जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव हैं और एक बार फिर गठबंधन की राजनीति चर्चा में है. विपक्षी अलायंस INDIA ब्लॉक में सहयोगी कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने ऐलान किया है कि दोनों दल मिलकर चुनाव लड़ेंगे. कांग्रेस और NC ने 2008 से 2014 तक जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार चलाई है. हालांकि, संभवत: यह पहली बार है, जब दोनों दलों ने विधानसभा चुनाव से पहले अलायंस का ऐलान किया है. जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस की कभी जवाहर लाल नेहरू के जमाने में दोस्ती चर्चा में रही तो कभी अब्दुल्ला परिवार को अटल बिहारी वाजपेयी के करीब जाते देखा गया. आइए जानते हैं अब्दुल्ला फैमिली का पॉलिटिकल फ्लिप-फ्लॉप...
जम्मू-कश्मीर की दो प्रमुख पार्टियां नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) सत्ता में रही हैं. पीडीपी भी इंडिया ब्लॉक की सहयोगी पार्टी है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस की प्रतिद्वंद्वी मानी जाती है. NC और PDP दोनों ही पार्टियों ने सरकार बनाने के लिए पिछले ढाई दशकों में राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी दोनों के साथ अलायंस किया है, लेकिन शायद ही कभी एक साथ चुनाव लड़ा हो. यानी अब तक दोनों क्षेत्रीय पार्टियां चुनाव के बाद सत्ता का समीकरण बनाने के लिए एक साथ आई हैं.
कैसे रहे कांग्रेस-NC के संबंध?
इस बार चुनाव से पहले कांग्रेस-NC में अलायंस हुआ है. अतीत में नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस के बीच संबंधों ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. 1950 के दशक में NC के संस्थापक शेख अब्दुल्ला को जेल में डालना, 1960 के दशक में पार्टी का विलय होना, 1970 के दशक में NC का रिवाइवल, 1980 के दशक में फारूक अब्दुल्ला सरकार को बर्खास्त करने का घटनाक्रम राजनीतिक गलियारों में छाया रहा. बाद में 1990 के दशक में अब्दुल्ला परिवार का कांग्रेस से मोहभंग हो गया और NC, बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल हो गई. हालांकि, 2000 के दशक में एक बार फिर कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस में अलायंस हुआ और कांग्रेस, उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल हो गई.
चुनाव में अनुच्छेद 370 पर कांग्रेस का रुख स्पष्ट नहीं?
अब जम्मू कश्मीर के राजनीतिक हालात बदल गए हैं. 5 साल पहले साल जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए हटा लिया गया. विशेष राज्य का दर्जा खत्म हो गया. जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश बन गया है और 10 साल बाद चुनाव रहे हैं. ऐसे में यह गठबंधन राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण माना जा रहा है. पिछले हफ्ते नेशनल कॉन्फ्रेंस ने घोषणा पत्र जारी किया है, इसमें अनुच्छेद 370 और 35ए की बहाली का वादा किया है. हालांकि, इस मुद्दे को कांग्रेस टालते देखी गई है. यही वजह है कि चार दिन पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस से अपना रुख स्पष्ट करने के लिए कहा है.
अब्दुल्ला फैमिली का पॉलिटिकल फ्लिप-फ्लॉप...
राजनीतिक जानकार कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर की पॉलिटिक्स में अब्दुल्ला परिवार का इतिहास फ्लिप-फ्लॉप से भरा रहा है, जिसमें कभी जवाहरलाल नेहरू से करीबी संबंध रहे तो कभी अटल बिहारी वाजपेयी के साथ निकटता दिखाई दी. शेख अब्दुल्ला और उनके परिवार की राजनीति ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. एक समय शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू के बीच गहरे संबंध थे. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला का समर्थन किया और उन्हें कश्मीर का नेता माना. यह एक ऐसा समय था जब नेहरू ने कश्मीर को भारतीय संघ का एक अभिन्न हिस्सा बनाने के लिए शांतिपूर्ण समाधान की उम्मीद की थी. नेहरू की नीतियों के तहत कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 लागू किया गया, जिसे शेख अब्दुल्ला का समर्थन हासिल था. हालांकि, 1953 में नेहरू ने अचानक समर्थन वापस ले लिया और शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री पद से हटवा दिया और उन्हें गिरफ्तार करवा दिया. अब्दुल्ला पर यह आरोप लगा कि वे कश्मीर की स्वतंत्रता की वकालत कर रहे थे. यह नेहरू की नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव था, जो राज्य की स्थिति और शेख अब्दुल्ला के व्यवहार के कारण सामने आई.
1990 के दशक में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो अब्दुल्ला परिवार के साथ उनके संबंध बेहतर हुए. वाजपेयी ने 'कश्मीरियत, इंसानियत, जम्हूरियत' की नीति के तहत शांति बहाल करने की कोशिश की, जिसमें अब्दुल्ला परिवार ने भी समर्थन दिखाया. वाजपेयी के शासन के दौरान नेशनल कॉन्फ्रेंस ने केंद्र की सरकार के साथ सहयोग किया, जिससे अब्दुल्ला परिवार की राजनीतिक स्थिति मजबूत हुई.
