उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक दल अपने सामाजिक समीकरण दुरुस्त करने में लगे हैं तो नेता अपने सियासी भविष्य के लिए सुरक्षित ठिकाने तलाशने में जुट गए हैं. सूबे में बढ़ती चुनावी सरगर्मियों के बीच आयाराम और गयाराम का दौर भी तेजी से शुरू हो गया है. यूपी के मौजूदा सियासी माहौल में मायावती से मुस्लिम नेताओं का मोहभंग तेजी से हो रहा है और वो बसपा का साथ छोड़कर सपा व दूसरे दलों का दामन थाम रहे हैं. खासकर पश्चिम यूपी में तो तमाम बड़े मुस्लिम नेता बसपा के हाथी से उतरकर सपा की साइकिल पर सवार हो रहे हैं या फिर आरएलडी में एंट्री कर रहे हैं.
कादिर राणा बसपा छोड़ सपा में शामिल
सियासी संकटों और अपने राजनीतिक आधार को बचाने की जद्दोजहद से जूझ रही बसपा प्रमुख मायावती को रविवार को पश्चिम यूपी में एक बड़ा झटका लगा है. मुजफ्फरनगर जिले के कद्दावर मुस्लिम नेता और पूर्व सांसद कादिर राणा ने बसपा छोड़ अखिलेश यादव की मौजूदगी में सपा की सदस्यता ग्रहण कर ली है.
कादिर राणा के बसपा छोड़ने के साथ ही पार्टी के पास जिले में कद्दावर मुस्लिम चेहरों से पूरी तरह से कमी हो गई है. बसपा के ऐसे ही सियासी हालात बिजनौर और हापुड़ और पश्चिमी यूपी के दूसरे जिलों का है, जहां मुस्लिम नेताओं का बसपा से मोहभंग हुआ है और उन्होंने दूसरी पार्टी का दामन थामा.
सपा से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले कादिर राणा 1993 में चुनाव हारने के बावजूद कुछ महीने बाद ही पार्टी टिकट पर एमएलसी चुने गए थे. इसके बाद उन्होंने सियासत में मुड़कर नहीं देखा. आरएलडी के टिकट पर विधायक व फिर बसपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीता, लेकिन 2013 मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद बदले हालात में उनके लिए जगह बनाना मुश्किल हो गया था. ऐसे में अब बसपा छोड़कर उन्होंने सपा में घर वापसी की है.
मुजफ्फरनगर में बसपा में एक भी मुस्लिम नेता नहीं
राणा के पार्टी को अलविदा कहते ही मुजफ्फरनगर में बसपा के पास एक भी बड़ा मुस्लिम नेता नहीं बचा, जिसके सहारे मायावती मुस्लिमों को साध सकें. कादिर राणा से पहले 10 दिन पूर्व उनके छोटे भाई वे पूर्व विधायक नूर सलीम राणा ने बसपा को अलविदा कहकर आरएलडी का दामन थाम लिया था. मीरापुर से बसपा विधायक रहे मौलाना जमील अहमद कासमी भी आरएलडी में जा चुके हैं.
पश्चिम यूपी के दिग्गज नेता पूर्व विधायक नवाजिश आलम और उनके पिता व पूर्व सांसद अमीर आलम पहले ही बसपा को अलविदा कह चुके है. बाप-बेटे दोनों ही आरएलडी में शामिल होकर जयंत चौधरी को मजबूत करने में जुटे हैं. सहारनपुर में बसपा के दिग्गज नेता रहे माजिद अली भी पार्टी को छोड़ चुके हैं. माजिद अली सहारनपुर के जिला पंचायत अध्यक्ष रहे चुके हैं और 2017 में देवबंद सीट से चुनाव लड़ चुके हैं.
बिजनौर से हापुड़ तक मुस्लिमों का बसपा से मोहभंग
बिजनौर में पूर्व विदायक शेख सुलेमान बसपा से सपा में शामिल हो चुके हैं. बसपा से दो बार के विधायक रहे शेख मोहम्मद गाजी भी हाथी से उतरकर चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी में शामिल हो चुके हैं. शहनवाज राणा पहले ही बसपा छोड़कर आरएलडी में शामिल हो गए हैं. इसी तरह हापुड़ जिले से विधायक असलम चौधरी का भी बसपा से मोहभंग हो चुका है और वो सपा से साथ खड़े नजर आ रहे हैं. गाजियाबाद के लोनी से पूर्व विधायक जाकिर अली भी बसपा से सपा में शामिल हो गए हैं.
बसपा का सियासी ग्राफ लगातार गिर रहा
दरअसल, 2012 के विधानसभा चुनाव बाद से बसपा का सियासी ग्राफ नीचे गिरता जा रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता नहीं खुला और 2017 के विधानसभा चुनाव में सबसे निराशाजनक प्रदर्शन करते हुए महज 19 सीटें ही जीत सकी थी, लेकिन उसके बाद से यह आंकड़ा घटता ही जा रहा है. बसपा के साथ 7 विधायक ही बचे हैं और बाकी विधायक बागी हो गए.
बसपा के बागी विधायक असलम राईनी और मुजतबा सिद्दीक सपा के संपर्क में है, जो अपनी सदस्यता को बचाए रखने के लिए सदस्यता ग्रहण नहीं कर रहे हैं. ऐसे ही पूर्वांचल में अंसारी परिवार का भी बसपा से मोहभंग हुआ. मुख्तार अंसारी के बड़े भाई पूर्व विधायक सिबातुल्ला अंसारी भी बसपा छोड़कर सपा में शामिल हो गए हैं. बसपा से लोकसभा चुनाव लड़ चुके शाहिद सिद्दीकी भी पार्टी छोड़कर आरएलडी में शामिल हो गए हैं.
बसपा में मुस्लिम चेहरों की किल्लत
मायावती के कई मुस्लिम कद्दावर नेताओं के दूसरी पार्टियां ज्वाइन करने के बाद से बसपा में मुस्लिम चेहरा का टोटा पड़ गया है. 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर तीन मुस्लिम सासंद जीते हैं, जिनमें सहारनपुर से हाजी फजलुर्रहमान और अमरोहा से कुंवर दानिश अली जबकि गाजीपुर से अफजाल अंसारी है. इन तीनों नेताओं को छोड़कर बाकी तमाम मुस्लिम नेता पार्टी को अलविदा कह चुके हैं, जिसके चलते मुस्लिम चेहरे कमी पार्टी को महसूस होने लगी है
बता दें कि पश्चिम यूपी में जिस तरह से सियासी हालत बने हैं, उसके चलते मुस्लिम नेताओं को बसपा के टिकट पर जीत आसान नहीं दिख रही है. राजनीतिक जानकारों की मानें तो जमीनी आधार पर बसपा सूबे में कहीं नजर नहीं आ रही है, जिसके चलते पार्टी के तमाम नेताओं को अपने सियासी भविष्य की चिंता सता रही है.
दलित वोट में भी बसपा के साथ सिर्फ जाटव ही बचा है, जिस पर भीम आर्मी के चंद्रशेखर भी नजर है. ऐसे में किसान आंदोलन से आरएलडी को मिली संजीवनी और अब सपा से हो रहे गठबंधन के चलते बसपा के मुस्लिम नेताओं को अपनी जीत की उम्मीद यहीं नजर आ रही है. इसी के चलते वो सपा और आरएलडी में शामिल हो रहे हैं.