
1928 में विजया दशमी 23 अक्टूबर को पड़ी. डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने सोचा कि इस वर्ष नागपुर में संघ का पथ संचलन पूरी तरह से सैन्य परेड (मार्च-पास्ट) की तरह होना चाहिए. लेकिन बिना बैंड के ये कैसे होती? नाना पालेकर ने सुरुचि प्रकाशन से प्रकाशित डॉ हेडगेवार की जीवनी ‘मैन ऑफ दी मिलेन्निया’ में लिखा है कि, “डॉक्टर जी ने संघ बैंड 'घोष' की स्थापना की, जो स्वयंसेवकों के मार्च करते समय बजता था. लगभग 600 स्वयंसेवक ढोल का अभ्यास कर रहे थे. परेड की तैयारियों के बीच, अत्यंत सम्मानित नेता विट्ठलभाई पटेल (वल्लभभाई पटेल के बड़े भाई) नागपुर पहुंचे. उन्होंने डॉक्टर जी के निमंत्रण पर 16 अगस्त 1928 को मोहितेवाड़ा स्थित संघ स्थान का दौरा किया. स्वयंसेवकों के अनुशासित मार्च को देखकर विट्ठलभाई बहुत प्रसन्न हुए.”
स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए विट्ठलभाई ने कहा, "यद्यपि यह आंदोलन मेरे लिए नया है, फिर भी इसने मेरी जिज्ञासा को और बढ़ा दिया है. आज मैं राष्ट्रीय जीवन में संघ के कार्य के स्थान को निश्चित रूप से परिभाषित करने की स्थिति में नहीं हूं. लेकिन मैं इतना अवश्य कहूंगा कि हमें इस संसार में किसी से नहीं डरना चाहिए, सिवाय स्वयं ईश्वर के. अपने उद्देश्य के लिए पूरी लगन से कार्य करें, और अपने कार्य में पूर्ण विश्वास रखें!" विट्ठलभाई पटेल उस वक्त कद्दावर नेता थे, और डॉ हेडगेवार के कांग्रेस में रहते समय उनके साथ काम कर चुके थे. उन्हें सुखद आश्चर्य था कि हेडगेवार ने अकेले इतना बड़ा अनुशासित संगठन खड़ा कर दिया है.
उस वर्ष संघ की परेड एक अनोखी थी स्वयंसेवकों के अलावा, संघ के प्रति स्नेह रखने वाले कुछ अन्य नागरिक भी जुलूस में शामिल हुए. महाराष्ट्र के एक समाचार पत्र ने लिखा. "आरएसएस ने इस वर्ष विजया दशमी पर अपनी गतिविधियों के तीन वर्ष पूरे किए. संघ ने निश्चित रूप से हिंदुओं को बड़े पैमाने पर एकजुट करना शुरू कर दिया है. हम इसे नकार नहीं सकते।" संघ की स्थापना के कुछ वर्षों के भीतर ही डॉक्टर हेडगेवार ने नागपुर में छिपाए गए सभी हथियार एकत्र कर लिए थे, उस दिन शस्त्र पूजा का दिन होता था, सो बिना किसी परेशानी के उन्हें बाहर लाने ले जाने में कोई दिक्कत भी नहीं आई. लेकिन पूरा नागपुर शहर हैरान था, जब 600 स्वयंसेवक अनुशासित ढंग से घोष बैंड बजाते हुए, पूरे शहर में कदम ताल करते हुए शांतिपूर्वक निकले.
अब लोग संघ के बैंड को किराये पर मांगने लगे
नाना पालेकर अपनी किताब में एक और दिलचस्प कहानी बताते हैं, वो ये कि धीरे-धीरे जब संघ का घोष बैंड बेहतर होने लगा, उनके पास बेहतर गुणवत्ता के वाद्य यंत्र आ गए, स्वयंसेवकों ने भी ढंग से प्रशिक्षण ले लिया, महीनों तक रियाज कर लिया तो वो आम जनता का ध्यान खींचने लगा. अब डॉ हेडगेवार के पास वो लोग आने लगे जो या तो उनके परिचित थे, या किसी न किसी वजह से संघ के सम्पर्क में आए थे. उनकी यही मांग होती थी कि हमारे कार्यक्रम में एक दिन के लिए अपना बैंड दे दीजिए, जो भी शुल्क हो वो ले लीजिए.
