गुरु गोलवलकर हमेशा इस बात को लेकर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की तारीफ करते रहे कि कम से कम उन्होंने जवाहर लाल नेहरू की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अछूत नहीं माना था. जब 1965 का भारत-पाक युद्ध हुआ तो ऑल पार्टी मीटिंग में संघ प्रमुख के तौर पर उन्हें भी सलाह लेने के लिए आमंत्रित किया था. उनसे सहयोग भी मांगा. जबकि संघ कोई राजनैतिक दल नहीं था, फिर भी सभी दलों के साथ बुलाया था. बावजूद इसके कई बातों पर वो शास्त्री से खुश नहीं थे, भारत पाक युद्ध में भी ना वो सीज फायर के फैसले से खुश थे और ना ही ताशकंद में हुए भारत-पाक समझौते में शास्त्रीजी के जाने पर. बल्कि उन्हें रोका भी था. काश वो रुक जाते. ऐसे ही कई और मुद्दे भी थे.
गोलवलकर ने घुसपैठियों से मुक्ति का फॉर्मूला शास्त्री को बताया
गुरु गोलवलकर की मुलाकात एक बार लाल बहादुर शास्त्री से हुई थी, जब शास्त्री गृह मंत्री थे. इस मुलाकात से पहले ही दिल्ली में एक बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हजारों प्रदर्शनकारियों ने असम में बांग्लादेश की घुसपैठ के विरोध में ‘हिंदुओ, जागो’ लिखे बैनर लहराए थे. इस पृष्ठभूमि में, स्वाभाविक रूप से यह सवाल बैठक में उठा. शास्त्री ने कहा कि, “मुस्लिम घुसपैठियों की पहचान करना मुश्किल है, क्योंकि वे स्थानीय मुसलमानों के साथ घुलमिल गए हैं”. तब गुरु गोलवलकर ने सुझाव दिया कि स्थानीय नागरिकों को चेतावनी दी जानी चाहिए कि घुसपैठियों को शरण देने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी और उन्हें मताधिकार से वंचित कर दिया जाएगा. अगर वे जवाब नहीं देते हैं, तो उन्हें भी निकाल दिया जाएगा. उसी समय, गोलवलकर ने शास्त्रीजी से कहा, “शायद आप ऐसा नहीं कर पाएंगे, क्योंकि यह कांग्रेस पार्टी के चुनावी गणित के अनुरूप नहीं है.” अंततः, ठीक यही हुआ. समय बीतने के साथ-साथ, यह समस्या और भी गंभीर होती चली गई.
नेपाल के राजा के मामले में शास्त्री राजी थे नेहरू विरोध में
जब नेपाल के राजा ने लोकतांत्रिक सरकार का प्रयोग करके देखा और बाद में उसे भंग कर दिया तो भारत ने उससे रिश्ते एक तरह से खत्म कर दिए थे. लेकिन गुरु गोलवलकर को भारत-नेपाल के प्राचीन और सांस्कृतिक रिश्तों की चिंता थी. उनकी प्रबल इच्छा थी कि नेपाल और भारत के बीच घनिष्ठ संबंध फिर से स्थापित हों, क्योंकि दोनों देशों की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं एक समान थीं. उन्होंने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान इस संबंध में राजा से बात की. राजा ने इस विचार को सहर्ष स्वीकार कर लिया. गुरु गोलवलकर ने राजा से संघ के किसी समारोह में भाग लेने के लिए भारत आने का अनुरोध किया. राजा सहर्ष सहमत हो गए और गोलवलकर ने उन्हें आश्वासन दिया कि उनकी स्वीकृति दिल्ली स्थित सरकारी नेताओं को बता दी जाएगी. गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री 1 मार्च, 1963 को काठमांडू आने वाले थे. गुरु गोलवलकर ने राजा से दोनों देशों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों को मजबूत करने के उद्देश्य से उनसे खुलकर बातचीत करने का अनुरोध किया.
