
कोरोना महामारी के खिलाफ जारी जंग में कारगर वैक्सीन की तलाश भारत समेत दुनिया के कई देशों की कंपनियां कर रही हैं. लंबे इंतजार के बाद अब कई देशों में कोरोना के टीकाकरण का काम शुरू भी हो गया है जबकि भारत में इस अभियान के जल्द शुरू होने की संभावना है. भारत सरकार टीकाकरण को लेकर अपनी तैयारी भी शुरू कर चुकी है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने भी उम्मीद जताई है कि यह टीकाकरण जनवरी से शुरू हो सकता है.
कोरोना वैक्सीन को लेकर दुनियाभर के लोगों में संशय और भय की स्थिति बनी हुई है. वैक्सीन के तैयार होने और लगाए जाने की अनुमति मिलने के बाद सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती लोगों को यह समझाने और मनाने की होगी कि इसे लगवाने से स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं पड़ेगा. आज से करीब 200 साल पहले ब्रिटिश राज में जब देश में पहला टीकाकरण अभियान शुरू किया गया था तब भी टीकाकरण को लेकर उस समय की सरकार के सामने ढेरों चुनौतियां आई थीं.

चेचक के खिलाफ पहला टीकाकरण
आज से 200 साल पहले दुनिया चेचक जैसी महामारी से त्रस्त थी. यह कोरोना जैसी महामारी से भी ज्यादा खतरनाक थी और बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए थे. चेचक की उत्पत्ति आज से करीब 3 हजार साल पहले भारत या मिस्र से मानी जाती है. चेचक ने सदियों तक पूरी दुनिया में तबाही मचाई और इससे निजात के लिए 1796 में ब्रिटिश डॉक्टर एडवर्ड जेनर ने वैक्सीन की खोज की थी और यह वैक्सीन दुनिया की पहली वैक्सीन भी थी. एडवर्ड जेनर को फादर ऑफ मॉडर्न वैक्सीनेशन भी कहा जाता है.
चेचक की महामारी से भारत सदियों से खासा त्रस्त रहा था. देश के हर शहर में यह महामारी फैली हुई थी, खासकर दक्षिण भारत के राज्यों के ग्रामीण इलाकों में. तब ब्रिटिश शासक इस महामारी से निजात पाने की जद्दोजहद करते रहे थे. इसलिए इंग्लैंड और उसके आसपास के देशों में वैक्सीन के कामयाब होने के बाद इसे भारत भेजा गया. दुनिया का यह पहला वैक्सीन भारत में 1802 में आया.

3 साल की बच्ची को लगा पहला टीका
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च (IJMR) के मुताबिक चेचक का टीका (वैक्सीन) भारत में पहली बार मई 1802 में आया और इसकी पहली खुराक बॉम्बे (अब मुंबई) की 3 साल की बच्ची एना डस्टहॉल को 14 जून 1802 को दी गई. इस तरह से एना डस्टहॉल किसी भी तरह का पहला टीका लगवाने वाला पहली भारतीय बनीं.
एना डस्टहॉल के टीकाकरण के एक हफ्ते बाद उसकी बांह से पस निकालकर 5 और बच्चों को चेचक का टीका दिया गया. इसके बाद यह टीका पूरे भारत में लगाया जाने लगा और फिर हैदराबाद, चिंगलेपट, कोच्चि और मद्रास (अब चेन्नई) से होते हुए यह मैसूर के शाही दरबार तक पहुंचा.
आर्म टू आर्म वैक्सीनेशन
उस दौर में टीकाकरण का तरीका अलग था. तब एक आदमी से दूसरे आदमी में वैक्सीन लगाई जाती थी और इसे आर्म टू आर्म वैक्सीनेशन कहा जाता है. इसी आर्म टू आर्म वैक्सीनेशन यानी ह्यूमन चेन के जरिए वैक्सीन बॉम्बे से मद्रास (चेन्नई), पूना (पुणे), हैदराबाद और सूरत में भेजी गई थी. और फिर यह समुद्र के रास्ते कलकत्ता (कोलकाता) तक पहुंचाई गई.
