बिहार विधानसभा चुनाव 2025 नतीजों ने 'सीएम कौन बनेगा?' के सवाल को लगभग समाप्त कर दिया है. NDA की प्रचंड जीत और JDU–BJP की वापसी ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया है कि इस बार सरकार बनाने की प्रक्रिया न तो लंबी चलेगी और न ही किसी तरह का 'महाराष्ट्र मॉडल' बिहार में दोहराया जाएगा. वजह साफ है कि नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का प्रदर्शन 2020 की तुलना में बेहतर रहा है, और BJP का स्टैंड इस बार कहीं अधिक स्पष्ट और सामंजस्यपूर्ण है.
1. परिणामों ने तस्वीर साफ कर दी है
सबसे प्रमुख कारण, जिससे 'अगला मुख्यमंत्री कौन' का सवाल लगभग समाप्त माना जा रहा है, वह है JDU का मजबूत प्रदर्शन. 2020 में सीटों की गिरावट से बनी नीतीश कुमार की 'कमजोर स्थिति' अब नहीं रही. इस बार का परिणाम यह दिखाता है कि नीतीश न केवल अपने कोर वोट-बेस को बचाने में सफल रहे, बल्कि NDA के पारंपरिक सामाजिक समीकरण को भी स्थिर किया.
हालांकि BJP का स्ट्राइक रेट अधिक रहा है, लेकिन यह भी सच है कि बिहार BJP के पास अब भी ऐसा सर्वमान्य चेहरा नहीं है. जैसा महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस के रूप में मौजूद था. यही कारण है कि भाजपा के लिए नीतीश की स्वीकार्यता का कोई विकल्प नहीं है.
2. सुशासन बाबू की विरासत
नीतीश कुमार को समझना हो तो यह देखना होगा कि उनकी राजनीतिक पूंजी तीन पिलर पर टिकती है. सुशासन का नैरेटिव, सामाजिक संतुलन और केंद्र के साथ सामंजस्य. उनके शासन में बनी सड़क, शिक्षा, जनकल्याण और महिलाओं के सशक्तिकरण की छवि आज भी एक बड़े वर्ग में गहरी है. भले राजनीतिक विरोधी उन्हें बार-बार पाला बदलने को लेकर घेरते रहे हों, लेकिन जनता के बीच उनकी प्रशासनिक क्षमता पर भरोसा कम नहीं हुआ. इस चुनाव के परिणाम इसका संकेत हैं.
यही कारण है कि NDA में अब भी मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश सबसे नैचुरल और व्यावहारिक विकल्प बने हुए हैं.
3. महाराष्ट्र जैसी स्थिति? बिहार में संभव नहीं
नतीजों के बाद कुछ विश्लेषकों ने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए कहा कि क्या बिहार में भी 'उद्धव–शिंदे' जैसी स्थिति बन सकती है? लेकिन बिहार की राजनीतिक संरचना, BJP की रणनीति, और नीतीश–JDU का प्रभाव महाराष्ट्र से बिल्कुल अलग है.
पहला, BJP ने इस बार गठबंधन की राजनीति में बेहद संयम और साफगोई दिखाई. भले ही नीतीश को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया गया, लेकिन मोदी और अमित शाह ने सार्वजनिक मंचों से नीतीश कुमार को ही आगे रखा. दूसरा, नीतीश कुमार का NDA के भीतर भी महत्त्व कहीं अधिक है. वे सिर्फ एक राज्य के नेता नहीं बल्कि केंद्र की राजनीति में भी उपयोगी हैं.
तीसरा, शिंदे मॉडल महाराष्ट्र में शिवसेना के अंतरकलह से उपजा था, जहां दो धड़ों के बंटने की जमीन तैयार थी. JDU में इस तरह की विसंगति न तो दिखती है और न उसका ऐसा कोई बैकग्राउंड है.
इसलिए बिहार में 'शिंदे मॉडल' लागू होने की संभावना राजनीतिक रूप से भी कमजोर है और अव्यावहारिक भी.
4. BJP की सीमाएं और नीतीश की उपयोगिता का फैक्टर
BJP बिहार में संगठनात्मक रूप से मजबूत है. वोट शेयर भी स्थिर है. लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह है कि BJP के पास बिहार में अभी भी एक ऐसा सर्वमान्य चेहरा नहीं है जो पूरे राज्य में नीतीश की जगह ले सके. महाराष्ट्र में फडणवीस एक दशक से राज्य नेतृत्व का चेहरा बन चुके थे. बिहार में न तो ऐसा कोई समकक्ष चेहरा है और न ही BJP उस तरह का जोखिम उठाना चाहती है.
इसके साथ एक पहलू यह भी है कि नीतीश कुमार मोदी सरकार के लिए भी महत्त्वपूर्ण सहयोगी हैं, खासकर केंद्रीय योजनाओं के कैडर-आधारित जमीन-स्तरीय कार्यान्वयन में. विपक्ष को कमजोर करने से लेकर NDA की राष्ट्रीय रणनीति को स्थिर रखने तक, नीतीश एक ऐसा स्तंभ हैं जिन्हें हटाना राजनीतिक रूप से BJP को कहीं अधिक महंगा पड़ सकता है. इसलिए BJP का नीतीश के प्रति व्यवहार अधिक 'सहयोगपूर्ण' और 'व्यावहारिक' है.
5. जेडीयू–BJP समीकरण का नया संतुलन
यह चुनाव परिणाम इस गठबंधन को एक नए संतुलन पर लेकर आया है. BJP बड़ी पार्टी है, लेकिन JDU का चेहरा नीतीश कुमार जनता में अधिक स्वीकार्य है. गठबंधन स्थिर करने के लिए BJP को नेतृत्व नीतीश के हाथ में देना होगा, और सामाजिक समीकरण भी नीतीश के हाथ से बेहतर संचालित होते हैं. यानी, बिहार और केंद्र में NDA के लिए रणनीति साफ है, स्थिरता का मतलब नीतीश कुमार का नेतृत्व.
बिहार के इस चुनाव ने दिखाया है कि गठबंधन की राजनीति में चेहरे का महत्त्व उतना ही है जितना सीटों का. BJP भले बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, लेकिन JDU का नेतृत्व गठबंधन की वो गोंद है जो सभी हिस्सों को जोड़कर रखता है. इसलिए अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, यह सवाल अब खत्म माना जा रहा है क्योंकि बिहार ने एक बार फिर यह स्वीकार किया है कि स्थिरता और अनुभव के नाम पर नीतीश कुमार जैसा चेहरा ही सबसे अहम है.