भारत लौटते ही गुरु गोलवलकर ने लाल बहादुर शास्त्री और पंडित नेहरू को पत्र लिखा. नेपाल के राजा से हुई अपनी मुलाकात और स्थिति के आकलन के बारे में उन्होंने लिखा. “यदि हम नेपाल के साथ अपने संबंधों को सुधारें, उसे उचित सम्मान दें, उसके साथ अपने मैत्रीपूर्ण संबंधों को मजबूत करें और उसकी शैक्षिक, आर्थिक और अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखें, तो वह देश वास्तव में हमारा मजबूत और भरोसेमंद सहयोगी और हमारी सीमाओं का रक्षक बन सकता है. चूंकि हमारे सभी हित आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं, इसलिए हमारी अपनी सुरक्षा की दृष्टि से भी दोनों देशों के बीच सच्चे और मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना आवश्यक है. दोनों देशों के बीच जो कड़वाहट पैदा हुई है, वह भारतीय अधिकारियों के जानबूझकर या अनजाने में उदासीन और असंवेदनशील रवैये के कारण है. उसे दूर किया जाना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो ऐसे अधिकारियों को अधिक संवेदनशील अधिकारियों से बदला जाना चाहिए. मुझे कोई संदेह नहीं है कि आप इन सभी कारकों को ध्यान में रखेंगे और भारत-नेपाल संबंधों को एक मजबूत और मैत्रीपूर्ण आधार पर स्थापित करने में सफल होंगे.”
बाद में, 1965 में अटल बिहारी वाजपेयी ने शास्त्री से जब मुलाकात की तो शास्त्री ने गुरु गोलवलकर की उद्देश्यपूर्ण नेपाल यात्रा की दिल से प्रशंसा की. उन्होंने कहा कि गुरु गोलवलकर ने वहां अनुकूल वातावरण बनाकर भारत-नेपाल मित्रता को मजबूत करने के अपने कार्य का तीन-चौथाई भाग पहले ही पूरा कर लिया है. हालांकि बाद में पंडित नेहरू को ये अच्छा नहीं लगा कि कोई राष्ट्राध्यक्ष भारत आकर किसी गैरसरकारी संगठन के कार्यक्रम में भाग ले. नेपाल के राजा को कई बार की कोशिशों के बाद भी उन्हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली. तब नेपाल के राजा महेन्द्र ने संघ के कार्यक्रम के लिए अपना संदेश एक पत्र में भेजा था. हालांकि बाद में पंडित नेहरू और शास्त्री ने नेपाल से रिश्ते सुधार लिए थे. गुरु गोलवलकर इसी बात से खुश थे कि कम से कम उस पहल का उद्देश्य तो पूरा हुआ.
सीजफायर की खबर सुनकर निराश हो गए थे गुरु गोलवलकर
पाक के खिलाफ अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद, दिल्ली में सरकार ने सेना की विजयी बढ़त को रोक दिया, जाहिर तौर पर पश्चिमी और रूसी दबाव के कारण. गुरु गोलवलकर सरकार के इस फैसले से बेहद दुखी हुए. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पाकिस्तान को सबक सिखाने और उसकी कमर तोड़ने का इतना सुनहरा मौका गंवाना एक बड़ी भूल थी. जब युद्धविराम की घोषणा हुई, तो उन्होंने कहा कि यह सिर्फ एक अंतराल है, पाकिस्तान को पुनः हथियारबंद होने और उचित समय पर फिर से हमला करने का मौका दिया गया है.