तब चेचक के टीकाकरण को लोकप्रिय बनाने के लिए भारतीय चिकित्सा सेवा के अधिकारियों की ओर से लगातार प्रयास और खासा संघर्ष करना पड़ा था. लोगों में इसको लेकर खासा डर था. लोग धार्मिक आस्था और अन्य गलत धारणाओं के कारण वैक्सीन लगवाने से बचते थे.
लोगों के मन में वैक्सीन को लेकर उत्साह इसलिए भी कम था क्योंकि उस समय टीका लगवाने के बदले में कुछ भुगतान करना पड़ रहा था. एक तरह से यह टीकाकरण अभियान पेड वैक्सीनेशन पर आधारित था.
टीका लगाने के लिए पैसा
साथ ही एक अहम कारण यह भी था कि इस टीकाकरण अभियान में जिन्हें लगाया गया उसे टीकादार कहा जाता था और ऐसा माना जाता था कि उसे इस काम के लिए भुगतान टीका लगवाने वाले लोग ही करेंगे, और उनकी सैलरी तय नहीं की गई, लेकिन हुआ इसका उलटा.
लोग या तो टीका नहीं लगवाते या फिर पैसे की वजह से टीका लगवाने से इनकार कर देते. ऐसे में टीकादारों को पैसा नहीं मिलने की वजह से टीकाकरण के अभियान पर असर पड़ने लगा था, लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश सरकार अपने कदम पीछे करने को तैयार नहीं थी.
इस बीच सैलरी नहीं मिलने और लोगों की ओर से भी कुछ भुगतान नहीं किए जाने से खफा दार्जिलिंग के सभी टीकादार हड़ताल पर चले गए. इसके बाद सरकार ने नीति बदली और इनके लिए सैलरी की व्यवस्था की जिससे 'पेड वैक्सीनेटर्स' का कॉन्सेप्ट सामने आया. प्रांतीय सरकारों द्वारा वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में ग्रामीण क्षेत्रों में टीकाकरण अभियान के लिए 'पेड वैक्सीनेटर्स' को नियुक्त किया गया था. सरकार की ओर से इन्हें अब सैलरी दी जाने लगी थी. हालांकि 'पेड वैक्सीनेटर्स' की शुरुआत 19वीं सदी के दूसरे चरण में हुई थी.
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आर्म टू आर्म वैक्सीनेशन के लिए देश को 4 हिस्सों मद्रास, बॉम्बे, बंगाल और बर्मा (म्यांमार) में बांटा गया. स्कॉटिश सर्जन जॉन शूलब्रेड को भारत में चेचक वैक्सीनेशन अभियान का सुपरिंटेंडेंट जनरल बनाया गया. हालांकि वह 1804 में ही इस अभियान से जुड़ गए थे. लेकिन उनकी सक्रियता को देखते हुए 1807 में उन्हें सुपरिंटेंडेंट जनरल बना दिया गया. उनकी अगुवाई में चारों क्षेत्रों में सुपरिंटेंडेंट नियुक्त किए गए. फिर बड़ी संख्या में टीकादारों (वैक्सीनेटर्स) की भर्ती की गई और उन्हें प्रशिक्षित किया गया.
एक खास बात यह कि आज के दौर में जब कोरोना वैक्सीन को -70 डिग्री के तापमान में रखे जाने की बात हो रही है तो आज से 200 साल पहले उस दौर में वैक्सीन को बचाए रखने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ती थी. वैक्सीन की खोज करने वाले एडवर्ड जेनर की ओर से 1800 में वैक्सीन को समुद्र के रास्ते भारत भेजा गया लेकिन बेहद गर्म और आद्रता वाले जलवायु में यह जल्द ही खराब हो गए लेकिन फिर इसकी पैकेजिंग में सुधार किया गया और 1802 में भारत भेजा गया.