'वोट कटुआ' से लेकर किंगमेकर तक... बिहार चुनाव से पहले चिराग पासवान की वापसी से एनडीए में बेचैनी

चिराग पासवान की पार्टी के लिए 2020 के चुनाव में मिली हार का सबसे बड़ा सबक यह है कि वह इस बार अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते. 2020 के चुनाव में उनकी पार्टी को वोट कटवा कहा गया था. बिहार की राजनीति में अपनी जगह मजबूत करनी है तो चिराग का इस बार गठबंधन के साथ बने रहना जरूरी है.

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जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के प्रमुख चिराग पासवान (File Photo) जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के प्रमुख चिराग पासवान (File Photo)

अमिताभ तिवारी

  • नई दिल्ली,
  • 03 जून 2025,
  • अपडेटेड 6:37 PM IST

केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के प्रमुख चिराग पासवान ने बिहार चुनाव में विधायकी लड़ने के संकेत दिए हैं. इसके बाद पूरे राज्य में 'चिराग फॉर सीएम' के पोस्टर नजर आने लगे हैं. चिराग की पार्टी एलजेपीआर 33 विधानसभा सीटों के लिए दावेदारी कर रही है. इन सबके बीच राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में 2020 के बिहार चुनाव जैसी हलचल देखने को मिल रही है. चिराग का लक्ष्य पार्टी की पुरानी पहचान लौटाने के साथ ही नीतीश कुमार के बाद एनडीए में सीएम के लिए अपनी दावेदारी पेश करना भी है. एलजेपीआर के नेताओं का कहना है कि बीजेपी में अभी भी ऐसे नेता का अभाव नजर आता है, जिसकी पैन बिहार पकड़ हो और वह तेजस्वी यादव को सीधे मुकाबले में टक्कर दे सके.

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2020 में क्या हुआ था?

बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में चिराग पासवान 30 सीटें मांग रहे थे. डिमांड पूरी नहीं हुई, तो चिराग अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. चिराग खुद को पीएम मोदी का हनुमान बताते रहे और बीजेपी का समर्थन किया, लेकिन नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) के कोटे वाली सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए. तब उन्होंने बीजेपी के कई बागियों को भी टिकट दिया था, जिसके बाद उनके इस कदम के पीछे भगवा पार्टी का हाथ होने की बातें भी कही गईं. कथित तौर पर चिराग के इस कदम के पीछे एंटी एनडीए वोटबैंक के एक हिस्से को अपने पाले में कर महागठबंधन की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने की रणनीति थी. बहुत ही करीबी मुकाबले में महागठबंधन और एनडीए का वोट शेयर करीब-करीब बराबर (37 फीसदी) रहा था. 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा की 125 सीटों पर तब एनडीए को जीत मिली थी और महागठबंधन की गाड़ी तब 110 सीटों पर ही ठिठक गई थी.

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चिराग की अगुवाई वाली एलजेपी ने तब 137 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और 73 सीटों पर उसके उम्मीदवार जीत-हार के अंतर से अधिक वोट पाने में सफल रहे थे, जिनमें 40 सीटों पर एनडीए और 32 सीटों पर महागठबंधन के जीतने की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा था. चिराग की पार्टी के उम्मीदवार उतारने से जेडीयू को खासा नुकसान हुआ. नीतीश कुमार को सीएम कैंडिडेट बनाने के फैसले से नाखुश बीजेपी के वोटर्स का एक वर्ग जेडीयू के कोटे वाली सीटों पर एलजेपी के पक्ष में शिफ्ट हो गया. नतीजा ये रहा कि साल 2015 में 71 सीटें जीतने वाली जेडीयू 2020 में 43 पर आ गई. सीएम नीतीश कुमार ने खुद भी जेडीयू के संख्याबल में आई कमी के लिए चिराग पासवान और उनकी पार्टी को जिम्मेदार बताया था. 

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एलजेपी ने जेडीयू को 33 सीटों पर नुकसान पहुंचाया था. 28 ऐसी सीटों पर एलजेपी को मिले वोट जीत-हार के अंतर से अधिक वोट मिले, जहां जेडीयू दूसरे स्थान पर रही थी. चिराग की पार्टी पांच सीटों पर दूसरे स्थान पर रही और जेडीयू को तीसरे नंबर पर धकेल दिया. एलजेपी सिर्फ एक ही सीट जीत पाई, लेकिन जेडीयू का गणित बिगाड़ दिया.
 
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चिराग पासवान और नीतीश कुमार की पार्टियों के बीच असहज रिश्तों के पीछे एक ऐतिहासिक कारण भी है. 2005 के बिहार चुनाव में एलजेपी दलित मतदाताओं की पसंद बनकर उभरी थी. तब पार्टी को 12 फीसदी वोट शेयर के साथ 29 सीटों पर जीत मिली थी. तब बिहार के नतीजे त्रिशंकू रहे थे और किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं मिला था. सत्ता की चाबी एलजेपी के हाथ आई थी और रामविलास पासवान मुस्लिम सीएम की डिमांड पर अड़ गए थे. इसके छह महीने बाद फिर विधानसभा चुनाव हुए और तब एलजेपी ने वोट शेयर मेंटेन रखा, लेकिन पार्टी की सीटें घटकर 10 रह गईं और एनडीए को बहुमत के साथ बिहार में नीतीश युग की शुरुआत हो गई. नीतीश कुमार की सरकार ने राज्य महादलित आयोग की सिफारिश पर अमल करते हुए 2007 में हाशिए पर पड़ी एससी कैटेगरी की जातियों के लिए महादलित नाम से अलग वर्ग बना दिया.