केन्द्र सरकार ने युद्धविराम को उचित ठहराते हुए कहा था कि उसका पाकिस्तानी क्षेत्र पर कब्जा करने का कोई इरादा नहीं है. इस रुख की कड़ी आलोचना करते हुए गुरु गोलवलकर ने कहा कि यह मानव स्वभाव के एक मूलभूत पहलू की अनदेखी करता है, जो यह है कि कोई व्यक्ति केवल इसलिए हिंसक या आक्रामक नहीं हो जाता क्योंकि उसके पास हिंसा करने के हथियार हैं, बल्कि इसलिए कि उसके स्वभाव में निहित हिंसा का तत्व, क्रूरता ही उसे ऐसा करने के लिए उकसाती है. इसलिए, जब तक यह क्रूर प्रवृत्ति बनी रहेगी, व्यक्ति बार-बार हथियार जमा करता रहेगा और दूसरों के प्रति बुरे और आक्रामक विचार रखता रहेगा.
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सभी आक्रामक राष्ट्रों का इतिहास इसी तथ्य को उजागर करता है. समस्या यह है कि इस दुष्ट मनोवृत्ति को कैसे समाप्त किया जाए? यह मात्र कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जिसे नष्ट किया जा सके. यह किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के माध्यम से प्रकट होती है. इसलिए यदि हम इस बुराई को नष्ट करना चाहते हैं, तो ऐसे लोगों के समूह की बुनियाद को ही नष्ट करना आवश्यक हो जाता है, जो इसे आश्रय देते हैं.
साथ ही गुरु गोलवलकर ने यह भी बताया कि पाकिस्तान की युद्ध क्षमता ब्रिटेन और अमेरिका पर निर्भर करती है, और इन देशों की युद्ध क्षमता को नष्ट करना स्पष्ट रूप से भारत की क्षमता से परे है. भारत की विदेशी क्षेत्र पर कब्ज़ा करने की इच्छा न होने के दावे की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि यह तथाकथित विदेशी क्षेत्र अठारह वर्ष पहले भारत का अभिन्न अंग था. पाकिस्तान ने कश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर जबरन कब्ज़ा कर लिया था; इसलिए पाकिस्तान को हराने का मतलब केवल अपने क्षेत्र को पुनः प्राप्त करना होगा. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “वास्तव में हमारा स्वतंत्रता संग्राम तब तक सफल नहीं होगा जब तक हम पूरे पाकिस्तान को मुक्त नहीं करा लेते. दुनिया क्या कहेगी, इस बात की चिंता करने का कोई मतलब नहीं है.”
गुरु गोलवलकर ने तर्क दिया कि यदि यह संभव नहीं है, तो कम से कम युद्धविराम रेखा को उस बिंदु पर निर्धारित किया जाना चाहिए जहां तक भारतीय सेना पाकिस्तान में घुसपैठ कर चुकी थी और वही नियम भारत पर लागू किया जाना चाहिए जो संयुक्त राष्ट्र ने 1949 में कश्मीर पर लागू किया था. भारत सरकार ने ऐसी किसी भी सलाह पर ध्यान नहीं दिया.
