सऊदी अरब और क़तर के बाद शुक्रवार को संयुक्त अरब अमीरात (UAE) दौरे के साथ डोनाल्ड ट्रंप का खाड़ी देशों का दौरा ख़त्म हुआ. ट्रंप का ये दौरा इसलिए भी इंटरनेशनल लेवल पर सुर्ख़ियों की वजह बना, क्योंकि राष्ट्रपति की कुर्सी पर दूसरी बार बैठने के बाद उन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए खाड़ी देशों को चुना. ट्रंप के मुताबिक़, इस यात्रा के दौरान 'खरबों डॉलर के इन्वेस्टमेंट और सौदों' पर समझौते हुए.
इस यात्रा में सबसे बड़ा क़दम सीरिया से प्रतिबंध हटाने का रहा, जहां असद सरकार के तख़्तापलट के बाद इस्लामिक स्टेट (IS) के पूर्व सहयोगी रहे अहमद अल-शरा अंतरिम राष्ट्रपति बने हुए हैं.
एक टेलीविजन संबोधन में अल-शरा ने कहा, "अमेरिकी राष्ट्रपति का फैसला एक ऐतिहासिक और साहसी फैसला है, जो लोगों की पीड़ा को कम करता है और इलाक़े में स्थिरता की नींव क़ायम करता है."
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सऊदी अरब की राजधानी रियाद में हुए 'सऊदी-यूएस इन्वेस्टमेंट फोरम' में बोलते हुए कहा, "मेरी सबसे बड़ी उम्मीद शांति स्थापित करने वाला और सबको एक करने वाला बनना है. मुझे जंग नहीं पसंद है. वैसे, हमारे पास दुनिया के इतिहास की सबसे बड़ी सेना है. कुछ ही दिन पहले, मेरे एडमिनिस्ट्रेशन ने भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव को रोकने के लिए ऐतिहासिक सीज़फायर करवाया."
जब संघर्ष से जूझ रहे दो देशों के बीच ट्रंप के द्वारा मध्यस्थता का मसला आता है, तो इज़रायल-फ़िलिस्तीन और रूस-यूक्रेन का भी ज़िक्र होता है. इन देशों के मसलों पर पिछले दिनों ट्रंप कई तरह की बयानबाज़ी और दावे कर चुके हैं. ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या ट्रंप सचमुच जंग के ख़िलाफ़ हैं या फिर इसके पीछे की कुछ और वजह है?
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफ़ेसर मोहम्मद मोहिबुल हक़ aajtak.in के साथ बातचीत में कहते हैं, "सबसे पहले अमेरिका की विदेश नीति को समझने की ज़रूरत है कि व्हाइट हाउस में कोई ब्लैकमेन बैठा हो या व्हाइटमेन, उससे फ़र्क़ नहीं पड़ता है क्योंकि यूएस की फॉरेन पॉलिसी में कुछ चीज़ें मुसलसल रही हैं. मौजूदा वक़्त में अमेरिका हथियारों का सबसे बड़ा सप्लायर है और ट्रंप इससे समझौता नहीं कर सकते हैं. अगर ट्रंप पीसमेकर बनेंगे तो उनकी आर्म्स इंडस्ट्री का क्या होगा. ये पूरी तरह से नामुमकिन है, ये सिर्फ़ दिखावा है. अमेरिका की शर्तों पर अगर शांति क़ुबूल की जाए, तो वो शांति होगी वर्ना वो शांति नहीं होगी. ये शांति नहीं बल्कि डिप्लोमेसी है, जो ट्रंप कमज़ोर शक्तियों के ख़िलाफ़ एक्सरसाइज़ करना चाहते हैं."
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) में प्रोफे़सर और अमेरिकी मामलों की जानकर डॉ. अंशू जोशी कहती हैं, "ट्रंप अपना दबदबा क़ायम करने लिए अपने राष्ट्रीय हित का ख़याल रखते हुए ये सारे फ़ैसले ले रहे हैं. वो मौजूदा वक़्त में पश्चिमी एशियाई क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना चाह रहे हैं. ईरान पर नियंत्रण चाह रहे हैं, जो सीरिया का पुराना दोस्त रहा है. वहीं, सीरिया की बात करें, तो वह एंटी-इज़रायल है और प्रॉक्सीज़ की मदद करता है. सीरिया से प्रतिबंध हटाकर, ट्रंप इस इलाक़े में अब दबदबा चाह रहे हैं और ईरान का असर कम करना चाहते हैं. तुर्की ट्रंप के साथ है और वो भी खाड़ी देशों से ज़्यादा अपना दबदबा बढ़ाना चाहता है."
इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफ़ेयर्स (ICWA) के फ़ेलो और विदेशी मामलों के जानकार डॉ. फ़ज़्ज़ुर्रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं, "शांति स्थापित करना ट्रंप के इलेक्शन कैंपेन का हिस्सा था. कहीं न कहीं ट्रंप हाइलाइट करना चाहते हैं कि वो अमेरिका के ऐसे राष्ट्रपति हैं, जिनको शांति पसंद है. क्योंकि अमेरिका का इतिहास हस्तक्षेप और डिमोलिशन का रहा है. इस सिनेरियों में आप अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया, यमन और सोमालिया जैसे देशों पर नज़र डालेंगे तो अमेरिका हस्तक्षेप करने वाला और विनाशकारी मुल्क के तौर पर दिखेगा. ट्रंप इससे ख़ुद को अलग करना चाहते हैं."
'ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम से परेशानी और इज़रायल पर ख़ामोशी...'
प्रोफ़ेसर मोहिबुल हक़ कहते हैं, "ट्रंप ने कहा था कि हम ग़ाज़ा पर क़ब्ज़ा कर लेंगे और इसका विकास करेंगे, जो पूरी तरह से ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान है. वो ग़ाज़ा के हालात पर क्रिमिनल साइलेंस मेनटेन करते हैं और इज़रायल की आलोचना नहीं करते. दूसरी तरफ़, अब वो बोल रहे हैं कि मैं पीसमेकर बनना चाहता हूं."
वे आगे कहते हैं, "ईरान को लेकर यूएस पॉलिसी पर ध्यान देने की ज़रूरत है. ईरान पर प्रतिबंध, ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम से ट्रंप को परेशानी है, लेकिन इज़रायल के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर ख़ामोश रहते हैं. अगर इज़रायल को अधिकार मिलता है, तो ईरान को भी मिलना चाहिए. रूस-यूक्रेन मसले पर ट्रंप कहते हैं कि उन्होंने बातचीत करवाने की कोशिश की लेकिन इसके साथ ही हथियारों की सप्लाई और रूसी संघ के ख़िलाफ़ यूएस का प्रॉक्सी वॉर मुसलसल जारी है."
डॉ. फ़ज़्ज़ुर्रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं, "अमेरिका ने जहां-जहां सिक्योरिटी प्रोवाइड करवाई, उसका फ़ायदा लेने वाला कोई और है. सिक्योरिटी के बदले में दुनिया ने अमेरिका को कुछ भी नहीं दिया. ट्रंप एक बिज़नेसमैन हैं, वे हर पहलू को उसी नज़रिए से देखते हैं. वो एक तरह से 'पीस फॉर मनी' की बात करते हैं. ट्रंप ये कहना चाहते हैं कि अगर आप शांति चाहते हैं, तो आपको किसी ना किसी बहाने पैसा देना होगा. ट्रंप के कहने पर फ्रांस और जर्मनी ने अपने डिफेंस बजट भी बढ़ा दिए."
प्रोफ़ेसर मोहिबुल हक़ कहते हैं, "यूएस की पॉलिसी में इज़रायल को सपोर्ट मिलने की बातें हैं. बिना न्याय के शांति नहीं हो सकती है. इंटरनेशनल जस्टिस के बिना इंटरनेशनल पीस मुमकिन नहीं है. अगर आप कमज़ोर शक्तियों को धमकाकर इज़रायल की बात मानने को मजबूर करेंगे, तो यह न्याय नहीं है. ज़ेलेंस्की के सामने भी ट्रंप ने रूसी संघ के द्वारा क्रीमिया पर क़ब्ज़े को मानने की शर्त रखी थी."
डोनाल्ड ट्रंप ने यह ऐलान किया कि उनके द्वारा दौरा किए गए तीन देशों- कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के बीच 2 ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा का आर्थिक निवेश हुआ है, क्योंकि ये तीनों देश लंबे वक़्त से अमेरिकी सैन्य उपकरणों के ख़रीदार हैं. ट्रंप ने कहा कि इन तीन देशों से निवेश 4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है.
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, डोनाल्ड ट्रंप ने कहा, "ईरान ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौते की शर्तों पर 'एक तरह से' सहमति जताई है."
