ईरान और इजरायल की लड़ाई के बीच कई अलग बातें निकलकर आ रही हैं. मसलन, ज्यादातर देश अपने यहां किसी भी और मुल्क की सेना को वेलकम नहीं करते, भले ही उनके बीच कितने ही अच्छे रिश्ते क्यों न हों. वहीं अमेरिका के सैन्य बेस बेहद आक्रामक देशों में भी बने हुए हैं. कई बार उसने युद्ध रोकने के लिए किसी देश में एंट्री की और फिर वहीं रुक गया. कुछ ऐसे भी देश हैं, जहां की सरकार से लेकर जनता ने भी इसका ऐसा विरोध किया कि वॉशिंगटन को अपना बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा.
कहां-कहां हैं मिलिट्री बेस
अमेरिकी रक्षा मंत्रालय कम से कम 51 देशों में 128 मिलिट्री बेस बनाए हुए है. इनमें में कुछ बेस ऐसे हैं, जो 15 सालों या उससे भी ज्यादा वक्त से चल रहे हैं. यहां अमेरिकी सेना को काफी ताकत मिली हुई है. यहां तक कि इन देशों में अमेरिकियों के लिए अलग बाजार और लाइफस्टाइल भी मिलेगी. सेना अपने परिवारों समेत लगभग सैटल हो चुकी. इसके अलावा कुछ ऐसे बेस भी हैं, जो स्थाई नहीं लेकिन यूएस डिफेंस की वहां पहुंच है. मध्य पूर्व में कतर, कुवैत, यूएई, सऊदी अरब, जॉर्डन, इराक, सीरिया, तुर्की, मिस्र और बहरीन में कई एक्टिव ठिकाने हैं.
इस बहाने शुरू किया घर में घुसना
अपने देश में विदेशी सेना की मौजूदगी का मतलब है, अपने घर में बाहरी लोगों को रखना. लेकिन वॉशिंगटन ने फॉरवर्ड प्रेजेंस के नाम पर ये काम जारी रखा. मतलब युद्ध से पहले ही अपनी सेना को मोर्चों पर तैनात रखना. दरअसल दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद यूएस को समझ आया कि केवल अपनी सीमाओं में रहते हुए ग्लोबल असर नहीं बनाया जा सकता.

उस दौर में बहुत से देश खुद को कमजोर पा रहे थे. शक का माहौल था. संयोग से ये आशंकित देश अमेरिका के पाले में थे. उसने इसी का फायदा उठाते हुए प्रस्ताव दिया कि क्यों न वो अपनी सेनाएं वहां रख दे ताकि युद्ध की स्थिति में रक्षा की जा सके. अंधा क्या चाहे, दो आंख- तो बाकियों ने झट से हां कर दी. तब से जर्मनी से लेकर इटली और एशियाई देशों जैसे जापान और साउथ कोरिया में भी वो टिका हुआ है. इससे काम पूरा नहीं हुआ तो अमेरिका ने NATO जैसा गठबंधन बनाया, जिसके तहत बेस और सैनिकों की तैनाती जॉइंट सुरक्षा के नाम पर कर दी गई.
आतंकवाद को रोकने और उसपर नजर रखने के नाम पर वॉशिंगटन मिडिल ईस्ट में भी आ गया. खासकर इस्लामिक स्टेट के खात्मे के बाद से अमेरिकी सेनाएं सीरिया और इराक समेत कई देशों में टिकी हुई हैं.
अब यहां ये सवाल आता है कि आमतौर पर देश फॉरेन सेनाओं को लेकर बहुत संवेदनशील होते हैं. लेकिन यूएस का मामला अलग रहा. उसने अपनी ताकत को एक रणनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया. उसने रक्षा और स्मूद ऑपरेशन के नाम पर अलग-अलग देशों में अपनी मौजूदगी बना ली. तकनीकी रूप से दूसरे देश भी ऐसा कर सकते हैं अगर होस्ट कंट्री इजाजत दे लेकिन कोई भी देश इसपर हां नहीं करता. देश डरते हैं कि दूसरी सेनाएं आकर कहीं उसके मामले में दखल देना या जासूसी न शुरू कर दें.

यूएस आर्मी भी इस आरोप से बच नहीं सकी
कुछ मामलों में उसे देश छोड़ने या बेस बंद करने पर मजबूर होना पड़ा. जैसे छोटे-से देश फिलीपींस में ये सब कुछ हो चुका. इस देश पर 19वीं सदी के आखिर से 20वीं सदी की शुरुआत तक अमेरिकी कंट्रोल था. वहां बड़े सैन्य बेस थे, जो सारे मामले संभालते. यही ठिकाने एशिया में यूएस की रणनीतिक रीढ़ बने रहे. साल 1980 के दशक में जब फिलिपीन सोसायटी में लोकतंत्र की मांग तेज हो रही थी, यही सैन्य बेस लोगों को खटकने लगे.
आरोप लगे कि अमेरिका इन बेसों से न केवल सैन्य गतिविधिया कर रहा है, बल्कि फिलीपींस की राजनैतिक स्थिति पर भी खुफिया निगरानी रख रहा है. अमेरिकी सैनिकों द्वारा बलात्कार, हत्या, और हिंसा के कई मामलों ने गुस्सा भड़का दिया. सवाल उठने लगा कि हम अपने ही देश में विदेशी फौज क्यों बर्दाश्त करें.
आखिरकार साल 1991 में वहां की संसद ने वोटिंग के जरिए यूएस को अपना बोरिया बिस्तर बांधने को कहा. अमेरिकी झंडा उतारा गया, सैनिक रवाना हुए, और फिलीपींस के लोगों को पूरी आजादी मिल सकी. कई और देशों में भी जासूसी, मानवाधिकार हनन या राजनीतिक विरोध के चलते वॉशिंगटन को अपना तंबू समेटना पड़ा.