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पंजाब में केजरीवाल को लगता है अगली बार 100 पार, लेकिन लुधियाना पूरा पंजाब नहीं है

पंजाब में लुधियाना की जीत से आम आदमी पार्टी का जोश बढ़ा है, और केजरीवाल ने अगली बार 100 पार का दावा किया है. लेकिन विधानसभा चुनाव तक की राह आसान नहीं. कांग्रेस और बीजेपी भी मोर्चा संभाल रही हैं. यह रिपोर्ट बताती है कि लुधियाना की जीत क्या पूरे पंजाब का संकेत है या सिर्फ अपवाद.

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अरविंद केजरीवाल को साथियों को ये भी समझाना चाहिये कि आने वाली लड़ाई पिछली बार से ज्यादा मुश्किल हो सकती है.
अरविंद केजरीवाल को साथियों को ये भी समझाना चाहिये कि आने वाली लड़ाई पिछली बार से ज्यादा मुश्किल हो सकती है.

अरविंद केजरीवाल का जोश हाई होना बनता है. लेकिन अति उत्साह में सब गड़बड़ भी हो जाता है. लोकसभा चुनाव में बीजेपी की फजीहत के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अति आत्मविश्वास को ही वजह बताया था. पंजाब में भी उत्तर प्रदेश के साथ ही 2027 में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं.

आम आदमी पार्टी के लिए अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी जैसा कोई स्लोगन तो नहीं दिया है, लेकिन दावा मिलता जुलता ही है. अरविंद केजरीवाल ने अगली बार पंजाब में 100 पार का दावा किया है. बीजेपी ने तो लोकसभा चुनाव में स्लोगन ही दिया था, 'अबकी बार 400 पार'. ये जरूरी तो नहीं कि बीजेपी अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई, तो केजरीवाल भी चूक जाएंगे - लेकिन हालात संभावनाओं को आशंका में कब बदल देते हैं, कहना और समझना किसी के लिए भी मुश्किल होता है.

बेशक अरविंद केजरीवाल को ये आत्मविश्वास लुधियाना वेस्ट की जीत से मिला है, लेकिन जितनी मेहनत लुधियाना के लिए आम आदमी पार्टी ने की है, क्या उतनी मेहनत पूरे पंजाब विधानसभा चुनाव में संभव है? 

2027 की लड़ाई ज्यादा मुश्किल हो सकती है

दिल्ली के जख्मों को भुलाने का मौका बड़े दिनों बाद आया था. अरविंद केजरीवाल भी दिल्ली में काफी सुकून महसूस कर रहे थे. पंजाब की जीत के लिए भगवंत मान को भी अरविंद केजरीवाल ने बधाई दी. पंजाब और गुजरात के नेताओं से मुलाकात का बड़ा ही खुशनुमा माहौल बना था. कुल मिलाकर आगे के लिए नेताओं की पीठ ठोकने और नया टार्गेट देने का भी सही मौका था. 

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अरविंद केजरीवाल अपने हिसाब से समझा रहे थे, दो साल बाद पंजाब का चुनाव है... तीन साल हो गए, पंजाब में सरकार चलाते हुए... कहा जाता है कि तीन साल सरकार चलाने के बाद एंटी-इनकंबेसी आ जाती है, लेकिन जिस मार्जिन से संजीव अरोड़ा जीते हैं मानो वो प्रो-इनकंबेसी है. लोग पिछली बार से ज्यादा समर्थन देने जा रहे हैं... ऐसा लगता है कि पिछली बार 92 सीटें आई थीं... इस बार 100 पार तो करनी ही चाहिए.

उम्मीदों पर दुनिया कायम है. सपने देखने भी चाहिये, दिखाने भी चाहिये. लेकिन, ये भी नहीं भूलना चाहिये कि देश की राजनीति में फीलिंग गुड फॉर्मूला कभी चला नहीं है. बीजेपी तो कई बार स्वाद चख चुकी है. और दिल्ली में तो आम आदमी पार्टी को भी चखा चुकी है - और 2027 में मुकाबले की तैयारी वो भी कर रही है. 

2022 में पंजाब की राजनीतिक स्थिति अलग थी. आगे भी वैसी ही हालत होगी, कौन कह सकता है. कांग्रेस में तब भयंकर गुटबाजी थी. खैर, वो तो अब भी खत्म नहीं हो पाई है. जो कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत थी, उसे आलाकमान ने दरकिनार कर दिया. और, बयान बहादुरों के सिर पर हाथ रख दिया था. कांग्रेस ने तो जैसे थाली सजाकर आम आदमी पार्टी को सत्ता सौंप दी थी. अकाली दल से अलग हो जाने के बाद बीजेपी भी तब तक अपने को इस लायक नहीं बना पाई थी कि ठीक से मुकाबला कर सके. कैप्टन अमरिंदर के साथ गठबंधन भी रस्मअदायगी जैसा ही था, और नतीजे भी वैसे ही आये. 

