बिहार की राजनीति में जातियों की बात न हो, ऐसा हो नहीं सकता. इस बार भी हर दल जातियों का समीकरण सेट करने में जुटा है. किस विधानसभा क्षेत्र में कौन सी जाति के लोग अधिक संख्या में हैं, किस जाति के नेता को टिकट दिया तो किस-किस जाति का समर्थन मिल सकता है, कौन सी जातियां विरोध कर सकती हैं. टिकट वितरण से पहले राजनीतिक दल ऐसे तमाम विषयों पर मंथन शुरू कर चुके हैं. वहीं, इस बार बात वर्गों की भी हो रही है. महिला वर्ग राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में है.
सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और विपक्षी महागठबंधन, दोनों ही गठबंधन युवा वोटबैंक को भी टार्गेट कर चल रहे हैं. फोकस लाभार्थी पर भी है, लेकिन सूबे की आबादी में बड़ी भागीदारी रखने वाला अन्नदाता राजनीतिक विमर्श में कहीं पीछे छूटता नजर आ रहा है. महिला, युवा, सरकारी योजनाओं के लाभार्थी, कानून व्यवस्था, इन सब पर सियासी दल खूब बोल रहे हैं. लेकिन बिहार की सत्ता का 'भाग्य विधाता' किसान और कृषि के मुद्दे पर हर दल बचता दिख रहा है. बिहार में आखिर किसान और कृषि सियासी विमर्श का केंद्र क्यों नहीं बन पाते?
बिहार में सियासत का केंद्र क्यों नहीं बन पाते किसान और कृषि?
बिहार का किसान पूरे साल वर्षा-बाढ़ और सुखाड़ जैसी समस्याओं से जूझता रहता है. लहलहाती फसल में उसे जब समृद्धि के संकेत नजर आने लगते हैं, कोई ना कोई आपदा उसके सपनों को वास्तविकता के धरातल पर ला पटकती है. किसान फिर से उठ खड़ा होता है और हौसलों के पसीने से कृषि भूमि को सींच फिर से जुट जाता है परिवार का पेट पालने में. यही चक्र ताउम्र चलता रहता है लेकिन सूबे में न तो पंजाब और हरियाणा जैसा कोई किसान आंदोलन होता है, ना ही किसान और कृषि चुनावों में ही सियासी सेंटर पॉइंट बन पाते हैं. क्यों?
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बिहार के वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क इस पर कहते हैं कि इसके पीछे तीन मुख्य कारण हैं. किसान संगठित नहीं हैं, वह जातियों में बंटे हुए हैं. जोत वाले किसान मालगुजारी, बटाई पर खेती करा रहे हैं और खुद दूसरे काम-धंधों में जुटे हैं. इस वजह से खेती के नफा-नुकसान का उनके जीवन पर कोई सीधा या बड़ा असर नहीं पड़ता. कृषि और इससे संबंधित काम में भूमिहीन लोगों की तादाद ज्यादा है. एक वजह मजबूत किसान नेतृत्व का अभाव भी है. नाम के लिए गांव के स्तर पर पैक्स तो हैं, लेकिन इनमें सक्रिय लोगों का ध्यान कृषि और किसान पर कम, मुख्यधारा की राजनीति पर अधिक है. हर कोई पैक्स की राजनीति को इंटर्नशिप की तरह लेकर मुखिया, विधायक या सांसद बनने पर ही फोकस किए हुए है.
किसान आंदोलन की जमीन पर नेतृत्व का टोटा
अनुमानों के मुताबिक बिहार की करीब 77 फीसदी आबादी आजीविका के लिए कृषि या कृषि संबंधित कार्यों पर निर्भर है. बिहार किसान आंदोलनों, किसान राजनीति की जमीन रहा है. लेकिन हाल के वर्षों में सूबे में किसान नेतृत्व शून्य सा दिख रहा है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने औपनिवेशिक काल में बिहार के चंपारण से ही देश-दुनिया को सत्याग्रह का मंत्र दिया था. चंपारण सत्याग्रह की जड़ें भी किसानों से जुड़ी हुई थीं. राष्ट्रपिता का यह आंदोलन नील की खेती करने वाले किसानों पर अत्याचार की मुखालफत से संबंधित था. इसके बाद तत्कालीन बिहार के गुमला (अब झारखंड) का ताना भगत आंदोलन हो या स्वामी विद्यानंद का आंदोलन, किसान आंदोलनों की एक सीरीज सी चल पड़ी.
