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खत्म हो चुकी ताकत या नया खतरा... भारतीय सुरक्षाबलों के लिए कितनी बड़ी चुनौती है ULFA?

बांग्लादेश की कार्रवाई के बाद उल्फा के पास सिर्फ म्यांमार के सागाइंग इलाके के घने पहाड़ी जंगलों में ही ठिकाने बचे थे. भूटान में स्थित ठिकानों को इससे पहले 2003 में रॉयल आर्मी के ऑपरेशन ऑल क्लियर के तहत तबाह कर दिया गया था, जिसे भारतीय सेना ने समर्थन दिया था.

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सीमा पर गश्त करते बीएसएफ के जवान (File Photo)
सीमा पर गश्त करते बीएसएफ के जवान (File Photo)

उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम- इंडिपेंडेंट (ULFA-I) ने 13 जुलाई को एक प्रेस बयान जारी कर दावा किया कि रविवार सुबह म्यांमार में उनके चार ठिकानों पर ड्रोन हमले किए गए हैं. उन्होंने दावा किया कि इन हमलों में लेफ्टिनेंट जनरल नयन मेधी उर्फ नयन असोम समेत उनके तीन टॉप कमांडर मारे गए. कथित तौर पर 3 कमांडर मारे गए हैं और 19 अन्य घायल हुए हैं. परेश बरुआ के नेतृत्व वाले विद्रोही गुट ने इन हमलों के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया है, लेकिन भारतीय सेना ने इससे साफ इनकार किया है.

कितना मजबूत उल्फा-आई?

दावों और प्रतिदावों में उलझे बिना, उल्फा-आई जैसे विद्रोही गुट के लिए हार स्वीकार करना बेहद असामान्य है क्योंकि इससे उसके कैडर का मनोबल प्रभावित होता है. हालांकि, ज़्यादा अहम सवाल यह है कि उल्फा-आई अब कितना अहम या प्रासंगिक है. क्या यह पूर्वोत्तर में भारतीय सुरक्षाबलों के लिए एक बड़ा ख़तरा है?

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इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें यह याद रखना होगा कि उल्फा के एक गुट ने दिसंबर 2023 में केंद्र और असम राज्य सरकार के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. यह अरबिंद्र राजखोवा के नेतृत्व वाला वार्ता समर्थक गुट था और इसमें ज्यादातर शीर्ष नेता शामिल थे, जिन्हें जनवरी 2009 में शेख हसीना के प्रधानमंत्री बनने के बाद बांग्लादेश की ओर से भारत को सौंप दिया गया था.

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बांग्लादेश की कार्रवाई के बाद उल्फा के पास सिर्फ म्यांमार के सागाइंग क्षेत्र के घने पहाड़ी जंगलों में ही ठिकाने बचे थे. भूटान में स्थित ठिकानों को इससे पहले 2003 में रॉयल आर्मी के ऑपरेशन ऑल क्लियर के तहत तबाह कर दिया गया था, जिसे भारतीय सेना ने समर्थन दिया था.

म्यांमार के जंगल बने सेफ हाउस

म्यांमार की सेना ने कभी-कभार भारतीय दबाव का जवाब दिया है और कुछ विद्रोहियों को पकड़ा है. लेकिन उसने भूटान या बांग्लादेश में कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की है. इसकी एक वजह यह है कि वह देश के भीतर कई शक्तिशाली विद्रोहियों से लड़ने में व्यस्त है और दूसरी वजह यह है कि उल्फा जैसे समूह दूरदराज, पहाड़ी, कुछ हद तक दुर्गम, जंगली इलाकों में रहते हैं.

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कश्मीर, उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों या पूर्वोत्तर में उग्रवाद को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध भारत सरकार के लिए म्यांमार सीमावर्ती क्षेत्रों को आधार के रूप में नकारना सर्वोच्च प्राथमिकता है. इसी संदर्भ में उल्फा-आई अहम हो जाता है.

नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (इसाक-मुइवा) जैसे शक्तिशाली नागा विद्रोही गुट भारत के साथ अंतिम समझौते पर बातचीत करने की कोशिश कर रहे हैं. यह 1997 से चल रहा है. सिर्फ एनएससीएन का खापलांग गुट ही विरोधी बना हुआ है. लेकिन यह मुख्यतः बर्मी नागाओं से बना है और म्यांमार के नागा स्व-प्रशासित क्षेत्र के इलाके पर केंद्रित है. उल्फा-इंडिपेंडेंट, मणिपुर के कुछ मैतेई विद्रोही समूहों के साथ, एनएससीएन-खापलांग के समर्थन से उन्हीं क्षेत्रों में स्थित है.

