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अमेरिका-रूस पर चुप्पी, छोटे देशों पर कार्रवाई, क्या युद्ध अपराधियों के मामले में सलेक्टिव है ICC?

गाजा में राहत सामग्री का इंतजार कर रहे 90 से ज्यादा लोगों की इजरायली गोलाबारी में मौत हो गई. इससे पहले भी फूड पैकेज या दवाओं का इंतजार कर रहे लोगों पर हमले हो चुके. वॉर क्राइम को लेकर तेल अवीव लगातार घिरता रहा. फिर क्यों उसपर कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही?

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इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट युद्ध अपराध पर कड़ी सजा की बात करती है. (Photo- Reuters)
इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट युद्ध अपराध पर कड़ी सजा की बात करती है. (Photo- Reuters)

आतंकी संगठन हमास और इजरायली सेना के बीच जंग में गाजा पट्टी के लोग फंसे हुए है. रविवार को इजरायली हमले में फूड सप्लाई का इंतजार कर रहे 90 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई. इस बीच बहुत से देश तेल अवीव की लीडरशिप को युद्ध अपराधी बता रहे हैं. रूस-यूक्रेन के बीच जंग में भी वॉर क्राइम की चर्चा हो चुकी. ग्लोबल स्तर पर इस पर रोक के लिए कानून भी हैं लेकिन अपराध कम नहीं हो रहे.

तो क्या वॉर क्राइम को रोकने के लिए बनी एजेंसियां कमजोर हैं जो अपराधियों पर एक्शन नहीं हो पा रहा?

फिलिस्तीन हेल्थ मिनिस्ट्री ने हाल में एक डेटा दिया, जिसके मुताबिक अक्टूबर 2023 से अब तक लगभग 59000 हजार फिलिस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं. रविवार को जारी डेटा में यह भी दावा है कि लड़ाई में लगभग डेढ़ लाख फिलिस्तीनी जख्मी हुए. ये हमास के आतंकियों नहीं, गाजा पट्टी के आम लोगों का नंबर है. रविवार को ही तेल अवीव के हमले में फूड सप्लाई की कतार में खड़े लोगों की मौत हो गई. 

युद्ध के दौरान आम लोग बचे रहें, इसके लिए वॉर क्राइम के नियम तय हुए, साथ ही ये भी पक्का हुआ कि युद्ध अपराधियों को कड़ी सजा मिले. तमाम इंटरनेशनल संस्थाएं इसके लिए एकजुट हो गईं और कई संधियां भी हुईं. लेकिन तब भी युद्ध अपराध जारी हैं. 

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क्या है वॉर क्राइम 

यह कोर इंटरनेशनल क्राइम के तहत आता है जिसे इंटरनेशनल लॉ में सबसे बड़ा अपराध माना गया है. जैसे नरसंहार और क्राइम अगेंस्ट ह्यूमैनिटी.  

कौन से अपराध इस श्रेणी में आते हैं

- आम लोगों पर सीधा हमला या उन्हें बायो वेपन या किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने की कोशिश

- युद्ध बंदियों के साथ खराब व्यवहार या उनकी हत्या करना 

- बंधकों की हत्या या उन्हें मानसिक-शारीरिक नुकसान पहुंचाना

- लोगों को डर दिखाकर विस्थापित करना

- पब्लिक या प्राइवेट प्रॉपर्टी का नुकसान

- अस्पताल या स्कूल जैसे जरूरी स्ट्रक्चर पर हमले

- ऐसी प्रॉपर्टी पर अटैक, जो देश के लिए ऐतिहासिक या धार्मिक महत्व की हो

israel war with hamas and situation worsened in gaza (Photo- Reuters)
 गाजा पट्टी से लगातार विस्थापन हो रहा है. (Photo- Reuters)

ये सारी चीजें जिनेवा कन्वेंशन और इंटरनेशनल ह्यूमैनिटेरियन लॉ के तहत अवैध हैं. इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट इसे सीधा डील करता है. जब भी कोई देश दूसरे पर इस तरह का आरोप लगाता है, आईसीसी तुरंत एक्टिव हो जाता है.  पहले शुरुआती जांच होती है. इसमें अगर साबित हो जाए कि अपराध हुआ है और  जांच से पीड़ितों को न्याय मिल सकेगा तो आगे की कार्रवाई होती है. सारे सबूत जुटाए जाते हैं.

इसके बाद की प्रोसेस तयशुदा है

- अपराधी के खिलाफ अरेस्ट वारंट निकलता है. 

- संदिग्धों को कोर्ट में आने के लिए कहा जाता है. 

- प्री ट्रायल के दौरान जजों को 60 दिन में तय करना होता है कि केस ट्रायल तक जाने लायक है.

- अपराध साबित होने पर 30 साल से लेकर आजीवन कारावास भी हो सकता है. 

