ऑपरेशन सिंदूर पर भारत का पक्ष दुनिया को बताने के बाद सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य विदेश दौरे से लौट आये हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सांसदों की मुलाकात भी हो चुकी है. रिपोर्ट देने और बाकी हिसाब किताब देने जैसी औपचारिकताएं, बची हैं तो वे भी पूरी हो जाएंगी.
अब राजनीति के दो खास मौके आने वाले हैं. एक, संसद का मॉनसून सत्र और दूसरा बिहार विधानसभा का चुनाव - ये तो मानकर चलना चाहिये कि बिहार चुनाव में तो सभी अपनी अपनी राजनीतिक लाइन पर मोर्चा संभाले मिलेंगे, लेकिन संसद में अलग रंग देखने को मिल सकता है, और ये प्रतिनिधिमंडल में शामिल सांसद के लिए फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती भी है.
सवाल ये है कि प्रतिनिधिमंडल में शामिल नेताओं का संसद में क्या रुख होगा?
क्या संसद में भी ये नेता वही रुख अख्तियार करेंगे, जो विदेश दौरे में देखने को मिला है, या लौटने के बाद घरेलू राजनीति उन पर हावी हो जाएगी?
क्या सभी सांसदों का एक जैसा हाल होगा, या उनका व्यवहार उनके दबदबे और हैसियत के हिसाब से प्रभावित या बेअसर रहेगा?
स्पेशल नहीं, सिर्फ मॉनसून सेशन होगा
केंद्र की बीजेपी सरकार ने विपक्ष की स्पेशल बुलाने की मांग पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया है. मान लेना चाहिये, ये मांग ठुकरा दी गई है.
विपक्षी खेमे के 16 दलों की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की गई थी. ऐसी ही मांग आम आदमी पार्टी की तरफ से भी हुई है, लेकिन वो विपक्ष के संयुक्त मांग में शामिल नहीं है.
लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी, और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ से भी पत्र लिखे गये थे, और संसद के दोनों सदनों का विशेष सत्र बुलाने की मांग की गई थी, ताकि पहलगाम हमले, ऑपरेशन सिंदूर और सीजफायर के मुद्दे पर खुलकर बहस हो सके.
स्पेशल सेशन की डिमांड का पूर्व रक्षा मंत्री शरद पवार ने विरोध किया था. शरद पवार का कहना था कि राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर संसद में बहस करना ठीक नहीं होगा. भले ही इसके लिए सर्वदलीय बैठक बुला ली जाये, और वहां पर चर्चा की जा सकती है.
और इसी बीच केंद्र सरकार की तरफ से संसद के मॉनसून सत्र की तारीख घोषित कर दी गई है. 21 जुलाई से 12 अगस्त तक.
अब संसद सत्र का नाम जो भी हो, कामकाज तो वैसे ही होगा. जैसे होता आया है. जो सत्ता पक्ष चाहता है, जो विपक्ष चाहता है.
देखना ये होगा कि जिस मकसद से स्पेशल सेशन बुलाये जाने की मांग हो रही थी, मॉनसून सत्र में उसका कितना असर होता है.
सदस्यों पर राष्ट्रवाद की भावना कब तक हावी रहेगी?
बीजेपी और सहयोगी दलों के नेताओं के लिए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल तो रुटीन की राजनीति जैसा ही रहा, लेकिन विपक्षी खेमे के नेताओं के लिए तो किसी एडवेंचर जैसा माहौल बन गया था. ऐसा होने की वजह भी थी.
बीजेपी और सहयोगी दलों के नेता तो वही सब करते और बोलते थे, जो रोजमर्रा की राजनीति में बोलना और करना होता था, लेकिन विपक्षी खेमे के नेताओं का बदला हुआ रूप हर कोई नोटिस कर रहा था - असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता तो अलग ही मीडिया की सुर्खियों में छाये हुए थे.
