अरावली सिर्फ पत्थरों और पहाड़ियों की श्रृंखला नहीं है, बल्कि उत्तर भारत की जीवनरेखा है. यही पर्वतमाला थार मरुस्थल की रेत, लू और धूल भरी आंधियों को दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के उपजाऊ इलाकों तक पहुंचने से रोकती है. यही अरावली भूजल को रिचार्ज करती है, जंगलों और वन्यजीवों को आश्रय देती है और करोड़ों लोगों को सांस लेने लायक हवा उपलब्ध कराती है.
लेकिन आज यही अरावली एक बार फिर सियासत, कानून और पर्यावरण के टकराव का केंद्र बन गई है. सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से दाखिल एक जवाब के बाद राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली तक सोशल मीडिया से लेकर सड़कों पर हंगामा मचा हुआ है. सवाल सिर्फ कानूनी परिभाषा का नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का है.
सोशल मीडिया से सड़क तक ‘Save Aravalli’ की गूंज
अरावली पर्वत श्रृंखला को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से दायर जवाब के बाद राजस्थान समेत तीन राज्यों में राजनीति गरमा गई है. सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक गलियारों तक इस मुद्दे पर लोग मुखर है. पर्यावरण विशेषज्ञों से लेकर आम जनता सरकार की नीति पर सवाल उठा रहे हैं जबकि विपक्षी दल कांग्रेस ने इसे प्रदेश और उत्तर भारत के भविष्य से जुड़ा मुद्दा बताते हुए सड़कों पर उतरने का ऐलान कर दिया है.
#SaveAravalli अभियान के समर्थन आए अशोक गहलोत
सोशल मीडिया पर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया पर 'सेव द अरावली' के नाम से मुहिम चलाते हुए सरकार की नीति पर सवाल उठाए हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अरावली को लेकर प्रस्तावित नई परिभाषा पर आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा कि अरावली को केवल ऊंचाई या तकनीकी मापदंडों से नहीं, बल्कि उसके पर्यावरणीय महत्व के आधार पर देखा जाना चाहिए. गहलोत ने #SaveAravalli अभियान के समर्थन में अपनी सोशल मीडिया प्रोफाइल तस्वीर भी बदली और इसे नई परिभाषा के खिलाफ प्रतीकात्मक विरोध बताया.
गहलोत ने कहा कि अरावली उत्तर भारत के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा दीवार है, जो थार मरुस्थल की रेत और लू को दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक पहुंचने से रोकती है. यदि छोटी पहाड़ियों और गैपिंग एरिया को खनन के लिए खोला गया, तो मरुस्थलीकरण तेज होगा और तापमान में खतरनाक बढ़ोतरी होगी. अरावली की पहाड़ियां और जंगल एनसीआर और आसपास के क्षेत्रों के लिए फेफड़ों की तरह काम करते हैं. ये धूल भरी आंधियों और प्रदूषण को रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं.
उन्होंने चेतावनी दी कि अरावली कमजोर हुई तो प्रदूषण की स्थिति और भयावह हो जाएगी. जल संकट को लेकर गहलोत ने कहा कि अरावली की चट्टानें भूजल रिचार्ज का मुख्य आधार हैं. पहाड़ खत्म होने का मतलब है कि आने वाले समय में पीने के पानी की गंभीर किल्लत, वन्यजीवों का लुप्त होना और पूरी पारिस्थितिकी व्यवस्था का संतुलन बिगड़ जाना.
सुप्रीम कोर्ट में सरकार के जवाब ने बढ़ाई चिंता
अरावली पर्वत श्रृंखला को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से जो जवाब दाखिल किया गया है उसमें कहा है कि अरावली की पहचान और संरक्षण की सीमा तय करने के लिए ऊंचाई को आधार बनाया जाना चाहिए. सरकार के अनुसार स्थानीय भू-स्तर से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ियां ही अरावली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा मानी जाएंगी. 100 मीटर से कम ऊंचाई वाले टीले, छोटी पहाड़ियां और गैपिंग एरिया को अरावली की परिभाषा में शामिल नहीं किया जाना चाहिए.