डॉ हेडगेवार के लिए ये बड़ी असमंजस जैसी स्थिति थी, वो क्या सोचकर घोष को बढ़ावा दे रहे थे और लोगों के पास क्या संदेश जा रहा था. ऐसी स्थिति में सीधे मना करने पर भी लोग बुरा मान सकते थे, सो ना हां कर पा रहे थे और ना ही ना कर पा रहे थे. अब तो कुछ स्वयंसेवक भी उनसे कहने लगे थे कि भेज दीजिए, कुछ धन ही मिलेगा, जो संघ कार्य में लगेगा. किसी से पैसे मांगने नहीं पड़ेंगे. लेकिन डॉक्टरजी को ये आइडिया जम नहीं रहा था. उस वक्त तो वो परेशान ही हो गए, जब उनका एक करीबी दोस्त ही उनसे संघ के घोष बैंड की मांग करने पहुंच गया, बोला कि मेरे बेटे का विवाह है, जितना पैसा मांगोगे दे दूंगा.
डॉक्टर हेडगेवार ने उनको विनम्रतापूर्वक मना करते हुए कहा कि, “यदि आपके पुत्र ने भारत के लिए शानदार विजय प्राप्त की होती, तो मैं संघ घोष बजाकर उनका हार्दिक स्वागत करता और अपनी खुशी का बखान हर किसी को सुनाता. मुझे खेद है कि आप चाहे जितना भी भुगतान कर दें, मैं आपको संघ घोष नहीं दे सकता. यदि मैं इसे आपको उपलब्ध कराता हूं, तो मुझे इसे सभी को देना होगा और यदि कई लोग एक ही समय में बैंड चाहते हैं, तो मुझे एक व्यक्ति को छोड़कर बाकी सभी को मना करना पड़ेगा”. उसके बाद डॉ हेडगेवार ने सबको स्पष्ट कर दिया कि ये संघ का घोष केवल राष्ट्रीय आयोजनों या फिर संघ के कार्य़क्रमों में ही बजाया जाएगा, निजी उपयोग के लिए नहीं.
गुरु गोलवलकर के समय ‘घोष’ का पूर्ण भारतीयकरण
गुरु गोलवलकर की जीवनी में सीपी भिषिकर लिखते हैं कि, “गुरुजी की बुद्धि अत्यंत तीव्र थी और अनेक विषयों का उनका ज्ञान आश्चर्यजनक रूप से अद्यतन था. उन्हें शास्त्रीय संगीत का अच्छा ज्ञान था और संघ के घोष विभाग द्वारा रागों पर आधारित नई रचनाओं को अपनाने पर उन्होंने सूक्ष्म सुझाव दिए थे. विभिन्न विषयों पर लिखे उनके पत्र विद्वतापूर्ण निबंधों के समान थे, जो उन क्षेत्रों पर उनकी गहन अंतर्दृष्टि और पकड़ को दर्शाते थे. उनकी स्मृति अद्भुत थी और वे अपने द्वारा आत्मसात किए गए ग्रंथों के भंडार से उद्धरण दे सकते थे. आध्यात्मिक साधक होने के नाते, वे स्वाभाविक रूप से योग को भली-भांति जानते थे, लेकिन साथ ही वे खगोल विज्ञान, ज्योतिष, पारिस्थितिकी, साइबरनेटिक्स, परमाणु विज्ञान, आयुर्वेद, होम्योपैथी और एलोपैथी जैसे विविध विषयों में भी पारंगत थे.”
संघ में घोष का पर्याय माने जाते हैं सुब्बू श्रीनिवासन
ऐसे में अब जबकि देश का बच्चा-बच्चा संघ का पथ संचलन देख चुका है, और संघ के घोष (बैंड) को भी तो संघ के शताब्दी वर्ष में संघ प्रचारक सुब्बू श्रीनिवासन की चर्चा करना जरूरी है. यूं तो घोष की लम्बी यात्रा है, जिसमें डॉ हेडगेवार, गुरु गोवलकर जैसे सरसंघचालकों का भी योगदान रहा है और तमाम स्वयंसेवकों और घोष प्रमुखों का भी, लेकिन सबसे अहम योगदान सुब्बू श्रीनिवासन का माना जाता रहा है.