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परेश बरुआ का समझौते से इनकार

मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के नेतृत्व वाली असम सरकार ने परेश बरुआ को शांति प्रस्ताव दिया है, हालांकि उन्होंने वार्ता समर्थक गुट के साथ समझौता कर लिया है. उनका और केंद्र सरकार का दृष्टिकोण सभी विद्रोही गुटों को एक सार्थक बातचीत के लिए तैयार करना रहा है. इस नजरिये ने बोडो जनजाति के सभी विद्रोही गुटों को बातचीत की मेज पर ला खड़ा किया और 2020 में एक व्यापक समझौते का रास्ता साफ किया. उल्फा-आई असम का एकमात्र बड़ा समूह है जो जंगलों में बचा हुआ है.

कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि पलायन और गिरफ्तारियों और भर्ती में गिरावट के कारण समूह की ताकत काफी कम हो गई है. नवंबर 2020 में इसके डिप्टी कमांडर-इन-चीफ दृष्टि राजखोवा का सरेंडर एक बड़ा झटका था, जैसा कि हाल ही में एक और टॉप कमांडर रूपम असोम की गिरफ्तारी से हुआ.

विभाजन से कमजोर हुआ संगठन

असमिया युवाओं के बीच उल्फा का आकर्षण अब 1990 के दशक जैसा नहीं रहा. संगठन में बार-बार विभाजन और भूटान व बांग्लादेश में अपने ठिकानों के नुकसान ने इसे पहले से कहीं ज़्यादा कमज़ोर बना दिया है.

कई लोगों का मानना है कि उल्फा-आई को बातचीत की मेज पर लाने के लिए हमले करने और प्रयासों को दोगुना करने का यह सही समय है. यह मध्य भारत में माओवादी विद्रोहियों के प्रति केंद्र के दृष्टिकोण के मुताबिक है. परेश बरुआ को दिया गया बातचीत का प्रस्ताव अभी भी मान्य है, लेकिन युद्धविराम लागू नहीं है, इसलिए भारतीय सेनाएं जब भी और जहां भी संभव हो, हमला कर सकती हैं. ऐसे हमले जिनसे वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की जान जाती है, विद्रोही गुट को नुकसान पहुंचाते हैं, जो पहले से ही अनुभवी कमांडरों की कमी से जूझ रहा है, और यह बातचीत शुरू करने का एक फैक्टर हो सकता है.

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क्या बांग्लादेश से मिलेगी मदद?

उल्फा-आई की प्रभावी लड़ाकू ताकत अब हज़ारों में भले ही न हो, लेकिन इस समूह को दो कारणों से हल्के में नहीं लिया जा सकता. पहला, हालांकि इसमें नागा या मैतेई विद्रोही समूहों की तरह सुरक्षा बलों पर घात लगाकर हमला करने की क्षमता नहीं है, लेकिन यह नुकसान पहुंचाने में सक्षम है, क्योंकि इसने पहले भी ऑयल स्टोरेज डिपो और गैस पाइपलाइनों पर हमले किए हैं. असम में तेल रिफाइनरियों जैसी कई महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचागत सुविधाएं मौजूद हैं, इसलिए इस खतरे को हल्के में नहीं लिया जा सकता.

दूसरा, पड़ोसी देश बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के बाद भारत-मित्र शेख हसीना की सरकार के सत्ता से बेदखल होने के बाद, परेश बरुआ के देश में उल्फा-आई के ठिकानों को फिर से संगठित करने के लिए लौटने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. उसके बांग्लादेशी खुफिया समुदाय, भारत-विरोधी राजनीतिक दलों और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई में संपर्क हैं, जिनके एजेंट हसीना को सत्ता से हटाने के बाद एक्टिव हो गए हैं.

भारतीय सुरक्षा ढांचे में कुछ लोगों को लग सकता है कि उल्फा-आई को बेअसर करने का यह सही समय है. परेश बरुआ को बातचीत की मेज पर लाकर या फिर बड़े पैमाने पर विद्रोह को बढ़ावा देकर यह किया जा सकता है.

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असम में अगले साल मार्च-अप्रैल में विधानसभा चुनाव होने हैं. उग्रवाद के मोर्चे पर कोई भी उपलब्धि, बातचीत शुरू करना या बड़े पैमाने पर सरेंडर करवाना, भारत के पूर्वोत्तर के इस अहम राज्य में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को मज़बूती देने में मददगार साबित होगी.

(सुबीर भौमिक बीबीसी और रॉयटर्स के पूर्व संवाददाता और लेखक हैं, जिन्होंने बांग्लादेश में bdnews24.com के साथ वरिष्ठ संपादक के रूप में काम किया है)

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