- अपराधी को सजा में राहत के लिए अपील का भी वक्त मिलता है. 

- पीड़ित सजा के अलावा जुर्माने की मांग भी कर सकते हैं. 

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ये तो हुई कानून की बात लेकिन नियमों की सख्ती की असल परीक्षा तब होती है, जब दूसरी तरफ कोई ताकतवर देश इनवॉल्व हो. आईसीसी पर आरोप रहा कि पार्टी का दमखम देखते ही वो चुप साध लेती है. 

अमेरिका ने शक के आधार पर इराक पर किया था हमला

साल 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला किया क्योंकि उसे शक था कि इराकी नेता के पास वेपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन है. यानी कुछ ऐसा है, जो लाखों लोगों को मार सकता है. इस शक के आधार पर यूएस ने हमला कर दिया, वो भी यूनाइटेड नेशन्स को जानकारी दिए बगैर. हमले और जान-माल के बड़े नुकसान के बाद तत्कालीन अमेरिकी लीडर जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कह दिया कि शक गलत था. बात खत्म. इस एकतरफा हमले ने इराक में तबाही मचा दी थी लेकिन आईसीसी ने बुश से कोई सफाई नहीं मांगी, उनके खिलाफ एक्शन लेना तो दूर. 

कई देशों ने इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट की सदस्यता नहीं ली.  (Photo- AP)
 कई देशों ने आईसीसी की सदस्यता नहीं ली. (Photo- AP)

तो क्या आईसीसी कमजोर है

ग्लोबल मामलों को सुलझाने के लिए कोर्ट तो बन गई लेकिन इसकी ताकत सीमित है. ये खुद एक्शन नहीं ले सकती, बल्कि इसके लिए अपने सदस्य देशों की सेना या पुलिस पर निर्भर है. इसके अलावा सारे देश इसके सदस्य भी नहीं. जैसे अमेरिका, इजरायल और रूस इसे नहीं मानते. ऐसे में कोर्ट अगर कोई फैसला ले भी तो चूंकि ये देश ही उसे मान्यता नहीं देते, लिहाजा उसके फैसले मानना, न मानना भी उनकी मर्जी है. 

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कोर्ट के साथ कई और समस्याएं भी

आईसीसी जैसी संस्थाओं की स्वीकार्यता और उनकी फंडिंग भी बड़े देशों से आती है. अगर वे फंड करना बंद कर दें तो स्ट्रक्चर अपने-आप कमजोर होते हुए खत्म हो जाएगा. चूंकि मजबूत शक्तिशाली देशों से उन्हें यूएन के जरिए फंडिंग होती है, लिहाजा कोर्ट चाहकर भी उनके खिलाफ सख्त नहीं हो सकती. 

वॉर क्राइम के साथ एक समस्या यह भी है कि सबूत इकट्ठा करना मुश्किल है. युद्ध के दौरान ये साबित करना कि हमला जानबूझकर किया गया, यानी टारगेट सिविलियन थे, ये काफी मुश्किल है. हमलों के वक्त मौजूद फुटेज, डेटा या आदेश देने वालों की बातचीत का रिकॉर्ड मिलना लगभग नामुमकिन है क्योंकि ये हाईली क्लासिफाइड जानकारी है. ऐसे में प्रीलिमिनरी जांच के दौरान ही मामला फेल हो जाता है. 

ICC on war crimes (Photo- Reuters)
 युद्ध अपराधों को आमतौर पर साबित कर पाना मुश्किल है. (Photo- Reuters)

मॉडर्न लड़ाई का नेचर बदला है: अब युद्ध सिर्फ सैनिकों के बीच नहीं. शहरों के बीच, इन्फ्रास्ट्रक्चर पर, आबादी वाले इलाकों में बम गिरते हैं. कई बार देश ह्यूमन शील्ड का आरोप लगाते हुए आबादी पर हमले कर देते हैं. जैसे तेल अवीव ने शहर के बीच हमला करने के पीछे सफाई दी थी कि वहां हमास के ठिकाने थे. हो सकता है कि बात सच भी हो लेकिन इसमें गेहूं के साथ घुन भी पिस गया. 

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तो क्या कोर्ट ने कभी कोई कार्रवाई नहीं की 

जरूर की लेकिन अमूमन उसका टारगेट छोटे-कमजोर देश रहे. 

- दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद हारे हुए जर्मनी के नाजी नेताओं पर मुकदमे चले और सजा भी हुई. 

- नब्बे के दशक मे रवांडा् में हुए नरसंहार के बाद खुद यूएन ने दखल दिया और काफी लोगों को सजा मिली. 

- साल 1993 में सर्बिया-बोस्निया युद्ध के दौरान बड़े पैमाने पर नरसंहार और रेप की घटनाएं हुईं. तब भी कुछ सैन्य अफसरों को सजा हुई.

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