सुब्बू श्रीनिवासन का जन्म 10 अप्रैल, 1940 को मैसूर (कर्नाटक) में एक सामान्य दुकानदार बीजी सुब्रह्मण्यम के घर में हुआ था. सात भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे. अपने बड़े भाई अनंत के साथ 1952 में वे भी शाखा जाने लगे. पढ़ाई में उनका मन बहुत नहीं लगता था. अतः जैसे-तैसे मैट्रिक तक की शिक्षा पूर्ण की. उनकी शाखा में ही बड़ी कक्षा में पढ़ने वाले एक मेधावी छात्र श्रीपति शास्त्री भी आते थे, जो आगे चलकर संघ के केन्द्रीय अधिकारी बने. उन्होंने कई साक्षात्कारों में ये कहा है कि सुब्बू उनके ही सहयोग से परीक्षा में उत्तीर्ण होते रहे.
उन दिनों कर्नाटक में प्रांत प्रचारक हुआ करते थे यादवराव जोशी, ये वही यादवराव जोशी थे, जिन्होंने डॉ हेडगेवार के रहते हुए संघ की प्रार्थना को पहली बार अपनी आवाज दी थी. उन्हीं की प्रेरणा से 1962 में सुब्बू श्रीनिवासन ने प्रचारक बनने का निर्णय लिया. उनके बड़े भाई अनंत ने यह आश्वासन दिया कि घर का सब काम वे संभाल लेंगे. पुणे में 1932 से एक घोष शाखा लगती थी. घोष में रुचि होने के कारण उन्होंने छह माह तक वहां रहकर घोष का सघन प्रशिक्षण लिया और फिर वे कर्नाटक प्रांत के ‘घोष प्रमुख’ बनाए गए. संघ के घोष की रचनाएं सेना से ली गई थीं, जो अंग्रेजी ढंग से बजाई जाती थीं. घोष प्रमुख बनने के बाद गुरु गोलवलकर के निर्देशन और सलाह से सुब्बू श्रीनिवासन ने इनके शब्द, स्वर तथा लिपि का भारतीयकरण किया. वे देश भर में घूमकर विषय के विशेषज्ञों से मिले. इससे कुछ सालों में ही घोष पूरी तरह बदल गया.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
युग वार्ता पत्रिका के विशेषांक ‘संघ की नींव के पत्थर’ में डॉ राजेश कुमार तिवारी लिखते हैं, “पथ संचलन में घोष दल तथा उसके प्रमुख द्वारा घोष दंड का संचालन आकर्षण का एक प्रमुख केन्द्र होता है. सुब्बू श्रीनिवासन जब तरह-तरह से घोष दंड घुमाते थे, तो दर्शक दंग रह जाते थे. 20-25 फुट की ऊंचाई तक घोष दंड फेंककर उसे फिर पकड़ना उनके लिए सहज था. मुख्यतः शंखवादक होने के बाद भी वे हर वाद्य को पूरी कुशलता से बजा लेते थे. 1962 में गुरु गोलवलकर के एक कार्यक्रम में ध्वजारोहण के समय उन्होंने शंख बजाया. उसे सुनकर अध्यक्षता कर रहे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने कहा कि सेना में भी इतना अच्छा स्वर कभी नहीं सुना”.

सुब्बू श्रीनिवासन ने उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद, अलीगढ़, मेरठ आदि स्थानों पर कारीगरों के पास घंटों बैठकर घोष दंड तथा वाद्यों में आवश्यक सुधार भी करवाए. जब घोष विभाग को एक स्वतंत्र विभाग बनाया गया, तो उन्हें अखिल भारतीय घोष प्रमुख की जिम्मेदारी दी गई. इससे उनकी भागदौड़ बहुत बढ़ गई. उन्होंने देश के हर प्रांत में घोष वादकों के शिविर लगाए, इससे कुछ ही वर्षों में हजारों नए वादक और घोष प्रमुख तैयार हो गए.