ट्रंप ने पिछले दिनों पूरी हुई दोनों देशों के बीच वार्ता को 'दीर्घकालिक शांति' के लिए 'बेहद गंभीर वार्ता' बताया. इससे पहले, ईरान के सर्वोच्च नेता के एक सलाहकार ने एनबीसी न्यूज को बताया कि तेहरान प्रतिबंधों को हटाने के बदले में अपने परमाणु कार्यक्रम पर रियायतें देने को तैयार है. खाड़ी दौरे के दूसरे पड़ाव कतर में गुरुवार को बोलते हुए, ट्रंप ने कहा कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर समझौता होने वाला है. इससे यह भी उम्मीद जताई जा सकती है कि सीरिया के बाद अब ईरान के ऊपर लगे प्रतिबंधों को कम करने के बारे में ट्रंप सोच रहे हैं.
डॉ. फ़ज़्ज़ुर्रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं, "ग्लोबल पॉलिटिक्स में ट्रांसफ़ॉर्मेशन चल रहा है. दुनिया में मौजूदा वक़्त का दौर Money Making Era है. ट्रंप ये कहना चाह रहे हैं कि इस दौर में कॉन्फ्लिक्ट की कोई जगह नहीं है. क्योंकि जब शांति होगी, तो और ज़्यादा चीज़ों पर नेगोसिएशन मुमकिन होगा. इसके बाद अमेरिका की इकोनॉमी को ख़ास फ़ायदा मिलेगा और अमेरिका अन्य देशों से अपने मुताबिक़ काम करवा सकेगा."
वे आगे कहते हैं कि मौजूदा वक्त में मिस्र, जॉर्डन, सीरिया और लीबिया जैसे देशों में अराजकता है. अगर इन देशों में शांति होती, तो ट्रंप यहां भी वही करते है, जो उन्होंने सऊदी के साथ किया है. ट्रंप बता रहे हैं कि उनकी पॉलिटिक्स में डिप्लोमेसी जगह नहीं है.
डोनाल्ड ट्रंप के द्वारा भारत-पाकिस्तान सीज़फ़ायर करवाने का दावा करने के बाद, शिवसेना (UBT) की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने कहा, "भारत और पाकिस्तान की तुलना करके उन्होंने हमारे देश के खिलाफ बोला है. एक तरफ हमारे पास बुद्धिमान भारत है, तो दूसरी तरफ बेतुका देश है जिसके बेतुके नेता हैं, जिनका नियंत्रण पाकिस्तानी सेना ने छीन लिया है. डोनाल्ड ट्रंप को उम्मीद है कि लगातार ऐसे बयान देने से उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिल जाएगा."
डॉ. फ़ज़्ज़ुर्रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं, "अगर कोई यह कहता है कि ट्रंप यह सब नोबेल प्राइज़ के लिए कर रहे हैं, तो मैं इसको बहुत हल्की बात समझता हूं क्योंकि यूएस के एक राष्ट्रपति के लिए ये बहुत आम सी बात है. ट्रंप जिस दौरान गल्फ़ विज़िट पर गए, उसी दौरान फ़िलिस्तान में इज़रायल के हमले से जनवरी के बाद एक बार में सबसे ज़्यादा मौतें हुई हैं."
वे आगे कहते हैं कि मिडिल ईस्ट में अमेरिका की तरफ़ से सबसे ज़्यादा विनाशकारी और ख़तरनाक सियासत 2008 से 2016 के दौरान सीरिया से लेकर लीबिया, ट्यूनीशिया और यमन तक रही है. ये ओबामा का दौर था और ओबामा को नोबेल प्राइज़ भी मिला था.
वहीं, मोहिबुल हक़ कहते हैं, "जब इज़रायल के प्रधानमंत्री को नोबेल प्राइज़ मिल सकता है, तो ये कहना कि ट्रंप शांति की बात करके पुरस्कार हासिल करना चाहते हैं, सही नहीं है. दुनिया में ज़्यादा युद्ध अमेरिका की वजह से हुआ है और इसके कई राष्ट्रपतियों को नोबेल प्राइज़ मिल चुका है. ट्रंप एक बिज़नेसमैन हैं और उनकी हसरत है कि अमेरिका की इकोनॉमी बेहतर हो. वे इसी के लिए ऐसे फ़ैसले ले रहे हैं."
वे आगे कहते हैं कि ट्रंप टैरिफ़ वॉर में जिस तरह से बैकफुट पर आए हैं, इससे ये समझ आ गया है कि दुनिया यूनीपोरल वर्ल्ड नहीं, बल्कि मल्टीपोरल वर्ल्ड है, जिस पर सिर्फ़ अमेरिका के द्वारा डिक्टेड नहीं की जा सकती है.