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असम: चाय बागान के मजदूरों का जीवन बदहाल, सिर्फ वोट बैंक के रूप में हो रहा इस्तेमाल

असम में तकरीबन 65 लाख लोग ऐसे भी हैं जो मूल रूप से उत्तर भारत के निवासी हैं. चाय के बागान में काम करने वाले ये आदिवासी लोग असम के अलग अलग भागों में रहते हैं और यहां के वोटर भी हैं.

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Tea Tribes
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असम विधानसभा चुनाव से पहले अलग अलग वर्गों तक अपनी बात पहुंचाने और रिझाने के लिए सभी पार्टी के नेता वहां पहुंच रहे हैं. सभी पार्टियां लगातार इस प्रयास में हैं कि कैसे वहां के वोटरों को लुभा सकें. हाल ही में प्रियंका गांधी ने वहां पहुंच कर चाय के बागान में काम कर रहे मजदूरों से बातचीत कि और खुद भी चाय की पत्तियां तोड़ीं. जिसको लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा का बाजार काफी गर्म रहा.  

असम में तकरीबन 65 लाख लोग ऐसे भी हैं जो मूल रूप से उत्तर भारत के निवासी हैं. चाय के बागान में काम करने वाले ये आदिवासी लोग असम के अलग अलग भागों में रहते हैं और यहां के वोटर भी हैं. सिर्फ आदिवासी ही नहीं बल्कि यहां और भी ऐसे लोग हैं जो मूल रूप से उत्तर भारत के हैं लेकिन सालों से असम में रह रहे हैं. लेकिन उनमें से कई अभी भी सामाजिक और आर्थिक अधिकार पाने से वंचित हैं. जिसके चलते ये सभी लोग विभिन्न समस्याओं के साथ जी रहे हैं.

ग्राउंड रिपोर्ट के दौरान आजतक ने 50 साल के गिरु बागड़े से बात की. गिरु के मुताबिक वो बोंगईगांव जिले के बिरझोरा टी गार्डन में रहते हैं और परिवार के पांच लोगों के साथ जिंदगी के लिए जूझ रहे हैं. उन्होंने बताया कि वो मूल रूप से झारखंड के रहने वाले हैं, लेकिन पिछले कई दशकों से असम में रह रहे हैं. उन्होंने बताया कि उन्हें यहां मतदान का अधिकार है और उन्होंने पिछले कई चुनावों में अपने मताधिकार का प्रयोग भी किया है. 

गिरु और उनकी पत्नी यहां के चाय के बागन में काम करते हैं और एक कच्चे मकान में रहते हैं. गिरु ने बताया कि जब-जब चुनाव आते हैं, कई पार्टियों के नेता यहां आकर उनसे तरह तरह के वादे करते हैं और उनकी परेशानियों के हल निकालने को भी कह जाते हैं, लेकिन इतने समय से स्थितियां बिलकुल वैसी ही हैं जैसे शुरुआत में हुआ करती थीं. 

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'वोट बैंक के रूप में किया इस्तेमाल'

गिरु कहते हैं कि उन्होंने (राजनीतिक दलों ने) हमें सिर्फ एक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया है. चुनाव खत्म होने पर वे लोग अपने वादे भूल जाते हैं. पहले कांग्रेस ने कई वादे किए थे, लेकिन उन्होंने इसे पूरा नहीं किया. नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान भी वादा किया था, लेकिन पूरा नहीं किया. हमारा दैनिक वेतन अभी बढ़ाया जाना बाकी है. नेताओं ने केवल वादे किए हैं निभाया एक भी नहीं. 

बातचीत में उन्होंने आगे कहा कि, हालांकि असम की वर्तमान सरकार ने उनके लिए कुछ विकास से जुड़े कार्य किए हैं, लेकिन अभी भी उनकी दैनिक वेतन में वृद्धि की मांग पर कोई सुनवाई नहीं हुई है.  ऐसे में यहां केवल गिरु बागड़े और उनका परिवार ही नहीं बल्कि लगभग 600 अन्य परिवार हैं जो मूल रूप से झारखंड से ताल्लुक रखते हैं और बिरझोरा चाय बागान में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं और उन्हें भी इसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा है. 


दिहाड़ी बढ़ाने की मांग

रिपोर्ट्स के अनुसार, राज्य में कई विधानसभा क्षेत्र हैं जहां चाय बागान के हैं और वहां काम करने वाले लोगों की संख्या भी अधिक है. जिसके चलते राजनीतिक दल अब उनका समर्थन प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं. यहां चाय के बागानों में काम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों की मांग है कि उनकी दिहाड़ी 167 रुपए प्रतिदिन से बढ़ाकर 351 रुपए प्रतिदिन की जाए. यही नहीं, आदिवासी जिन्हें राज्य में टी ट्राइब्स के रूप में भी जाना जाता है, अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं.

सोनोवाल कैबिनेट ने दी 50 रुपए बढ़ाने की मंजूरी

विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले, सोनोवाल कैबिनेट ने राज्य के चाय बागान श्रमिकों के लिए दैनिक वेतन में 50 रुपए की बढ़ोतरी करने की मंजूरी दी थी, लेकिन गुवाहाटी हाई कोर्ट ने राज्य के चाय बागानों के मालिकों को यह फैसला करने के लिए स्वतंत्रता दी कि वे आदेश का पालन करना चाहते हैं या नहीं. बता दें कि बागान श्रमिकों की दैनिक मजदूरी 50 रुपए बढ़ाने पर असम सरकार का आदेश और अदालत में मामले में सुनवाई की अगली तारीख 23 अप्रैल तय की है. वहीं कांग्रेस ने अपने चुनावी वादे में कहा है कि अगर राज्य में उनकी सरकार आती है तो वो दैनिक मजदूरी 365 रुपए कर देंगे. 
 

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