श्रीरामचरित मानस लिखते हुए संत तुलसीदास ने कथाओं का समुद्र तैयार कर दिया है. ऐसा कहना इसलिए भी ठीक है कि, तुलसीदास लिख तो रामकथा रहे हैं, लेकिन हर पात्र के साथ एक न एक कथा चल रही है. श्रीराम कथा में कई बार ये तथ्य सामने आया है कि श्रीराम विष्णु के अवतार हैं और माता सीता, खुद महालक्ष्मी हैं. इस तथ्य को एक और प्रसंग में साकार होते देखा जा सकता है, जब सीता जी गौरी पूजन के लिए गई हुई हैं और बार-बार मां पार्वती से श्रीराम को जीवन में वरण करने का आशीर्वाद मांग रही हैं.
पुष्पवाटिका में श्रीराम को देखकर अधीर हो गईं सीताजी
पुष्पवाटिका में जब सीताजी ने श्रीराम को देखा तो उन्हें बार-बार देखते हुए उनका मन अधीर होने लगा और प्रेम बढ़ने लगा. इसी दशा में वह अपने घर को लौटने लगीं, लेकिन बार-बार बहाने से पीछे पलटकर देख लेती थीं. ऐसा करके उनके मन में प्रीत और भी बढ़ती ही जाती थी.
यहां तुलसीदास लिखते हैं-
देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥

सीताजी को याद आ गया पिता का प्रण
जब सीताजी अपने भवन को लौट रही थीं, ठीक इसी समय उन्हें पिता का प्रण भी याद आ गया. उन्होंने धनुष उठाने वाले के साथ विवाह की प्रतिज्ञा कर रखी है. सीताजी सोचने लगीं कि यह सुकुमार किशोर भारी शिवधनुष कैसे उठा पाएंगे. ऐसा सोच-सोचकर वह परेशान हो उठीं. इस तरह परेशान होकर वह अंदर ही अंदर मां गौरी से प्रार्थना करने लगीं और इसी अवस्था में सहेलियों का हाथ छुड़ाकर गौरी मंदिर की ओर दौड़ती चली गईं. उन्हें अचानक क्या हुआ, यह रहस्य सखियां नहीं समझ सकीं.
इस स्थिति का वर्णन तुलसीदास ने कुछ इस तरह किया है...
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥
देवी सीता ने विभिन्न नामों से की पार्वती जी की वंदना
सीताजी तेज कदमों से गौरी मंदिर पहुंची और पार्वतीजी के कई अलग-अलग नाम लेकर उन्हें पुकारने लगीं. कभी कार्तिकेय-गणेश की माता कहतीं, कभी शिवप्रिया कहकर पुकारतीं. कभी पर्वत की पुत्री कहतीं, कभी दुर्गा-अंबा पुकारतीं. जो भी नाम जुबान पर आता, उसी नाम को लेकर प्रार्थना करने लगतीं. उनकी यह स्थिति देखकर कैलाश पर बैठी पार्वती जी भी भाव विभोर हो गईं.
संत तुलसी दास ने यहां उनकी बात को कुछ ऐसे लिखा है...
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥

संत तुलसीदास ने ये चौपाई उस समय के लिए लिखी है, जब सीता जी गौरी माता से बार बार बिनती कर रही हैं कि मेरे हृदय में जिसकी छवि बस गई है, वही मेरे जीवन में साकार हो. बस यही विनती है. मेरे मन में क्या है ये तो आप जानती ही हैं, क्योंकि आप तो सबके हृदय में रहती हैं. मेरे हृदय में जो उतर आया है उसे भी पहचान लीजिए और वही मनोरथ पूरा कर दीजिए.
इसके बाद, गौरी माता जो असल में कैलास से सब देख रही थीं, वह इस विनय-प्रेम भरी स्तुति से द्रवित हो गईं, वह इससे विचलित हुईं, उनकी माला खिसक गई, और कुछ सोचकर वह हंस पड़ीं. उनकी यही हंसी सीता जी के सामने गौरी प्रतिमा में भी उभर आई.
इसी के लिए तुलसी दास जी ने लिखा,
बिनय प्रेम बस भई भवानी,
खसी माल मूरति मुस्कानी.
क्यों मुस्कुराने लगी थीं मां पार्वती?
सीताजी के सामने मां पार्वती की मूर्ति क्यों मुस्कुराई इसकी भी एक विचित्र कथा है. कैलास पर बैठी पार्वती जी को हंसी किस बात पर आई? इसका जवाब शिव-पार्वती विवाह से जुड़ी एक कथा से मिलता है. जब देवी पार्वती, उमा रूप में शिव जी को पाने के लिए हजार वर्षों से कठोर तप कर रही थीं.
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शिव-पार्वती विवाह से जुड़ी है कथा
एक बार वह जब तपस्या में लीन थीं, उधर देवी लक्ष्मी और विष्णु जी त्रिलोक भ्रमण पर निकले थे. देवी लक्ष्मी ने देखा, सूखे होंठ, सूख चुका शरीर, मुख पर तेज लेकिन कमजोर काया में एक स्त्री पंचाक्षरी जाप कर रही है. उस वक्त देवी उमा ने पत्ते खाना भी छोड़ दिया था, तो वह अपर्णा कहलाने लगी थीं. देवी लक्ष्मी पहले तो बहुत प्रभावित हुईं कि आदिशक्ति होकर भी पार्वती जी इतना कठोर तप कर रही हैं.

महालक्ष्मी ने पार्वती को तपस्या करते देख की थी ठिठोली
फिर न जाने कैसे यही बात उनके मन में शंका के तौर पर पनपी. आदिशक्ति होकर भी इतना कठिन तप? मन में आई इसी बात को उन्होंने प्रकट स्वरूप में सामने से हंसते हुए विष्णुजी से कह दिया. उमा ने ये सुना तो तिरछी निगाहों से लक्ष्मी जी को देखा और बिना बोले इस बात को भविष्य में जवाब देने के लिए रख लिया. समय आने दो तब बताऊंगी.
तो आज वही समय आया था. सामने कोई और नहीं तीनों लोकों और 14 भुवनों के ऐश्वर्य की स्वामिनी महालक्ष्मी थीं. वरदान और श्राप खुद जिनकी इच्छा से फलते हैं, वही आज मानव रूप में इतनी विनती कर रहीं हैं. खुद सीताजी को भी ये बात ध्यान आ गईं और सकुचाते हुए उन्होंने माता के कंठ से गिरी माला को प्रसाद समझ कर सिर से लगाया. इसके बाद गौरी मां ने आशीर्वाद स्वरूप उन्हें अंतर्मन से आवाज दी और कहा कि, हे सीता, मेरे सत्य वचन और आशीष सुनो. आपको वही वर प्राप्त होगा, जिसकी कामना आप कर रही हैं. मेरा ये वचन नारद मुनि के कहे वचनों की तरह ही सत्य और पवित्र है.
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
इसके बाद सीता जी ने देवी के प्रसाद रूपी दिव्य माल को उनका आशीर्वाद समझकर प्रणाम किया और उन्हें धन्यवाद करते हुए देवी पार्वती की जय करते हुए घर को चलीं. जो सीताजी पूजा को आते हुए बहुत अधीर थीं, वह महल को जाते हुए बहुत प्रसन्न थीं. देवी माता को धन्यवाद करते हुए वह महल को चली गईं.