हालांकि घोष के भारतीयकरण के लिए एक और स्वयंसेवक हरी विनायक का नाम भी लिया जाता है. कहा जाता है कि पुणे के वरिष्ठ स्वयंसेवक हरी विनायक दात्ये ने अथक परिश्रम कर इसका भारतीयकरण किया तथा सारे घोष वाद्यों की लिपि को भातखंडे लिपि में लिपिबद्ध किया. भारतीय रागदारी से युक्त यह लिपि विभिन्न तालों जैसे कहरवा, दादरा, खेमटा पर आधारित है. आज इन तालों पर आधारित अनेक रचनाओं का निर्माण स्वयंसेवकों द्वारा किया गया है, जैसे – गणेश, भूप, केदार, शिवरंजिनी, चेतक, तिलक कामोद आदि सभी वाद्यों में कुल 90 से अधिक रचनाओं का समावेश है.
शुरुआत में घोष बैंड के लिए प्रशिक्षक भी नहीं थे
सेना के अधिकारियों को बाहर के बैंड्स के लिए प्रशिक्षण की मनाही थी, सो ड़ॉ हेडगेवार ने दूसरे विकल्प देखे. डॉ. हेडगेवार के परिचित बैरिस्टर गोविन्द राव देशमुख के सहयोग से सेना के एक सेवानिवृत बैंड मास्टर से स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण दिलाया गया. शंख वादन के लिए मार्तंड राव, बंशी के लिए पुणे के हरि विनायक दात्ये आदि ने सहयोग किया और शुरुआती कुछ स्वयंसेवकों की घोष टीम बनकर तैयार हो गई.
पाश्चात्य शैली के बैंड पर उनके ही संगीत पर आधारित रचनाएं बजाने में भारतीय मन को आनंद नहीं आया. तब स्वयंसेवकों ने सोचा कि हजारों वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य व अर्जुन ने देवदत्त शंख बजाकर विरोधी दल को विचलित कर दिया था. अत: हमें इन वाद्यों पर ऐसी रचनाएं तैयार करनी चाहिए, जिनमें अपने देश की नाद परंपरा की सुगंध हो. स्वर्गीय वापूराव व उनके साथियों ने इस दिशा में कार्य आरंभ किया. इस प्रकार राग केदार, भूप, आशावरी में पगी हुई रचनाओं का जन्म हुआ.
अब घोष विभाग एक अलग संगठन जैसा है
जब से सरसंघचालक का पद डॉ मोहन भागवत को मिला है, संघ के घोष विभाग के भी दिन फिर गए हैं. तमाम प्रशिक्षण वर्ग हो रहे हैं. संगीत के इच्छुक स्वयंसेवकों की संख्या कई गुना बढ़ गई है. जयपुर में 2017 में 2 से 5 नवम्बर के बीच विशाल घोष शिविर ‘स्वर गोविंदम 2017’ आयोजित किया गया था. 2000 से भी अधिक घोष निपुण स्वयंसेवकों ने इसमें भाग लिया था. कानपुर में 2022 में 7 से 10 अक्तूबर के बीच ‘स्वर संगम घोष शिविर’ आयोजित हुआ था. इसमें आसपास के 2100 जिलों से 1500 घोष निपुण स्वयंसेवकों ने भाग लिया था. नवम्बर 2021 में ग्वालियर में ‘स्वर साधक संगम’ घोष शिविर आयोजित किया गया था, जिसमें सम्पूर्ण प्रान्त के 27 जिलों से 500 से अधिक वादकों ने हिस्सा लिया. इन सभी शिविरों में स्वयंसेवकों का उत्साहवर्धन करने के लिए सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत खुद उपस्थित थे. भोपाल के प्रताप जिले द्वारा अपना वार्षिकोत्सव ‘स्वर नाद संगम’ किया गया था, जिसमें कक्षा 4 से लेकर महाविद्यालयीन विद्यार्थियों द्वारा 5 भागों मे 29 रचनाओं का वादन प्रस्तुत किया गया. ऐसे जिला या प्रांत स्तर के घोष वर्ग तो अब आम हो चले हैं. प्रसिद्ध गायक शंकर महादेवन जिस तरह संघ गीतों को अपना संगीत और सुर देने में जुटे हैं, उससे उम्मीद है कि घोष के वर्गों में उत्साह की नई लहर देखने को मिलेगी.
पिछली कहानी: RSS के इस स्वयंसेवक की खोज ने बना दिया उसे भारत का सबसे बड़ा पुरातत्वविद