श्रीरामचरित मानस में संत प्रवर तुलसीदास जी ने रामकथा कहते हुए संकेत में ही कई गूढ़ और रहस्य भरी कथाओं का वर्णन कर दिया है. विषय से परे ये सभी कथाएं रामकथा के ही समानांतर चलती हैं और बड़ी बात ये कि, ये सभी उपकथाएं, कथानक का महत्वपूर्ण हिस्सा बनकर उभरती हैं. इसी तरह रामचरित मानस में ऋषि अगस्त्य की कथा का वर्णन किया गया है. ऋषि अगस्त्य भी कथा में शामिल कई सूत्रधारों में से एक हैं. जब भारद्वाज मुनि, ऋषि याज्ञव्ल्क्य से रामकथा पूछते हैं तो ऋषि उन्हें अगस्त्य ऋषि की कथा सुनाते हैं.
अगस्त्य ऋषि ने सुनाई थी महादेव को रामकथा
उनकी सुनाई कथा में ऋषि अगस्त्य, महादेव शिव को रामकथा सुना रहे हैं, जिसे सुनकर सती के मन में संदेह हो जाता है और दैवयोग से
वह श्रीराम की परीक्षा लेने निकल पड़ती हैं. फिर इसके बाद शिव द्वारा सती का त्याग और दक्ष यज्ञ में सती के दाह के प्रसंग होते हैं. संत तुलसीदास जी लिखते हैं, कि अगस्त्य मुनि काशी में निवास करते हैं और महादेव के बड़े भक्त हैं. महादेव की भक्ति में ही वह नित रामकथा का पाठ करते हैं, जिसे सुनकर महादेव बहुत प्रसन्न होते हैं. इसीलिए महादेव अक्सर उनके आश्रम में रामकथा सुनने आते थे.
तुलसीदास यहां लिखते हैं...
एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥
रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥
कथा के अनुसार, एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए. उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं. ऋषि ने संपूर्ण जगत के ईश्वर का पूजन किया. इसके बाद उन्होंने बहुत ही भक्तिभाव से रामकथा कही, जिसे महेश्वर ने आनंद से सुना.

तुलसीदास ने अगस्त्य ऋषि को कुंभज नाम से किया संबोधित
इस चौपाई में कहीं भी सीधे तौर पर ऋषि अगस्त्य का नाम नहीं आया है. बल्कि कुंभज ऋषि नाम आया है. बता दें कि कुंभज, ऋषि अगस्त्य का ही एक नाम है. तुलसीदास के लेखन की यही सार्थकता है कि उन्होंने सिर्फ कुंभज शब्द का प्रयोग करके ऋषि अगस्त्य की ओर इशारा भी कर दिया है और उनके जन्म की कथा भी कह डाली है.
दरअसल, कुंभ शब्द का अर्थ घड़ा होता है. कुंभज का अर्थ हुआ, जिसका जन्म घड़े से हुआ हो. ऋषि अगस्त्य का जन्म एक घड़े से हुआ था, इसलिए उन्हें कुंभज या घटज नाम से भी जाना जाता है.
विचित्र है ऋषि अगस्त्य के जन्म की कथा
उनके जन्म की कथा बहुत विचित्र है और पौराणिक आधार पर बहुत बड़े मायने भी रखती हैं. पुराणों में सूर्य का एक नाम मित्र है. उन्हें मित्रदेव कहा गया है. वह 12 आदित्यों में से एक हैं. वहीं वरुण जो कि जल के देवता हैं. एक बार मित्र और वरुण दोनों एक ही अप्सरा पर आसक्त हो गए. इस आसक्ति में उनका वीर्यपात हो गया, जिसे उन्होंने घड़े में संरक्षित कर लिया. इसी घड़े से अगस्त्य ऋषि का जन्म हुआ. घड़े से जन्म लेने के कारण ही उन्हें कुंभज कहा गया और मित्र-वरुण का अंश होने के कारण उन्हें मित्रावरुण कहा गया है.
प्राचीन सप्तऋषियों में एक हैं अगस्त्य ऋषि
अगस्त्य ऋषि की गणना प्राचीन सप्तऋषियों और विज्ञानवेत्ताओं में होती है. वह शस्त्र निर्माण विद्या के ज्ञाता थे. उन्हें मित्रावरुण शक्ति (यानि बिजली) उत्पादन का जनक माना जाता है. प्राचीन सूर्य की प्रतिमाओं में अक्सर ये देखने को मिलता है कि प्रतिमा के हाथ में एक घुमावदार तारनुमा कोई यंत्र है. दरअसल वह आज के कुंडलीयुक्त तंतु (फिलामेंट) का ही प्रतीक है. इसे अग्स्त्य ऋषि ने ही बनाया था. प्राचीन काल में मित्र और वरुण की संधि भी इसी बात का प्रतीक है. कहते हैं कि एक बार दोनों देवताओं में किसी बात को लेकर कलह हो गई, इससे स्वर्ग की सत्य ऊर्जा का नाश होने लगा. तब अगस्त्य ऋषि ने ही दोनों की संधि कराई, जिससे ऊर्जा फिर से बलवती होने लगी. यह कथा ऊर्जा (आज के तौर पर करंट) उत्पन्न होने की प्रतीक कथा है.

