डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर 50% टैरिफ लगा दिया गया है. अमेरिकी राष्ट्रपति के इस फैसले ने वैश्विक स्तर पर हलचल मचा दी है. लेकिन यह आक्रामक व्यापार रणनीति कोई नई क्रांति नहीं है. अमेरिका पिछले 236 वर्षों से टैरिफ को आर्थिक हथियार की तरह इस्तेमाल करता रहा है. कभी घरेलू उद्योगों की सुरक्षा के लिए, कभी सरकारी राजस्व जुटाने के लिए तो कभी विदेशी देशों को दबाव में लाने के लिए.
इसकी शुरुआत 1789 से होती है, जब अमेरिकी कांग्रेस ने पहला टैरिफ एक्ट पारित किया था. इसका मकसद था नए-नवेले देश के लिए राजस्व जुटाना और अमेरिकी उद्योगों को बढ़ावा देना. यहीं से अमेरिका में गहरी राजनीतिक दरारें पैदा हुईं. इस फैसले से उत्तर के उद्योगपति खुश थे कि विदेशी प्रतिस्पर्धा से सुरक्षा मिलेगी, जबकि दक्षिणी किसान जो आयात और कृषि निर्यात पर निर्भर थे, इसे अनुचित बोझ मानते थे.
एम्बार्गो अधिनियम था आर्थिक दबाव का शुरुआती प्रयोग
थॉमस जेफरसन, जो 1801 से 1809 तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे, कम टैरिफ के पक्षधर थे. उनका मानना था कि आयात शुल्क को न्यूनतम रखकर स्वतंत्र व्यापार को बढ़ावा दिया जा सकता है और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के लिए वस्तुएं सस्ती उपलब्ध रह सकती हैं. उनकी सीमित सरकार और न्यूनतम बाज़ार हस्तक्षेप की सोच आने वाले समय के संरक्षणवादी नेताओं (protectionist leaders) से बिल्कुल अलग थी. हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर भारी भरकम टैक्स लागू नहीं किए, लेकिन 1807 का उनका एम्बार्गो अधिनियम (Embargo Act), जिसने ब्रिटेन और फ्रांस के साथ टकराव से बचने के लिए समुद्री व्यापार पर रोक लगाई, अमेरिका के आर्थिक दबाव (economic coercion) के शुरुआती प्रयोगों का ही उदाहरण था.
हेनरी क्ले के सिस्टम से अमेरिका को मिली नई दिशा
वहीं हेनरी क्ले के 'अमेरिकन सिस्टम' ने 19वीं सदी की अमेरिकी आर्थिक सोच को नई दिशा दी. इस व्यवस्था की नींव तीन बातों पर रखी गई थी- सुरक्षात्मक आयात शुल्क, एक राष्ट्रीय बैंक और सरकार द्वारा बनाए जाने वाले सड़क, पुल और रेल जैसी आधारभूत संरचनाएं. क्ले का मानना था कि ऊंचे आयात शुल्क विदेशी सामान को महंगा कर देंगे, जिससे लोग अमेरिकी सामान खरीदने लगेंगे और देश की विदेशी निर्भरता घटेगी. उनकी यह सोच अब्राहम लिंकन तक पहुंची.
लिंकन ने टैरिफ को बनाया मजबूत हथियार!
अब्राहम लिंकन ने आयात शुल्क को केवल घरेलू उद्योग को बढ़ावा देने का साधन नहीं माना, बल्कि गृह युद्ध के दौरान सरकार के लिए धन जुटाने का भी मजबूत जरिया बनाया. 1861 का मॉरिल टैरिफ (Morrill Tariff) अब्राहम लिंकन के राष्ट्रपति बनने से ठीक पहले पास हुआ था. इस कानून ने आयात पर लगने वाले शुल्क को लगभग 15% से बढ़ाकर 37.5% कर दिया, जो बाद में 47% से भी ऊपर पहुंच गया. लिंकन की यह संरक्षणवादी नीति (protectionist policy) उत्तर और दक्षिण राज्यों के बीच की खाई को और गहरा कर गई. जहां औद्योगिक उत्तर राज्य को इसका फायदा मिला, वहीं कृषि पर निर्भर दक्षिणी राज्य पर इसका बोझ ज़्यादा पड़ा. लिंकन ने अपने पहले शपथ ग्रहण भाषण में तो यहां तक कहा कि अगर कोई टैरिफ़ देने से इंकार करेगा, तो सरकार सैन्य कार्रवाई तक कर सकती है.