वाजपेयी का दृष्टिकोण नेहरू से अलग था. उन्होंने पाकिस्तान के साथ बातचीत और कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली की कोशिश की. जब कारगिल युद्ध हुआ तो वाजपेयी ने पाकिस्तान के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया और भारतीय सेना का समर्थन किया. वाजपेयी ने कश्मीर को लेकर कई कूटनीतिक पहल कीं, जिनमें पाकिस्तान के साथ बातचीत की कोशिश भी शामिल थी. उन्होंने पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने के प्रयास किए, लेकिन शांति की पहल में बाधाएं आईं.
कश्मीर की राजनीति में प्रासंगिक बना रहा अब्दुल्ला परिवार
शेख अब्दुल्ला और उनके बाद बेटे फारूक अब्दुल्ला और फिर पोते उमर अब्दुल्ला ने समय-समय पर अपनी राजनीतिक नीतियों को बदला है. जब कभी केंद्र की सरकार के साथ संबंध सुधरे, तब वे सत्ता में मजबूत रहे और जब संबंध बिगड़े तो उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा. अब्दुल्ला परिवार ने हमेशा अपनी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस को कश्मीर की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका में बनाए रखा है. उन्होंने केंद्र के साथ संबंधों को समय-समय पर संभालने की कोशिश की, जिससे उनकी राजनीतिक ताकत बरकरार रहे.
1940 और 1950 के दशक में क्या हुआ?
स्वतंत्रता के तुरंत बाद तत्कालीन रियासत के अंतिम शासक महाराजा हरि सिंह ने अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान के हमले के बीच भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए. उन्होंने एक साल बाद शेख अब्दुल्ला को अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री नियुक्त किया. हरि सिंह ने 1949 में उस समय राज्य छोड़ा, जब उनके बेटे करण सिंह को जम्मू-कश्मीर का रीजेंट नियुक्त किया गया. 1951 में जम्मू-कश्मीर के संविधान सभा के चुनाव हुए. इसमें नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 75 में से 73 सीटें जीतीं. दो साल बाद अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया गया और करण सिंह ने उनकी सरकार को जवाहरलाल नेहरू के आदेश के तहत बर्खास्त कर दिया. NC के नेता बख्शी गुलाम मोहम्मद को अब्दुल्ला का उत्तराधिकारी बनाया गया. जब अब्दुल्ला जेल में थे, तब NC ने 1957 और 1962 में विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की. बख्शी 1953 से 1963 तक प्रधानमंत्री रहे.
1960 के दशक में कैसे बदली राजनीति?
1963 में बख्शी ने इस्तीफा दे दिया और भरोसेमंद क्वाजा शम्सुद्दीन को प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया, लेकिन कथित तौर पर नेहरू के दबाव में शम्सुद्दीन ने 1964 की शुरुआत में इस्तीफा दे दिया. उसके बाद NC को कांग्रेस नेता गुलाम मोहम्मद सादिक को पीएम चुनने के लिए मजबूर किया गया. सालभर बाद NC का कांग्रेस में विलय हो गया. 1967 में चुनाव हुए तो कांग्रेस ने 75 में से 61 सीटें जीतीं और बख्शी के नेतृत्व वाले NC गुट ने आठ सीटें जीतीं. बाद में शेख अब्दुल्ला को उस साल रिहा कर दिया गया.
जब जम्मू कश्मीर में लगा राष्ट्रपति शासन
1975 में एक मेल-मिलाप हुआ. इंदिरा गांधी-शेख अब्दुल्ला समझौते ने अब्दुल्ला को सत्ता में वापस ला दिया. अब्दुल्ला ने NC को भी पुनर्जीवित किया. हालांकि, कांग्रेस ने मार्च 1977 में समर्थन वापस ले लिया और राज्य में कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. उस वर्ष इमरजेंसी के बाद हुए विधानसभा चुनावों में NC को 47 सीटें और कांग्रेस को 11 सीटें मिलीं. 1982 में अब्दुल्ला का निधन हो गया और उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री का पद संभाला. सालभर बाद NC ने फिर से विधानसभा चुनाव जीता.
NC-कांग्रेस के बीच फिर संबंध खराब हो गए, जब जुलाई 1984 में राज्यपाल जगमोहन ने फारूक सरकार को बर्खास्त कर दिया और गुलाम मोहम्मद शाह के नेतृत्व वाली अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार बना दी. ये एक अलग गुट था. फारूक की बर्खास्तगी तब हुई, जब 12 विधायकों और एक निर्दलीय ने समर्थन वापस ले लिया, जिसके बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार अल्पमत में आ गई. 1986 में जगमोहन ने मोहम्मद शाह सरकार को बर्खास्त कर दिया और राज्यपाल शासन लागू कर दिया, जिससे जम्मू-कश्मीर में अशांति का माहौल बन गया. राजीव गांधी चिंतित हो गए और उन्होंने फारूक के साथ मतभेद सुधारने का फैसला किया, जिसके परिणामस्वरूप नवंबर 1986 में कांग्रेस के समर्थन से नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार बनी. हालांकि, इस कदम ने और ज्यादा अशांति पैदा कर दी क्योंकि घाटी ने इसे दिल्ली के जबरदस्त हस्तक्षेप के रूप में देखा.
नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने 1987 का विधानसभा चुनाव एक साथ लड़ा. यह चुनाव 'धांधली' के रूप में देखा गया. एनसी ने 39 सीटें, कांग्रेस ने 24 और नवगठित मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) ने चार सीटें जीतीं. फारूक ने 1990 में इस्तीफा दे दिया और राज्य को 1996 तक राष्ट्रपति शासन के अधीन रखा गया.
1996 के विधानसभा चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस को 57 सीटें, बीजेपी को आठ और कांग्रेस को सात सीटें मिलीं. उस साल एनसी ने लोकसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लिया था और गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी संयुक्त मोर्चा में शामिल हो गई थी. हालांकि, दो साल बाद एनसी संयुक्त मोर्चे से बाहर निकल गई.
जब वाजपेयी मंत्रिमंडल का हिस्सा बने उमर
इस बीच, फारूक ने एक और चौंकाने वाला निर्णय लिया और 1999 में एनडीए में शामिल हो गए. बीजेपी के साथ हाथ मिलाना अब्दुल्ला परिवार के लिए एक ऐसे रास्ते को क्रॉस करने जैसा था, जहां से वापसी संभव नहीं है. फारूक के बेटे उमर अब्दुल्ला अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री बनाए गए.
उमर अक्टूबर 1999 से दिसंबर 2002 में केंद्र की सरकार में राज्य मंत्री (MoS) रहे. बीजेपी के साथ हाथ मिलाने के NC के फैसले को घाटी में अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली. गुजरात दंगे के कुछ महीने बाद 2002 के विधानसभा चुनाव हुए. उसी साल जुलाई में उमर ने एनसी प्रमुख का पद संभाला था. उन्होंने परिवार की पारंपरिक सीट गांदरबल से चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. उन्होंने केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और NC ने जुलाई 2003 में बीजेपी से रिश्ता तोड़ लिया. सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और पीडीपी के हाथ मिलाने से नेशनल कॉन्फ्रेंस बैकफुट पर चली गई.
2000 में फिर यूपीए के करीब आई NC
हालांकि, भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर 2008 के विश्वास मत से पहले उमर फिर कांग्रेस के साथ जुड़ गए. एनसी ने यूपीए सरकार का समर्थन किया. इस बीच, कांग्रेस-पीडीपी गठबंधन 2008 में टूट गया. उस समय पीडीपी ने अमरनाथ भूमि विवाद पर अपना समर्थन वापस ले लिया था. 2008 में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने अलग-अलग विधानसभा चुनाव लड़ा. NC ने 28 सीटें जीतीं. पीडीपी ने 21 सीटें और कांग्रेस ने 17 सीटें जीतीं. गठबंधन सरकार बनाने के लिए NC-कांग्रेस में अलायंस हुआ और उमर पहली बार सीएम बने. 2009 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस और एनसी ने गठबंधन में लड़ा. एनसी, यूपीए का हिस्सा बन गई. बाद में फारूक को कैबिनेट में शामिल किया गया.
2010 से अब तक कैसी रही कांग्रेस-NC की दोस्ती
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-NC लोकसभा चुनाव में एक साथ उतरे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. आम चुनाव के बाद कांग्रेस-एनसी गठबंधन टूट गया. उमर ने कहा, अलग होने का फैसला आपसी सहमति से लिया है. चुनावों से पहले दोनों पार्टियों के बीच मतभेद तब पैदा हो गए. कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर में करीब 700 नई प्रशासनिक यूनिट बनाने की योजना का विरोध किया था.
उसके बाद 2014 का विधानसभा चुनाव हुआ तो दोनों पार्टियों ने अलग-अलग लड़ा. 2017 में फिर दोनों पार्टियां एक साथ आईं. कांग्रेस ने श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव में फारूक का समर्थन किया. फारूक जीत गए. दोनों दलों ने 2019 का लोकसभा चुनाव रणनीतिक गठबंधन में लड़ा. कांग्रेस ने जम्मू में दो सीटों पर चुनाव लड़ा और बारामूला और अनंतनाग में नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ उसकी फ्रेंडली फाइल हुई. कांग्रेस ने श्रीनगर में फारूक के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं उतारा. हालिया लोकसभा चुनाव में भी दोनों पार्टियां INDIA ब्लॉक का हिस्सा थी. दोनों पार्टियों ने तीन-तीन सीटों पर चुनाव लड़ा. एनसी को दो सीटों पर जीत मिली. कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली.