समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, कांग्रेस की प्रियंका गांधी वाड्रा, डीएमके नेता स्टालिन आदि ने मद्रास हाईकोर्ट के जज जस्टिस जी.आर. स्वामीनाथन के खिलाफ महाभियोग की मांग की है. जज का दोष केवल इतना है कि उन्होंने हिंदू परंपराओं के नाम पर एक मंदिर को दीप जल सके इसके लिए राज्य सरकार को कहा. बाद में आदेश के तामील न होने पर अवमानना आदेश भी जारी किया. मंगलवार को इन नेताओं ने करीब 100 सांसदों के हस्ताक्षर वाला एक ज्ञापन लोकसभाअध्यक्ष ओम बिरला को सौंपा. यह घटना तमिलनाडु के मदुरै स्थित तिरुपरंकरुणम हिल पर कार्तिगई दीपम उत्सव को लेकर छिड़े विवाद से जुड़ी है.
जस्टिस स्वामीनाथन ने 1 दिसंबर 2025 को एक फैसला सुनाया, जिसमें हिंदू भक्तों को पहाड़ी पर दीपक जलाने में सरकार को मदद करने का आदेश दिया. विपक्षी दलों ने इसे सांप्रदायिक उकसावा बताते हुए जज को निशाना बना दिया गया. वरिष्ठ पत्रकार शंकर अय्यर का कहना है कि ज्ञापन में कहा गया है कि जज एक समुदाय विशेष (हिंदू) को फायदा पहुंचाना चाहते हैं. अब सवाल यह नहीं है कि क्या हिंदू परंपराओं की रक्षा करना अपराध है, बल्कि बड़ा सवाल यह हो गया कि क्या देश के हर फैसले को जाति और धर्म के आधार पर तौला जाएगा. क्या प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव जैसे नेता कभी हिंदू मंदिरों के लिए ऐसी आक्रामक आवाज उठाएंगे?
तिरुपरंकरुणम हिल: इतिहास और विवाद की जड़ें
तिरुपरंकरुणम हिल, मदुरै से मात्र 10 किलोमीटर दूर, तमिलनाडु की प्राचीन धरोहरों में से एक है. यह पहाड़ी भगवान मुरुगन (कार्तिकेय) को समर्पित एक प्राचीन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, जो तमिल साहित्य में तिरुपरंकरुणम मुरुगन कोयिल के नाम से जाना जाता है. मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में पल्लव राजवंश के शासन में हुआ था. लेकिन पुरातात्विक प्रमाण बताते हैं कि यह स्थल सनातन परंपराओं का केंद्र रहा है. पहाड़ी के नीचे स्थित मंदिर में वार्षिक कार्तिगई दीपम उत्सव मनाया जाता है, जो तमिल हिंदू संस्कृति का अभिन्न अंग है.
इस उत्सव में भक्त एक विशाल दीपक जलाते हैं, जो भगवान शिव के ज्योति स्वरूप का प्रतीक है. किंवदंती के अनुसार, मुरुगन ने इसी पहाड़ी पर देवताओं और असुरों के बीच युद्ध लड़ा था. पहाड़ी के शिखर पर एक प्राचीन स्तंभ (पिलर) है, जिसे हिंदू कोडिमरम (ध्वजस्तंभ) मानते हैं. यह स्तंभ 16 फीट ऊंचा है और पुरातत्वविदों के अनुसार, यह 10वीं शताब्दी का चोल कालीन अवशेष है. हिंदू दावे के मुताबिक, यह स्तंभ मुरुगन मंदिर का हिस्सा था, जहां प्राचीन काल में दीपक जलाया जाता था.
इसके बाद शुरू होता है पहाड़ी पर स्थित दरगाह का इतिहास. तमिल मान्यताओं में सिकंदर शाह का जिक्र आता है जो सूफी परंपरा का पालन करने वाले एक लड़ाके थे. 13वीं शताब्दी में विजयनगर के हिंदू राजा से हुए युद्ध में वे मारे गए. राजा ने सिकंदर शाह को मानने वालों को पहाड़ी पर दरगाह बनाने की इजाजत दी. और तब से 'सिकंदर बादुशा दरगाह' मदुरै की एक पहचान बन गया.