सरकार ने कोर्ट में यह भी दावा किया कि यह परिभाषा वैज्ञानिक आधार पर तय की गई है और इससे संरक्षण तथा विकास के बीच संतुलन बनाया जा सकेगा. केंद्र का तर्क है कि एक स्पष्ट और सीमित परिभाषा के अभाव में नीतिगत भ्रम की स्थिति बनी हुई थी, जिसे दूर करने के लिए यह कदम जरूरी है.
दिलचस्प बात ये है कि राजस्थान में 2002 में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ही इस परिभाषा को स्वीकार था. उसी समय ये राजस्थान में 100 मीटर या उससे उपर की पहाड़ी को अरावली मानकर खनन कार्य हो रहे हैं.
ताजा विवाद की असली वजह क्या है?
एफएसआई (FSI) फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने 10 हज़ार पहाड़ियों को अरावली बताते हुए इन जगहों पर खनन काम को रोकने के लिए कहा. इसके खिलाफ राजस्थान सरकार सुप्रीम कोर्ट गई जहां कहा गया कि इससे सारे खनन काम बंद हो जाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने नए सिरे से क़ानून बनाने के निर्देश देते हुए कहा कि पुराने खनन कार्य जारी रह सकते हैं, इसके लिए उन्हें फिर से परमिशन लेनी होगी कि वो खनन और पर्यावरण के नियमों का उल्लंघन नहीं कर रहे है.
ताजा अपडेट के अनुसार करीब आठ हजार जगहों पर फिर से खनन गतिविधियों को परमिशन मिल गई है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनी कमेटी को रिपोर्ट तैयार कर नियम बनाने में दो साल का समय लग सकता है.
क्यों खतरनाक है नई परिभाषा?
खनन कार्य के लिए कथित सरकारी मिलीभगत से 100 मीटर या उससे ऊंची पहाड़ियों को भी 60 मीटर या 80 मीटर दिखाकर सरकार से परमिशन ले लेते हैं. उसके लिए ये पहाड़ी नापने के लिए अल्टीमीटर का सहारा लेते हैं जबकि कई मौकों पर सरकार कह चुकी है कि पहाड़ की ऊंचाई अल्टीमीटर से नहीं नापी जा सकती है. अलवर और सिरोही में 2 जगहों पर इसके खिलाफ मुकदमे भी दर्ज किए गए. 2009 से 2015 तक राजस्थान में इस तरह से सैकड़ों परमिशन मिली. इनके खिलाफ जांच हुई, मगर इन्हें कोर्ट से इन्हें राहत मिल गई. अकेले राजस्थान में इस तरह से 100 से ज़्यादा खनन कार्य हो रहे हैं, जहां पर लोगों का कहना है कि अरावली की ऊंचाई 100 मीटर से ऊंची है पर कागज़ों में 60 से 80 मीटर दिखाकर खनन कार्य सरकारी मिलीभगत से किए जा रहे हैं.
NSUI राजस्थान ने सड़कों पर उतरने का किया ऐलान
इस पर NSUI राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष विनोद जाखड़ ने कहा कि अरावली पर्वत श्रृंखला को लेकर सरकार के फैसलों के विरोध में एनएसयूआई राजस्थान ने सड़कों पर उतरने का ऐलान किया है. संगठन की ओर से 26 दिसंबर को सुबह 11 बजे जयपुर में ‘अरावली बचाओ पैदल' मार्च आयोजित किया जाएगा. यह मार्च शहीद स्मारक पुलिस कमिश्नरेट से शुरू होकर कलेक्ट्रेट सर्किल तक जाएगा. पर्यावरण संरक्षण में लगे संगठनों और विपक्ष का कहना है कि अरावली की करीब 80 से 90 प्रतिशत पहाड़ियां 100 मीटर से कम ऊंचाई की हैं, जिससे वहां खनन और निर्माण गतिविधियों के रास्ते खुल सकते हैं.