ताशकंद जाने के फैसले से भी सहमत नहीं थे गोलवलकर
गोलवलकर का मत था कि शास्त्री का वार्ता के लिए ताशकंद जाना उचित नहीं था. फिर भी, वे गए और रूसी दबाव में एक संधि का मसौदा तैयार किया गया. ताशकंद में शास्त्री की रहस्यमय मृत्यु हो गई. युद्ध के मैदान में वीर जवानों द्वारा जो कुछ हासिल किया गया था, वह वार्ता की मेज पर व्यर्थ चला गया. गुरु गोलवलकर इसे अत्यंत व्यथित थे. दिसंबर 1965 में ताशकंद वार्ता से कुछ समय पहले दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था: "मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री को ताशकंद नहीं जाना चाहिए. रूस ने पाकिस्तानी आक्रामकता की निंदा नहीं की है, उसने हमलावर और हमलावर के शिकार दोनों को एक ही पायदान पर रखा है और उन्हें बातचीत के लिए बुलाया है।" उन्होंने तर्क दिया कि जब तक पाकिस्तान आक्रामक रुख अपनाए रहेगा और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने से इनकार करता रहेगा, तब तक ऐसी मध्यस्थता का कोई लाभ नहीं होगा. गोलवलकर ने सोवियत संघ (जिसने वार्ता की मेजबानी की), संयुक्त राष्ट्र और राष्ट्रमंडल जैसे अंतरराष्ट्रीय निकायों की पाकिस्तान के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैये की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने तभी हस्तक्षेप किया जब भारत को बढ़त मिली (उदाहरण के लिए, लाहौर की ओर बढ़ना)
10 जनवरी 1966 को ताशकंद घोषणापत्र पर हस्ताक्षर होने के बाद, गोलवलकर के नेतृत्व में पारित आरएसएस के एक प्रस्ताव में इसकी कड़ी निंदा करते हुए इसे भारत के हितों के लिए हानिकारक बताया गया. प्रस्ताव में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि यह समझौता भारत-पाकिस्तान संबंधों को सुधारने में विफल रहा, इसने पाकिस्तान को एकतरफा व्याख्या करने की अनुमति दी और वापसी के दौरान अत्याचारों को जन्म दिया. लेकिन अगले दिन ही जब शास्त्री की रहस्यमयी ढंग से निधन की खबर आई तो सारे गिले शिकवे मानो उनके साथ ही चले गए.
चीन से हार के बाद नेहरू-शास्त्री को निशाने पर लिया
गुरु गोलवलकर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर बहुत संवेदनशील थे. यूं शांत रहते थे, लेकिन चीन से हार के बाद उनका गुस्सा देखने लायक था. जब युद्ध में हार को लेकर सैन्य तैयारियों को लेकर उन्होंने ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में अपने एक लेख में नेहरूजी पर निशाना साधा तो लपेटे में गृहमंत्री शास्त्री का भी एक बयान आ गया था. गुरु गोलवलकर ने लिखा कि, “हमारे प्रधानमंत्री ने खुलकर ये स्वीकारा कि चीन ने हमें जगाकर सपनों की दुनिया से निकालकर वास्तविक दुनिया में ला दिया है. लेकिन एक जगह वो अपनी इस वास्तविकता की अनुभूति को ये कहते हुए व्यक्त करते हैं कि हम ताकत के बिना नहीं जी सकते और अगर यह आती है तो हम लाठियों से भी लड़ लेंगे. और हमारे गृहमंत्री शास्त्री कहते हैं कि हम अब कभी भी लापरवाह नहीं होंगे. इसका मतलब वो अब तक लापरवाही बरत रहे थे.”
हालांकि आगे उन्होंने लिखा कि उनके बयानों से कम से कम ये राहत तो मिली है कि उनकी समझ में ये तो आया कि संघर्षों की इस दुनिया में दुनिया वाले ताकत की भाषा ही समझते हैं. आशा करता हूं कि आगे उनकी ये वर्तमान समझ जल्द नहीं जाएगी.
भारत सरकार ने जर्मनी की सहायता से जून 1959 में जबलपुर आर्म्स फैक्ट्री में शक्तिमान ट्रक का निर्माण शुरू किया था. इस ट्रक को लेकर कहा जाता था कि इससे बेहतर तो आम ट्रक हैं, लेकिन फिर भी ये ट्रक 90 के दशक तक चलता रहा था. गुरु गोलवलकर ने अपने लेख में उसे भी निशाने पर लिया था, “हमने अखबारों में पढ़ा है कि हमारी आर्म्स फैक्टियां ‘कॉफी क्रशर्स और प्लास्टिक बैग’ बनाती हैं, उन्होने एक ऐसा ट्रक भी बनाया है, जो साधारण ट्रक से भी कमजोर है और उसे नाम दिया है ‘शक्तिमान’ और शक्तिमान ट्रक का पहला ट्रायल ही फेल हो गया. लेकिन अब लगता है हमारे प्रधानमंत्री ने कई सैनिकों की जान की कीमत पर सबक सीख लिया है”.
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