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लुधियाना उपचुनाव में कांग्रेस कैसे लड़ी

लुधियाना में अरविंद केजरीवाल पहले से ही तैयारी में जुट गये थे. कांग्रेस की तरफ से मोर्चा भारत भूषण आशु को ही संभालना था, लेकिन वो आम आदमी पार्टी की तरह माहौल नहीं बना सके. आशु हार की जिम्मेदारी ले चुके हैं, लेकिन सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के भी आरोप लगा रहे हैं. गुस्सा तो अपने ही नेताओं से भी हैं. सभी से तो नहीं, लेकिन जिनके हाथ में कांग्रेस की कमान है. 

इंडियन एक्सप्रेस ने आशु से पूछा है, अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग और विपक्ष के नेता प्रताप बाजवा प्रचार से दूर क्यों रहे? अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग पंजाब कांग्रेस के प्रधान हैं. पंजाब में पीसीसी अध्यक्ष को प्रधान ही कहते हैं. 

भारत भूषण आशु का जवाब होता है, जवाब तो उन्हें खुद ही देना चाहिए... उन्हें आना चाहिए था, और चुनाव प्रचार करना चाहिए था... क्या मैं कोई अधिकारी हूं जो किसी को लुधियाना आने की अनुमति देने या न देने के लिए वीजा जारी करता हूं... आना या न आना उनकी अपनी मर्जी थी... ये मेरी शादी नहीं थी कि मुझे व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण भेजना चाहिए था.

जब वड़िंग की बात याद दिलाई जाती है कि जहां भी बुलाया गया था, वो वहां चुनाव प्रचार के लिए गये थे, तो आशु कहते है, अगर प्रधान अपने लिए निमंत्रण का इंतजार कर रहा है, तो बड़े अफसोस की बात है... फिर निमंत्रण कहीं से भी नहीं आएगा... आराम से चंडीगढ़ में बैठना चाहिए.

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आशु को पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और परगट सिंह जैसे नेताओं से शिकायत नहीं है, सिर्फ उनसे है जो पदाधिकारी हैं, और उन पर जिम्मेदारी है. आशु भी कार्यकारी अध्यक्ष थे, लेकिन अपनी हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया है. 

लुधियाना के आंकड़े क्या कहते हैं?

आंकड़े तो यही बता रहे हैं कि आशु दूसरी बार ज्यादा वोटों से हारे हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के गुरप्रीत सिंह गोगी ने आशु को 7,512 वोटों से हराया था. और, उपचुनाव में वो आम आदमी पार्टी उम्मीदवार संजीव अरोड़ा से 10, 637 वोटों से हारे हैं. ध्यान देने वाली बात ये भी है कि बीजेपी उम्मीदवार जीवन गुप्ता को भी आशु से 4 हजार ही कम वोट मिले हैं. भारत भूषण आशु को 24,542 वोट मिले हैं, जबकि जीवन गुप्ता के खाते में 20,323 वोट पड़े हैं.   

आम आदमी पार्टी को ये नहीं भूलना चाहिये कि कांग्रेस में झगड़ा भले खत्म नहीं हुआ है, लेकिन लुधियाना के मैदान में उम्मीदवार अपने बूते मैदान में डटा हुआ है. आगे भी ऐसी चीजें देखने को मिलेंगी. कांग्रेस उम्मीदवार जीतें भले न, लेकिन दूसरों को हराने की हैसियत में तो होंगे ही. 

दिल्ली की कई विधानसभा सीटों पर जो पैटर्न देखा गया है, पंजाब में भी आने वाले चुनाव में देखने को मिल सकता है. पिछली बार भी ये देखने को मिला था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी दोनों के कॉमन मिसाइल कुमार विश्वास के इल्जाम होते थे. 

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और अरविंद केजरीवाल को ये भी नहीं भूलना चाहिये कि पंजाब की राजनीति दिल्ली जैसी नहीं है. पिछली बार आम आदमी पार्टी को जीत तब मिली थी, जब पंजाब में एक बड़ा गैप आ गया था. कांग्रेस पूरी तरह बिखरी हुई थी, और अकाली दल के भरोसे राजनीति करने वाली बीजेपी ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाई थी. पांच साल का वक्त लंबा होता है, बीजेपी नई तैयारियों के साथ उतरने वाली है. और कांग्रेस कोई खत्म नहीं हुई है - केजरीवाल का '100 पार' का हाल भी बीजेपी के '400 पार' जैसा हो सकता है.

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