दक्षिण में है अगस्त्य ऋषि की मान्यता
ऋषि अगस्त्य की दक्षिण में बहुत मान्यता है. लोग उन्हें संत के साथ-साथ ईष्ट की पदवी भी देते हैं. अपने आराध्य शिवजी की इच्छा के कारण ही अगस्त्य ऋषि दक्षिण प्रवास के लिए गए थे. हुआ यूं कि शिव-पार्वती के विवाह में शामिल होने के लिए सभी लोकों और दिशाओं के देवता जब हिमालय पर इकट्ठा होने लगे तो उत्तर-दक्षिण का संतुलन बिगड़ने लगा. तब सिर्फ अगस्त्य ऋषि की तपस्या में ही इतना बल था कि वह संतुलन बना सकते थे. इसलिए शिवजी ने उन्हें दक्षिण भेज दिया.
जब ऋषि अगस्त्य ने चूर किया विन्ध्य पर्वत का अहंकार
दक्षिण की ओर जाते हुए, उन्हें राह में विन्ध्य पर्वत मिला. वह अहंकार में ऊंचा उठता जा रहा था. इससे उत्तर-दक्षिण का संपर्क भी कट रहा था. पहले तो ऋषि अगस्त्य ने उससे राह देने के लिए कहा, लेकिन वह नहीं माना. फिर उन्होंने चतुराई से काम लिया. कहा- क्या लाभ इतनी ऊंचाई का, जो तुम एक छोटे ब्राह्मण को न तो देख सकते हो और न कुछ दे सकते हो. विन्ध्याचल ने अहंकार में ही कहा, क्यों नहीं दे सकता, आप मांग कर देखिए. तब उन्होंने उससे कहा कि नीचे झुककर आओ और रास्ता दो. विन्ध्याचल ने ऐसा ही किया. उन्होंने कहा, मुझे वापस भी जाना है. जबतक लौट कर न आऊं तुम इसी अवस्था में रहना. फिर अगस्त्य मुनि लौटकर नहीं आए. इस तरह उत्तर-दक्षिण का संपर्क फिर जुड़ गया.
रामकथा में श्रीराम के सहायक भी बने ऋषि अगस्त्य
रामकथा में अगस्त्य मुनि का प्रसंग कई बार आया. बल्कि संत तुलसीदास के लिखे अनुसार उन्होंने श्रीराम की सहायता भी की है. वनवास के दौरान श्रीराम खुद अगस्त्य मुनि के आश्रम में उनके दर्शन के लिए पहुंचे थे और उनसे सत्संग भी सुना था. तुलसीदास लिखते है.
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुंभज रिषि पासा॥
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥
अगस्त्य ऋषि ने ही पंचवटी में रहने का दिया था सुझाव
अगस्त्य ऋषि ने ही श्रीराम को कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र भी प्रदान किए और वन में उन्हें कहां निवास करना चाहिए इसकी भी जानकारी दी. उन्होंने कहा कि इसी दंडकवन में पंचवटी नाम का एक स्थान है, जहां आप निवास करिए. इसे पवित्र कीजिए. आपके रहने से इस स्थान को गौतम ऋषि का मिला हुआ शाप भी खत्म होगा और ऋषि-मुनियों की सेवा-रक्षा भी हो सकेगी.

श्रीराम को रावण पर विजय प्राप्ति का बताया था रहस्य
अगस्त्य मुनि की बात मानकर श्रीराम पंचवटी गए और वहां निवास का प्रबंध किया. अगस्त्य मुनि ने ही राम-रावण युद्ध से पूर्व श्रीराम को आदित्यहृदय स्त्रोत का पाठ करने की राय दी थी. यह स्त्रोत युद्ध में विजय दिलवाने वाला और कीर्ति बढ़ाने वाला मंत्र है. श्रीराम ने उनकी बात मानकर आदित्यहृदय स्त्रोत का पाठ किया और रावण पर विजय प्राप्त की.