मैकिनले ने लगाया था इतिहास से सबसे अधिक टैरिफ
विलियम मैकिनले, जिन्हें डोनाल्ड ट्रंप ने भी अपनी प्रेरणा बताया है, ने टैरिफ को अमेरिकी नीति का अहम हिस्सा बना दिया. हाउस वेज एंड मीन्स कमेटी के चेयरमैन रहते हुए उन्होंने 1890 का मैककिन्ले टैरिफ एक्ट बनाया, जिसके तहत आयात पर लगने वाले औसत शुल्क को लगभग 50% तक बढ़ा दिया गया था. इसका मकसद अमेरिका में उभरते उद्योगों जैसे स्टील, कपड़ा और टिन को दूसरे देशों से आने वाले सस्ते मजदूरों से बचाना था. इसके बाद 1897 में वह डिंगली टैरिफ लेकर आए. जिसने दरों को करीब 57% तक पहुंचा दिया. यह अब तक के अमेरिकी इतिहास का सबसे ऊंचा आयात शुल्क माना जाता है.
जब ऊंचे टैरिफ से अमेरिका को लगा था तगड़ा झटका
हालांकि 1930 का स्मूट-हॉले टैरिफ यह दिखाता है कि ज़्यादा टैरिफ लगाने से कितना बड़ा नुकसान हो सकता है. पूर्व राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर द्वारा लाए गए इस कानून के तहत 20,000 से ज्यादा सामानों पर भारी शुल्क लगा दिया गया था. नतीजा यह हुआ कि बाकी देशों ने भी अमेरिका के खिलाफ बदले की कार्रवाई शुरू कर दी. अंतरराष्ट्रीय व्यापार तेज़ी से घट गया और महामंदी और भी गहरी हो गई. सिर्फ़ दो साल में अमेरिका का आयात 40% तक गिर गया, जिससे साफ हो गया कि टैरिफ न सिर्फ़ दूसरों को बल्कि अपने ही देश की अर्थव्यवस्था को भी चोट पहुंचा सकते हैं.
अमेरिका ने चीन पर टैरिफ को हथियार बनाया
शीत युद्ध (Cold War) के दौर में अमेरिका ने टैरिफ के साथ-साथ प्रतिबंधों (sanctions) का भी इस्तेमाल किया. उसने क्यूबा, सोवियत संघ और उत्तर कोरिया जैसे दुश्मन देशों पर व्यापार रोक (embargo) और संपत्तियां फ्रीज करने जैसे कदम उठाए. 21वीं सदी में जब चीन की ताकत बढ़ने लगी, तो अमेरिका ने एक बार फिर टैरिफ को हथियार बना लिया. अलग-अलग सरकारों ने चीन पर सब्सिडी, बौद्धिक संपदा चोरी और मुद्रा में हेरफेर जैसे आरोप लगाकर शुल्क लगाए.
अमेरिकी टैरिफ से सामने भारत की मजबूत रणनीति
अब डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर लगाए गए नए टैरिफ, विशेष रूप से रूसी तेल आयात से जुड़े, उसी सदियों पुराने अमेरिकी प्लेबुक का हिस्सा हैं, जिसमें हमेशा आर्थिक दबाव बनाकर नीतिगत झुकाव लाने का प्रयास किया गया है. लेकिन भारत का जवाब टैक्स सुधारों, औद्योगिक प्रोत्साहन और आत्मनिर्भरता अभियानों के माध्यम से यह दिखाता है कि मजबूत रणनीति से इन कठोर टैरिफों का असर कम किया जा सकता है.
इतिहास बताता है कि टैरिफ तभी सफल होते हैं जब लक्ष्य देश कमजोर हो या पूरी तरह निर्भर हो. भारत का यह रुख साफ संकेत है कि अमेरिकी आर्थिक दबाव को चुनौती दी जा सकती है और साथ ही राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा भी की जा सकती है.