शशि थरूर को प्रतिनिधिमंडल में शामिल किये जाने पर भी सुर्खियां बनीं, और यूसुफ पठान के इनकार को लेकर भी.
और सिर्फ शशि थरूर ही नहीं, सलमान खुर्शीद और मनीष तिवारी जैसे नेता भी अपने ही साथियों के निशाने पर आ गये थे - निश्चित तौर पर कांग्रेस नेता पहलगाम अटैक के बाद केंद्र की बीजेपी सरकार के साथ कदम कदम पर खड़े रहने का वादा कर रहे थे, लेकिन जैसे ही मौका मिलता राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे के राजनीतिक बयान आ जाते - और बीजेपी नेता अपनी प्रतिक्रिया देकर उसे और हवा दे देते रहे.
विदेश दौरे पर गये हर नेता के रुख की, देश के गौरव के प्रति समर्पण की और उनकी बातों की हर तरफ तारीफ हो रही है, लेकिन ये माहौल कब तक कायम रहेगा?
मॉनसून सत्र शुरू होने में महीना भर से ज्यादा वक्त है, तब तक क्या राजनीतिक माहौल होगा? डेलिगेशन के सदस्यों से उनके अनुभव पूछे जाएंगे, किसी भी मंच पर जाएंगे तो फिलहाल सवाल तो उसी टॉपिक पर होगा, और उनका जवाब सुनना भी दिलचस्प होगा.
एक सवाल ये भी है कि क्या सांसद मॉनसून सत्र शुरू होने तक प्रतिनिधिमंडल के सारे सदस्य यूं ही राष्ट्रवादी बने रहेंगे, ये घरेलू राजनीति में फिर से रंग जाएंगे?
मुद्दा तो ये भी है कि सांसदों पर अपने अपने राजनीतिक दलों और नेताओं का भी तो दबाव होगा?
और क्या दबाव से वे सांसद मुक्त रह पाएंगे? अगर रहे भी तो कब तक रह पाएंगे?
संसद में बहस हुई तो विपक्ष के हिस्से में क्या आएगा?
जैसे कि सत्तापक्ष की तरफ से संकेत मिल रहे हैं, हो सकता है रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह पूरे मामले पर बयान दें. अव्वल तो सदन में उनका बयान एक औपचारिकता ही होगी, लेकिन उसका महत्व तो काफी है.
संसद में अगर रक्षा मंत्री का बयान होता है, तो पूरी दुनिया को नये सिरे से संदेश जाएगा. पाकिस्तान को भी, चीन और अमेरिका को भी.
ये भी हो सकता है कि शशि थरूर और प्रतिनिधिमंडल के कुछ नेताओं का भी भाषण हो, और उसके लिए ये भी संभव है कि अपने नेताओं को राजनीतिक दलों और आलाकमान की तरफ से दिशानिर्देश भी दिया जाये - अब ये परिस्थितियां ही तय करेंगी कि वास्तव में क्या होगा?
हो सकता है नेताओं को पार्टीलाइन पर बने रहने के लिए व्हिप भी जारी कर दिया जाये, जिसका पालन करना ही होगा, उल्लंघन पर नियमों के हिसाब से कार्रवाई भी होगी.
बाकी सब तो ठीक है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि विपक्षी दलों को क्या मिलेगा?
कोई भी कदम उठाने का वादा कर चुके विपक्षी दलों के नेताओं को कोई क्रेडिट मिलेगा भी, या नई बयानबाजी के कारण सत्ता पक्ष उनको हमेशा की तरह फिर से कठघरे में खड़ा कर देगा?
सवाल तो ये भी है कि जब हर फैसले के साथ बने रहने का विपक्ष ने वादा किया था तो सीजफायर पर सवाल उठाने का क्या मतलब है - लेकिन ये भी है कि जब वाजिब सवाल हों तो पूछने वाले को कठघरे में खड़ा कर दिये जाने का भी क्या मतलब होता है?