई और उसकी सीटों की संख्या में भारी कमी आई है. लेफ्ट और कांग्रेस को भी बंगाल में औकात बता दी.

1-एकला चलो रे 

ममता बनर्जी ने इंडिया गठबंधन के किसी भी दल के साथ सीट शेयरिंग नहीं की. ममता बनर्जी जानती थीं कि टीएमसी बंगाल के लिए अकेले ही काफी है. अगर कांग्रेस के साथ ममता बनर्जी चुनाव लड़ती तो कई मुद्दों पर जरूर कांग्रेस उनका नैतिक आधार पर साथ देने के लिए मजबूर रहती. पर ममता बनर्जी को पता था कि कांग्रेस के कारण कई मुद्दों पर वो कमजोर हो जातीं. राहुल गांधी लगातार जातिगत जनगणना की मांग कर रहे थे. जबकि बंगाल में ओबीसी पॉलिटिक्स अभी तक जवां नहीं हो सकी है. अभी भी वहां ओबीसी को अधिकतम 27 प्रतिशत आरक्षण नहीं मिल सका है. बंगाल में ओबीसी आरक्षण केवल 17 फीसदी ही है. इसी तरह ममता दीदी को पता था कांग्रेस के आने से उसके फिर से जिंदा होने की संभावना बढ़ जाएगी. फिर भी दीदी राहुल गांधी को 2 सीट दे रही थीं. राहुल गांधी होशियार होते तो उन्हें कम से कम 2 एमपी तो बंगाल से मिल ही जाते. गठबंधन न करने के चलते कांग्रेस को केवल एक सीट पर संतोष करना पड़ा है. इसके साथ ही टीएमसी को भी कम से कम 6 सीटों का फायदा होता जहां से बीजेपी के सांसद बने हैं. ममता बनर्जी ने यह भी साबित कर दिया कि कांग्रेस को 2 सीट देकर उपकार ही कर रही थीं.  

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2-संगठन की मजबूती

बंगाल में जिस पार्टी का संगठन मजबूत होता है उसी की सरकार बनती है. पश्चिम बंगाल में माकपा ने लगातार करीब 22 साल तक राज किया. कारण यही था कि गांव -गांव में माकपा के कार्यालय उसी तरह मजबूत थे जिस तरह आज टीएमसी के हैं. बंगाल में ये पार्टी कार्यालय सरकारी विभागों की तरह काम करते हैं. थाने में कोई मुकदमा तब तक नहीं लिखा जाता है जब तक स्थानीय इकाई से बात न हो जाए. टीएमसी ने हर मोहल्ला और इलाके में माकपा की तरह पार्टी का कार्यालय बना लिया  है. इन पार्टी कार्यालयों में सामाजिक से लेकर पारिवारिक मसलों तक का निपटारा होता है. इसका फायदा यह होता है कि पार्टी के निचले स्तर के नेताओं का आम लोगों से सीधा और अच्छा संपर्क रहता है. कोई भी शख्स हो और उसका कोई भी काम किसी भी विभाग में है तो वो पहले इन कार्यालयों की शरण लेता है. यदि नगरपालिका में काम है और पार्टी कार्यालय से ओके हो गया तो तो बिना किसी पैरवी के विभाग तुरंत करने को मजबूर होता है. भारतीय जनता पार्टी जब तक स्थानीय लेवल पर इस तरह नहीं घुस जाएगी जैसे आज टीएमसी घुसी हुई है, तब तक पश्चिम बंगाल में विजयश्री हासिल करना एक सपना ही रहेगा.

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3-मां-माटी-मानुष पर अडिग

पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री और अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने यह नारा गढ़कर प्रदेश में वाम मोर्चे की सरकार और पार्टियों दोनों को नेस्तनाबूद कर दिया. अब ममता बनर्जी इस नारे की बदौलत ही वेस्ट बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को न घुसने देने के लिए दीवार खड़ी कर दी हैं. यह नारा ममता ने 2009 में हो रहे आम चुनाव से पहले अपने पार्टी का स्लोगन बनाया. बाद में यहां बनर्जी और उनकी पार्टी का आईकॉनिक नारा बन गया. नारे के तीन शब्द मां, माटी और मानुष का अर्थ क्रमशः मातृभूमि ,अपना राज्य और अपनी जनता से लिया गया है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने सभी चुनावों में इस नारे का खूब इस्तेमाल किया है. इस नारे का का ही कमाल है कि संदेशखाली और सीएए -यूसीसी का मुद्दा बंगाल की जनता के आगे काम नहीं कर सका. बशीरहाट लोकसभा सीट जिसके अधीन संदेशखाली है, इस सीट से बीजेपी की उम्मीदवार और संदेशखाली आंदोलन की चेहरा रेखा पात्रा अपना कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाईं और न ही बशीरहाट के अतिरिक्त राज्य के किसी अन्य लोकसभा क्षेत्र पर संदेशखाली का कोई प्रभाव पड़ा है.

4-बंगाल की जनता की नब्ज समझने की कला

वर्तमान में बंगाल में ममता बनर्जी के अलावा कोई ऐसा लीडर नहीं है जिसे अपने प्रदेश की जनता की नब्ज पता हो. यही कारण है कि बीजेपी को लगातार इस प्रदेश में मुंह की खानी पड़ रही है. टीएमसी में कभी नंबर दो के नेता रहे सुवेंदु अधिकारी को भी बंगाल की समझ सीमित ही है . अगर ऐसा नहीं होता तो बंगाल बीजेपी में फुल फ्लेज्ड पावर मिलने के बाद भी पहले विधानसभा चुनाव बीजेपी हारी. फिर स्थानीय निकाय चुनावों में मुंह की खानी पड़ी. अब लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी की दुर्गति हुई है. 

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ममता बनर्जी ने चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह सीएए का विरोध किया यह उनका तजुर्बा ही था. उन्होंने कहा था कि जीते जी कोई भी सरकार इसे बंगाल में लागू नहीं कर पाएगी. ममता के इस दावे के बाद ऐसा लगता था कि ममता बनर्जी को कुछ क्षेत्रों में नुकसान हो सकता है. क्योंकि बंगाल में राजवंशी और मतुआ समुदाय की संख्या अच्छी खासी है पर ऐसा हुआ नहीं. चुनाव से पहले केंद्र सरकार की ओर से सीएए को लेकर अधिसूचना जारी की गई थी. इसका कारण सिर्फ यही था कि बांग्लादेश से आये हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने का वादा करके बंगाल में चुनाव लाभ लिया जाएगा. लेकिन चुनाव परिणाम से साफ है कि बंगाल में दीदी के आगे शरणार्थियों को नागरिकता, मतुआ को नागरिकता और घुसपैठ का मुद्दा भी ज्यादा प्रभाव नहीं डाल पाया है. भारतीय जनत पार्टी पिछली बार इसी मुद्दे पर उत्तर बंगाल में अपनी पकड़ बना ली थी जिसका लाभ लोकसभा चुनावों में मिला था. लेकिन इस बार बीजेपी को यहां धक्का लगा है. केंद्र में मंत्री निशिथ प्रमाणिक तक चुनाव हार गए हैं. राजवंशी समुदाय के नेता अनंत महाराज को बीजेपी ने राज्यसभा में सांसद बनाया, लेकिन कूचबिहार में इसका प्रभाव नहीं दिखा. 

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