इस पहाड़ी कुछ कुछ दशकों पहले तक हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के प्रतीक के तौर पर देखा जाता था. क्योंकि, कई हिंदू दरगाह पर जाकर धागा बांधते थे. और कई मॉडरेट मुस्लिम पहाड़ी के नीचे स्थित मंदिर के दर्शन करते रहे हैं. लेकिन, इस पूरे माहौल में तब जहर घुल गया, जब कार्तिक महीने में पहाड़ी के शिखर पर दीये जलाने की परंपरा पर दरगाह की देखभाल करने वाले आपत्ति लेने लगे.
25-30 साल में घुल गया सारा जहर
ब्रिटिश काल में, 1890 में मद्रास हाईकोर्ट ने पहाड़ी को तिरुपरंकरुणम हिल नाम दिया, जो हिंदू परंपरा को मान्यता देता है. लेकिन 1994 में पहला बड़ा टकराव हुआ, जब पहाड़ी के शिखर पर दीपक जलाने की मांग की राज्य सरकार खारिज कर दी. तर्क दिया गया कि यह दरगाह के आसपास सांप्रदायिक तनाव पैदा करेगा. फिर हिंदू महासभा और अन्य समूहों ने कोर्ट में याचिकाएं दायर कीं, लेकिन हर बार स्थानीय प्रशासन ने शांति बनाए रखने के नाम पर अनुमति नहीं दी.
2020 में, कोविड के दौरान विवाद फिर भड़का. हिंदू कार्यकर्ता राम रविचंद्रन ने दावा किया कि खंभे पर बने अवैध निर्माण (जैसे सीढ़ियां और बाड़) को हटाया जाए. मद्रास हाईकोर्ट ने 2022 में हिल का नाम तिरुपरंकरुणम ही रखा और पशु बलि (जो दरगाह में प्रथा थी) पर रोक लगा दी.
2025 में, राम रविचंद्रन (हिंदू मक्कल काची के महासचिव) ने फिर याचिका दायर की, जिसमें कार्तिगई दीपम के लिए पहाड़ी पर दीपक जलाने की मांग की गई. उन्होंने तर्क दिया कि यह तमिल हिंदू संस्कृति का हिस्सा है और दरगाह के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता.
राज्य सरकार ने विरोध किया, लेकिन 1 दिसंबर को जस्टिस स्वामीनाथन ने फैसला सुनाया कि यह रिवाज प्राचीन है और मुस्लिम भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाएगा. मदुरै बेंच द्वारा दिया गया अवमानना आदेश इसलिए जारी हुआ क्योंकि राज्य अधिकारी अदालत के 1 दिसंबर के निर्देश का पालन नहीं कर पाए थे, जिसमें मंदिर पर दीप जलाने का आदेश दिया गया था. आदेश न मानने पर CISF ने याचिकाकर्ता और उनके समर्थकों को सुरक्षा देते हुए पहाड़ी पर चढ़ाया और दीप जलवाया.जज ने इसे प्रतीकात्मक लेकिन आवश्यक बताते हुए लिखा कि आदेशों का पालन न करना लोकतंत्र की मृत्यु की घंटी बजाने जैसा होगा.
यह फैसला आते ही हिल पर भारी भीड़ उमड़ पड़ी. हिंदू संगठनों और पुलिस के बीच झड़पें हुईं, जिसमें कई घायल हुए. डीएमके सरकार ने इसे बीजेपी का षड्यंत्र बताया, जबकि हिंदू पक्ष ने इसे परंपरा की जीत कहा. विवाद की गहराई यह है कि हिल पर दरगाह और मंदिर दोनों के अधिकारियों ने सहमति जताई थी कि दीपक जलाना ठीक है, लेकिन स्थानीय कलेक्टर ने सुरक्षा के नाम पर इसे रोक दिया. इतिहास गवाह है कि तिरुपरंकरुणम सदियों से हिंदू-मुस्लिम सद्भाव का प्रतीक रहा, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप ने यहां के माहौल में जहर घोल दिया.
हालिया घटनाक्रम: कोर्ट से संसद तक का सफर
जस्टिस स्वामीनाथन का फैसला तमिलनाडु की डीएमके सरकार के लिए चुनौती बन गया. मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने इसे धार्मिक असहिष्णुता करार दिया और कहा कि यह 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी का ध्रुवीकरण अभियान है.
