दशकों तक भारत में क्रिकेट का एक ही चेहरा था- नीली जर्सी में पुरुष. लेकिन कहीं धूलभरी गलियों में, छोटे कस्बों की सड़कों पर, कुछ लड़कियां अलग सपना देखना सीख रही थीं. टेप लगी टेनिस बॉल, टूटा हुआ बल्ला और आग से भरे दिलों के साथ उन्होंने एक ऐसी यात्रा शुरू की, जिसने एक दिन पूरे देश की आत्मा को झकझोर दिया.
भारतीय महिला क्रिकेट की बुनियाद महेंद्र कुमार शर्मा ने रखी, जब 1973 में उन्होंने लखनऊ में “वुमेंस क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ इंडिया” (WCAI) का पंजीकरण कराया. यह वही दौर था जब महिलाओं के लिए क्रिकेट महज एक सपना था. न कोई बोर्ड, न फंडिंग, न सुविधाएं. खिलाड़ी अपने यूनिफॉर्म खुद सिलतीं, बिना रिजर्व डिब्बों में सफर करतीं और कई बार दूसरों से उधार लिए बैट-पैड से खेलतीं.
1976 में भारत ने वेस्टइंडीज के खिलाफ बेंगलुरु में अपना पहला टेस्ट खेला. दर्शक गिने-चुने थे, लेकिन खिलाड़ियों के लिए वही उनका वर्ल्ड कप था. शांता रंगास्वामी, संध्या अग्रवाल और डायना एडुल्जी जैसी खिलाड़ियों ने सिर्फ रास्ता नहीं बनाया, बल्कि यह साबित किया कि महिलाएं भी उसी मैदान की हकदार हैं.
2005: जब उम्मीद ने आकार लिया
तीन दशकों की मेहनत के बाद मिताली राज की कप्तानी में भारत 2005 वर्ल्ड कप फाइनल तक पहुंचा. झूलन गोस्वामी, अंजुम चोपड़ा, अंजू जैन... सबने बिना संसाधनों और बिना सुर्खियों के सिर्फ हौसले के दम पर इतिहास रचा. हालांकि फाइनल में हार मिली, लेकिन भारत के दिलों में यह टीम जीत चुकी थी.
मिताली ने तब कहा था- 'इस हार ने हमें यकीन दिलाया कि हम इस स्तर पर खेलने लायक हैं.' वो हार ही असली जीत की शुरुआत थी. 2006 में बीसीसीआई ने महिला क्रिकेट को अपने नियंत्रण में लिया और इतिहास का रुख बदल गया.

2017- वो हार जिसने सब कुछ बदल दिया
लॉर्ड्स में इंग्लैंड के खिलाफ फाइनल हारना दर्दनाक था. अन्या श्रब्सोल का वो आखिरी ओवर आज भी हर फैन को याद है. लेकिन इस हार में भी जीत छिपी थी- क्योंकि दुनिया ने आखिरकार इन बेटियों को देखा, पहचाना.
डायना एडुल्जी ने कहा था, 'हमारी बेटियों ने हिम्मत और जुनून से वो कर दिखाया जो कभी सपना था. ये जीत सिर्फ खेल की नहीं, विश्वास की जीत है.'
... बीसीसीआई का नया अध्याय
जय शाह की अगुवाई में समान वेतन नीति (Pay Equity) और विमेंस प्रीमियर लीग (WPL) ने महिला क्रिकेट को नई ऊंचाई दी. अब खिलाड़ियों के पास मंच है, पहचान है और आर्थिक आजादी भी. छोटे कस्बों तक क्रिकेट पहुंच चुका है- यही असली क्रांति है.
2025 में सपना पूरा हुआ
यह जीत सिर्फ एक ट्रॉफी नहीं, बल्कि हर उस लड़की की जीत थी जिसे कभी कहा गया था- 'ये तुम्हारे बस की बात नहीं.' यह उन माताओं की जीत थी जो बेटियों के बैट को किताबों में छिपाती थीं, उन पिताओं की जो छोटे फोन पर मैच देखते थे और उस देश की भी, जिसने आखिरकार कहा- 'हमारी बेटियां भी कर सकती हैं.'
WE ARE THE CHAMPIONS!
— Star Sports (@StarSportsIndia) November 2, 2025
Every ounce of effort, every clutch moment, every tear, all of it has paid off. 💙#CWC25 #INDvSA pic.twitter.com/hhxwlStp9t
नीतू डेविड का विश्लेषण- ‘अब या कभी नहीं’ की टीम
आईसीसी हॉल ऑफ फेम में शामिल पूर्व स्पिनर नीतू कहती हैं. 'इस टीम ने बहुत आलोचना झेली. कोच बदले, सिस्टम पर सवाल उठे. लेकिन सीनियर खिलाड़ियों- हरमन, स्मृति, जेमिमा, दीप्ति... ने टीम को एकजुट रखा.'
उन्होंने बताया,'जब अमोल मजूमदार 2023 में कोच बने, उनका मंत्र साफ था- ‘अब या कभी नहीं.' पिछले 18 महीनों की मेहनत ने अब इतिहास लिखा है.'
कौने थे महेंद्र कुमार शर्मा
महेंद्र कुमार शर्मा महिला क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ इंडिया (WCAI) के संस्थापक सचिव थे और शुरुआती 5 वर्षों तक इस पद पर रहे. भारत में 1978 में आयोजित पहले महिला विश्व कप की मेजबानी की जिम्मेदारी भी उन्हीं के पास थी. उस दौर में जब यह संगठन मुख्य रूप से व्यक्तियों और सरकारी मदद से मिलने वाले दान पर निर्भर था.
अपने अस्तित्व के दौरान WCAI ने दो महिला विश्व कप की मेजबानी की. इनमें से एक 1997 का टूर्नामेंट बेहद सफल रहा, जब इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुआ फाइनल मुकाबला कोलकाता के ईडन गार्डन्स में लगभग 80 हजार दर्शकों की मौजूदगी में खेला गया.
उनके समर्पण और दूरदर्शिता ने महिला क्रिकेट को वह पहचान दिलाई, जिसकी उस समय सख्त जरूरत थी. उन्होंने सुनिश्चित किया कि खिलाड़ियों को वह पहचान और प्रचार मिले, जिसके वे हकदार थीं. जब इस खेल में पैसे की कमी थी, तब उनका जुनून और दृष्टिकोण बेमिसाल था. 1973 में उन्होंने भारत में पहला महिला नेशनल टूर्नामेंट आयोजित कराया, जिसमें सिर्फ तीन टीमें थीं. बाद में यह बढ़कर छह, फिर आठ और अंततः 14 टीमों तक पहुंचा. वहीं से शुरुआत कर विश्व कप की मेजबानी तक पहुंचना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी.'
महिला क्रिकेट के अग्रदूतों में से एक महेंद्र कुमार शर्मा अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी पहल ने भारतीय महिला क्रिकेट को वह आधार दिया, जिस पर आज इसकी बुलंद इमारत खड़ी है.
अब शुरू हुआ है डॉमिनेंस का युग, जहां लड़कियां पहचान के लिए नहीं, रिकॉर्ड के लिए खेलेंगी. जहां वर्ल्ड कप जीतना मंजिल नहीं, परंपरा बनेगा. क्योंकि इन बेटियों ने सिर्फ वर्ल्ड कप नहीं जीता उन्होंने “नीली जर्सी” का मतलब बदल दिया. और जब किसी कस्बे में कोई बेटी स्ट्रीटलाइट के नीचे बल्ला घुमाती है, तो लगता है कहानी अभी खत्म नहीं हुई है...ये तो बस शुरुआत है.