नीतीश के इस कदम को रामविलास पासवान (चिराग पासवान के पिता) और उनकी पार्टी को कमजोर करने, दलित मतदाताओं के बीच अपनी जमीन बनाने की रणनीति से जोड़कर देखा गया. तब बिहार में 16 फीसदी दलित आबादी थी, जिसमें छह फीसदी दुसाध यानी पासवान थे. नीतीश सरकार ने पासवान को छोड़कर अन्य सभी दलित जातियों को महादलित का दर्जा दे दिया. इसका लाभ जेडीयू को मिला या नहीं, यह अलग विषय है लेकिन एलजेपी को नुकसान हुआ. 2010 के बिहार चुनाव में पार्टी का वोट शेयर पिछले चुनाव के 11 फीसदी से घटकर सात फीसदी पर आ गया, जो 2020 आते-आते छह फीसदी के करीब रह गया. एलजेपी की सीटें भी 2005 में 29 से घटकर 2010 में तीन और फिर 2020 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ एक रह गई. नीतीश युग में एलजेपी का दबदबा कम हुआ है क्योंकि वह महादलितों के नेता के रूप में उभरे हैं और पासवान परिवार की पकड़ सिर्फ़ अपनी जाति तक सिमट कर रह गई है.

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चुनावों में एलजेपी का प्रदर्शन

बिहार चुनाव में 2005 के बाद 2020 आते-आते एलजेपी के प्रदर्शन में गिरावट का ट्रेंड देखने को मिलता है. 2005 में अकेले चुनाव लड़ने वाली एलजेपी ने 2010 का चुनाव राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ मिलकर लड़ा और तीन सीटों पर सिमट गई. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले एलजेपी ने एनडीए का दामन थाम लिया और 2015 का विधानसभा चुनाव बीजेपी के साथ गठबंधन में लड़ा. 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी अकेले मैदान में उतर गई और एक सीट ही जीत सकी. विधानसभा चुनाव के विपरीत लोकसभा चुनावों में पार्टी का स्ट्राइक रेट सौ या इसके आसपास रहा है. 2014 में एलजेपी ने सात सीटों पर चुनाव लड़ा और छह जीतीं. 2019 में पार्टी ने छह में से छह, 2024 में पांच में से पांच सीटें जीतीं.

2020 की हार के सबक क्या

चिराग पासवान की पार्टी के लिए 2020 के चुनाव में मिली हार का सबसे बड़ा सबक यह है कि वह इस बार अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते. 2020 के चुनाव में उनकी पार्टी को वोट कटवा कहा गया था. बिहार की राजनीति में अपनी जगह मजबूत करनी है तो चिराग का इस बार गठबंधन के साथ बने रहना जरूरी है. यही वजह है कि एलजेपीआर कार्यकर्ताओं के अति उत्साह के बावजूद चिराग ने साफ कहा दिया है कि नीतीश कुमार ही सीएम फेस रहेंगे. चिराग की रणनीति एलजेपीआर के छह फीसदी वोटबैंक को बेस बनाकर पार्टी के लिए अधिक से अधिक सीटें हासिल करने, जीतने की है.

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चिराग पासवान का लक्ष्य अब अपने पिता की अगुवाई में पार्टी के 12.6 फीसदी वोट शेयर के स्तर तक पहुंचना, पार्टी को पुराना गौरव वापस दिलाना है. चिराग बस पासवान जाति तक सीमित पार्टी को फिर से पैन एससी पार्टी बनाना चाहते हैं. बिहार की जातिगत जनगणना 2023 के मुताबिक सूबे में पासवान समाज की आबादी 5.31 फीसदी है. अब एलजेपी ने चिराग के किसी सामान्य सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव पारित किया है, तो उसके पीछे गैर दलित मतदाताओं के बीच पार्टी की पैठ मजबूत करने की रणनीति भी वजह बताई जाती है. जेडीयू खेमे में चिराग की चुनावी एंट्री को नीतीश कुमार को कमजोर करने के लिए बीजेपी की एक और चाल के तौर पर भी देखा जा सकता है.

हो सकता है कि बिहार सरकार में डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी भी इस तरह की संभावनाओं से असहज हों, जिनकी महत्वाकांक्षा सीएम बनने की है. चिराग युवा हैं, पैन बिहार नेता माने जाते हैं और युवाओं के बीच लोकप्रिय भी हैं. सी-वोटर के सर्वे में चिराग को अप्रैल में 5.8 फीसदी लोगों ने अपनी पसंद बताया था, जो मई में बढ़कर 10.6 फीसदी हो गया है. वहीं, सम्राट चौधरी की लोकप्रियता अप्रैल के 12.5 फीसदी से गिरकर मई में 6.6 फीसदी पर पहुंच गई है.

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