डीएमके ने तुरंत अपील दायर की, लेकिन हाईकोर्ट ने स्टे नहीं दिया. फिर, 5 दिसंबर को, डीएमके सांसदों ने लोकसभा स्पीकर को महाभियोग नोटिस सौंपा. उन्होंने दावा किया कि जज का फैसला पूर्वाग्रही है और मुस्लिम भावनाओं को नजरअंदाज करता है.
इस नोटिस पर हस्ताक्षर करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी. इंडिया गठबंधन (कांग्रेस, एसपी, डीएमके, टीएमसी आदि) के 100 से अधिक सांसदों ने समर्थन दिया.फोटो में अखिलेश यादव लाल टोपी पहने, प्रियंका गांधी सफेद साड़ी में, और अन्य नेता सुप्रीम कोर्ट या स्पीकर को ज्ञापन सौंपते दिखते हैं. अखिलेश ने संसद में बहस के दौरान बीजेपी पर तंज कसा कि ये लोग वंदे मातरम पर लेक्चर देते हैं, लेकिन हिंदू अधिकारों की रक्षा क्यों नहीं करते?
क्या 100 सांसदों को जज के खिलाफ ज्ञापन देना चाहिए था?
यह सवाल भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव को हिला देता है. एक तरफ, विपक्ष का अधिकार है कि वह न्यायिक दुरुपयोग पर सवाल उठाए. जस्टिस स्वामीनाथन का फैसला संवेदनशील था, और यदि यह सांप्रदायिक तनाव बढ़ाता है, तो जांच जरूरी है. पर तनाव तो अब तक बढ़ा नहीं . हां इतना जरूर है कि अब इन बड़े नेताओं के एक पक्षीय सोच के चलते माहौल खराब हो सकता है. प्रियंका, जो अक्सर महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करती हैं, ने ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर न्यायपालिका को निशाना बनाया, जो संविधान की रक्षा करती है. अखिलेश, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, जिनकी पार्टी मुस्लिम वोटबैंक पर निर्भर है, ने इसे राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया. क्या इसे उचित कहा जा सकता है? जजों का महाभियोग दुर्लभ होता है . स्वतंत्र भारत में केवल तीन प्रयास हुए, और कोई सफल नहीं रहा. यह जानते हुए भी महाभियोग की मांग करना केवल वोट बैंक की राजनीति ही लगता है.
क्या चुनावी फायदे के लिए जजों पर दबाव बनाना ठीक है?
विपक्ष का कदम चुनावी स्टंट लगता है, खासकर तमिलनाडु में डीएमके-बीजेपी टकराव के बीच. यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता है और सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा देता है. यदि विपक्ष को असहमति थी, तो अपील दायर करनी चाहिए थी, न कि संसद को हथियार बनाना चाहिए था. सवाल उठता है कि क्या ये नेता कभी हिंदू मंदिरों के लिए ऐसी आवाज उठाएंगे? क्या यहां दोहरा मापदंड साफ नहीं दिख रहा है? प्रियंका और अखिलेश ने ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए जब एक जज ने हिंदू रिवाज की अनुमति दी, लेकिन ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा शाही ईदगाह या संभल विवादों में चुप्पी साधे रहे. अयोध्या राम मंदिर फैसले पर कांग्रेस ने विरोध किया, लेकिन कभी जजों के खिलाफ महाभियोग की धमकी नहीं दी.
तिरुपरंकरुणम विवाद एक छोटी चिंगारी है, जो बड़े सवाल खड़ी करती है. जस्टिस स्वामीनाथन का फैसला संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) की रक्षा करता है. 100 सांसदों का कदम लोकतंत्र पर हमला है, जो न्यायपालिका को कमजोर करेगा. प्रियंका और अखिलेश को आत्ममंथन करना चाहिए. क्या वे समानता चाहते हैं या सांप्रदायिक विभाजन? भारत हिंदू बहुल देश है, लेकिन अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा जरूरी है. सच्ची धर्मनिरपेक्षता दोनों पक्षों का सम्मान है, न कि एक का तुष्टिकरण.