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ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में ही स्वामी सहजानंद सरस्वती ने बिहार की ही धरती से किसान सभा की नींव रखी थी. किसान सभा को लेकर उन्होंने कहा था कि किसान सभा उन शोषित और सताए हुए लोगों की है, जिनका भाग्य खेती पर निर्भर करता है. यानी जो खेती पर ही जिंदा रहते हैं. स्वामी सहजानंद सरस्वती ने बाद में अखिल भारतीय संयुक्त किसान सभा नाम से अलग संगठन बनाया. इसे भारत में संगठन किसान राजनीति की बुनियाद माना जाता है. इसके बाद चौधरी चरण सिंह से लेकर राकेश टिकैत तक, देश में कई किसान नेता उभरे, लेकिन किसान राजनीति उस बिहार में ही हाशिए पर चली गई, जिस बिहार ने उसे एक तरीके से आकार दिया था.
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हाल के वर्षों में, खासकर तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन के समय से संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) बिहार में एक्टिव नजर आया है. एसकेएम के नेता किसान आंदोलन के समय भी बिहार के दौरे कर किसानों से दिल्ली चलने की अपील करते नजर आए थे. एसकेएम ने बीजेपी और एनडीए सरकार को किसान विरोधी बताते हुए बिहार में लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाने, 10 महापंचायत आयोजित करने का ऐलान किया था.
किसानों को साधने के लिए कौन सी पार्टी क्या कर रही
पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में 2019 के मुकाबले एनडीए को नौ सीटें कम मिली थीं. 2019 में 40 में से 39 सीटें जीतने वाला एनडीए 2024 में 30 सीटें ही जीत सका था. एनडीए को हुए नुकसान के पीछे किसानों की नाराजगी को भी एक वजह बताया जा रहा था. चुनाव आयोग की ओर से कराए गए एक सर्वे के मुताबिक मतदान करने वालों में 37.5 फीसदी किसान, मजदूर या कृषि से संबंधित गतिविधियों से जुड़े लोग थे. लोकसभा चुनाव के नतीजों से अलर्ट बीजेपी ने चुनावी साल की शुरुआत में ही किसानों को साधने के लिए अपने सबसे बड़े चेहरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मैदान में उतार दिया.
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पीएम मोदी ने भागलपुर में आयोजित कार्यक्रम में किसान सम्मान निधि के 10 करोड़ लाभार्थियों के खाते में 23 हजार करोड़ रुपये ट्रांसफर किए. केंद्र सरकार ने बजट में मखाना बोर्ड के गठन का ऐलान किया, जिसकी खेती बिहार में बड़े पैमाने पर होती है. कृषि मंत्री शिवराज सिंह भी मैदान में उतरे और 'मखाना पंचायत' के जरिये किसानों को साधने का प्रयास किया. वहीं, बिहार में एनडीए सरकार की अगुवाई कर रहे जनता दल (यूनाइटेड) के नेता भी नीतीश कुमार सरकार की ओर से किसानों के उत्थान के लिए उठाए गए कदम, सात निश्चय में कृषि को लेकर संकल्प बताने जनता के बीच पहुंच रहे हैं.
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बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के तेजस्वी यादव ने भी पहले ही यह ऐलान कर दिया है कि हमारी सरकार बनी तो मंडी व्यवस्था चालू की जाएगी. उन्होंने एमएसपी लागू करने का भी वादा किया है. चर्चा भूमि सर्वे को लेकर बिहार सरकार से किसानों की नाराजगी के भी हैं. बिहार चुनाव में किसान किसके वादे-इरादों पर यकीन करता है, यह देखने वाली बात होगी.