अगर कभी राजनीतिक जिम्नास्टिक्स के लिए पुरस्कार की घोषणा हुई, तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार निश्चित रूप से स्वर्ण पदक के प्रबल दावेदार होंगे, और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू भी पोडियम पर जगह बनाने की होड़ में होंगे. कभी नरेंद्र मोदी के कट्टर विरोधी रहे इन दोनों नेताओं का अब उनके प्रति वफादार सहयोगी बनने का सफर लगभग पूरा हो चुका है.
तेजी से बदलते राजनीतिक समीकरण
संसद में वक्फ संशोधन विधेयक के समर्थन में जनता दल (यूनाइटेड) और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) का एकजुट होकर खड़ा होना इस बात का ताजा सबूत है कि पिछले दस महीनों में राजनीतिक समीकरण कितनी तेजी से बदले हैं. जून 2024 में त्रिशंकु संसद के फैसले के बाद जहां नीतीश और नायडू सत्ता के खेल में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में थे, वहीं अब दोनों ने चुपके से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की प्रमुखता को स्वीकार कर लिया है.
2013... जब नीतीश ने बुलंद किया था बगावत का झंडा
नीतीश कुमार का यह बदलाव भारतीय राजनीति में सिद्धांतों के क्षरण और व्यक्तिगत अस्तित्व की खोज का सबसे स्पष्ट उदाहरण है. आखिरकार, यह वही नीतीश थे, जिन्होंने 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाए जाने पर बगावत का झंडा बुलंद किया था. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अलग होने का उनका मकसद था खुद को एक धर्मनिरपेक्ष दीवार के रूप में स्थापित करना, जो कथित तौर पर 'सांप्रदायिक' ताकतों का मुकाबला करे.
यह वैचारिक और व्यक्तिगत टकराव 2002 के गुजरात दंगों से शुरू हुआ था. जब 2013 में मोदी ने 'सद्भावना यात्रा' के दौरान टोपी पहनने से इनकार किया, तो नीतीश ने तुरंत पलटवार करते हुए कहा था, “देश को चलाने के लिए आपको सभी को साथ लेना होगा, कभी टोपी पहननी पड़ेगी, कभी तिलक लगाना पड़ेगा.” यह नीतीश का 'नरम' धर्मनिरपेक्षता का दर्शन था, जिसे उन्होंने मोदी की आक्रामक हिंदुत्व की छवि के खिलाफ खड़ा किया था.
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वैचारिक टकराव का केवल एक ही विजेता
बारह साल बाद यह स्पष्ट है कि इस वैचारिक टकराव में केवल एक ही विजेता है. दो साल पहले तक जो नीतीश कुमार विपक्षी 'इंडिया' गठबंधन के सूत्रधार और मोदी के खिलाफ सबसे बड़े चैलेंजर के रूप में उभरे थे, वे आज मोदी के दरबार में एक अधीनस्थ की तरह हैं. उनकी बिगड़ती सेहत (जो अब जनता की नजरों से छिप नहीं सकती) ने उन्हें मोदी की राजनीतिक मशीनरी के सामने और भी कमजोर कर दिया है.
उनके समर्थक दावा करते हैं कि नीतीश मुस्लिम कल्याण के प्रति वचनबद्ध हैं, लेकिन यह तेजी से एक खोखली बात नजर आती है. मुस्लिम समुदाय धीरे-धीरे जद (यू) की राजनीतिक रणनीति से हाशिए पर खिसकता जा रहा है. बीजेपी के लिए नीतीश एक उपयोगी चेहरा हैं, जो नवंबर 2025 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों से पहले उनकी सामाजिक आधार को मजबूत करने में मदद करते हैं. लेकिन चुनाव बाद नए गठजोड़ और नेतृत्व की संभावनाएं उभर सकती हैं.
नायडू का मामला क्यों है जटिल?
चंद्रबाबू नायडू का मामला थोड़ा जटिल है. वे एक ऐसे राज्य के मुख्यमंत्री हैं, जहां बीजेपी का प्रभाव सीमित है. उनके पास प्रशासनिक कुशलता और राजनीतिक अनुभव है, जिसके बूते वे बीजेपी की मेहरबानी के बिना आंध्र प्रदेश में सत्ता में बने रह सकते हैं. फिर भी, यह वही नायडू हैं, जिन्होंने 2019 के चुनाव प्रचार में मोदी के खिलाफ तीखा हमला बोला था, यहां तक कि उन्हें 'आतंकवादी' तक कह डाला था.
नायडू की राजनीति हमेशा केंद्र के साथ लेन-देन के रिश्तों पर टिकी रही है. पिछली गठबंधन सरकारों के दौर में उन्होंने यूनाइटेड फ्रंट और वाजपेयी की एनडीए सरकार को समर्थन देकर यह साबित किया था. अब, मुख्यमंत्री के रूप में, उन्होंने केंद्र के साथ एक नया 'सौदा' किया है- आर्थिक रूप से तंगहाल आंध्र प्रदेश के लिए अधिकतम वित्तीय मदद हासिल करना और साथ ही विवादास्पद विधेयकों पर केंद्र का साथ देना.
सत्ता की लालसा में धर्मनिरपेक्षता की बलि
एक तरह से, नीतीश और नायडू दोनों ने राजनीतिक अस्तित्व को एक कला बना दिया है, जिसमें लचीला रवैया उनकी सत्ता की लंबी उम्र सुनिश्चित करता है, लेकिन उनके राजनीतिक फैसले धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के बीच के उस विभाजन पर सवाल उठाते हैं, जो समकालीन भारतीय राजनीति की आधारशिला रहा है. ये फैसले उस राजनीतिक व्यवस्था के पाखंड को सामने लाते हैं, जहां सिद्धांतों की जगह सुविधा ने ले ली है. उनकी चयनात्मक सोच एक राजनीतिक सत्य को रेखांकित करती है. 'आप किसी मुद्दे पर कहां खड़े हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहां बैठे हैं.' इस प्रक्रिया में, धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक मूल्यों को धीरे-धीरे खोखला कर दिया गया है. क्या नीतीश कुमार तब धर्मनिरपेक्ष हैं, जब वे इंडिया गठबंधन के साथ खड़े होते हैं, और क्या वे बीजेपी के साथ जाने पर सांप्रदायिक हो जाते हैं? नायडू के साथ भी यही सवाल है.
अवसरवादी 'धर्मनिरपेक्ष' राजनीति
जो बचा है, वह है अवसरवादी 'धर्मनिरपेक्ष' राजनीति के विभिन्न रंग, जो जरूरत पड़ने पर हर तरह के सांप्रदायिक ताकतों के साथ समझौता कर सकते हैं. कांग्रेस ने इस कला को परिपूर्ण किया था, एक दिन शाह बानो मामले में मुस्लिम सांप्रदायिक ताकतों के सामने झुकना, तो अगले दिन बाबरी मस्जिद के ताले खोलकर हिंदुत्व के झंडाबरदारों के साथ नजदीकी बढ़ाना. समाजवादी और जनता परिवार, जो कांग्रेस-विरोध को अपनी पहचान मानते थे, उन्होंने भी धर्मनिरपेक्षता के साथ मनमानी की, और जब कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने की जरूरत पड़ी, तो बीजेपी के साथ गठजोड़ किया.
तृणमूल कांग्रेस और डीएमके जैसे क्षेत्रीय दल भी अतीत में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकारों के साथ गठबंधन कर चुके हैं, ताकि केंद्र में सत्ता में हिस्सेदारी मिल सके, केवल वामपंथी दलों ने बिना किसी हिचक के सांप्रदायिक राजनीति की आलोचना की है, लेकिन वामपंथ अब राजनीतिक रूप से इतना कमजोर हो चुका है कि वह प्रमुख कथानकों को चुनौती नहीं दे सकता.
इसका नतीजा यह है कि मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी एक ऐसी स्थिति में है, जहां उसे चुनौती देना मुश्किल लगता है. एक ऐसी पार्टी, जिसके लोकसभा में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है, वह अब दावा करती है कि वह इस्लामी प्रथाओं में 'सुधार' लाने, 'तुष्टिकरण' को खत्म करने और 'गरीब' मुसलमानों के हितों की रक्षा करने की चैंपियन है. लेकिन हकीकत में यह केवल एक हिंदुत्ववादी बहुसंख्यकवादी विश्वदृष्टि को मजबूत कर रही है, जो अन्य सभी धर्मों को संदेह और अक्सर घृणा की नजर से देखती है.
जो लोग बीजेपी की सर्वोच्चता को चुनौती दे सकते थे, वे अब या तो बहुत कमजोर हो चुके हैं या समझौता कर चुके हैं. नीतीश और नायडू के समर्थक दावा करेंगे कि उनके नेताओं ने वक्फ संशोधन विधेयक में महत्वपूर्ण संशोधन सुनिश्चित किए, ताकि उन लोगों की चिंताओं का समाधान हो, जिन्हें लगता था कि यह विधेयक जबरदस्ती लागू किया जा रहा है, लेकिन धर्म की स्वतंत्रता का मूल संवैधानिक सवाल इस नए कानून से गंभीर रूप से कमजोर हुआ है. जो बचा है, वह है एक टूटा हुआ धर्मनिरपेक्ष दर्पण, जिसमें नीतीश और नायडू को कभी-कभी झांकना चाहिए. उसमें दिखने वाला विकृत प्रतिबिंब उन्हें याद दिला सकता है कि वे कितनी दूर आ चुके हैं, वे, जो कभी सभी धर्मों की समानता के सिद्धांतवादी रक्षक होने पर गर्व करते थे, आज भेदभावपूर्ण राजनीति के सक्षमकर्ता बन गए हैं.
पोस्टस्क्रिप्ट: मैंने 2013 में नीतीश कुमार का पहला साक्षात्कार लिया था, जब उन्होंने एनडीए छोड़ा था. जब मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने यह कदम क्यों उठाया, तो उनका तुरंत जवाब था: “मैं एक 'तानाशाह' के साथ काम नहीं कर सकता.” मुझे आश्चर्य है कि आज वही नीतीश अपनी दयनीय स्थिति को कैसे समझाएंगे.
(लेखक: राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार और '2024: द इलेक्शन दैट सरप्राइज्ड इंडिया' के लेखक हैं)