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तीन नदियों का संगम, महादेव-श्रीराम और राजिम माई का मंदिर... छत्तीसगढ़ में भी लगता है एक कुंभ मेला

सोंढूर-पैरी-महानदी इन तीन नदियों के त्रिवेणी संगम तट पर बसा राजिम प्राचीनकाल से छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख तीर्थस्थल है. लोगों की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक सम्पूर्ण नही होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नही कर लेता. कहते हैं माघ पूर्णिमा के दिन स्वयं भगवान जगन्नाथ पुरी से यहां आते हैं.

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प्रयागराज की ही तरह छत्तीसगढ़ के राजिम में भी लगता है एक कुंभ मेला
प्रयागराज की ही तरह छत्तीसगढ़ के राजिम में भी लगता है एक कुंभ मेला

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) का प्रयागराज जब इस वक्त देशभर के साधु-संन्यासियों और श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना हुआ है, तो ऐसे में याद आ जाता है देश का एक और राज्य छत्तीसगढ़. जल-जंगल और जमीन की भूमिका वाला यह राज्य भारत की वन संपदा का प्रमुख सोर्स तो रहा है है, साथ ही इसे संस्कृतियों के संरक्षण का भी केंद्र कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. इस राज्य में प्राचीन मान्यताओं और परंपराओं के जीवित बचे रहने की झलक है और इन्हीं परंपराओं के बीच यहां फलता-फूलता रहा कुंभ मेला. 

छत्तीसगढ़ में भी लगता है एक कुंभ

यह चौंकने वाली बात जरूर है, जिस कुंभ का जिक्र करते हुए सिर्फ हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन का ही जिक्र होता है, तो वह छत्तीसगढ़ में कैसे? इस सवाल का जवाब राजधानी रायपुर से दक्षिण-पूर्व में करीब 45 किमी की दूरी पर मौजूद है, जिसे राजिम तीर्थ के नाम से जाना जाता है. यहां भी त्रिवेणी संगम पर हर साल माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक लाखों श्रद्धालु जुटते हैं और राममय हो जाते हैं. यह राजिम तीर्थ भगवान श्रीराम को समर्पित है और उनके ही एक नाम 'राजीव लोचन राम' का नाम पर स्थापित है. यहां पर राजीव लोचन मंदिर स्थित है, जिसे इतिहासकार आठवीं सदी का बताते हैं. माता कौशल्या श्रीराम को राजीव नयन कहा करती थीं, क्योंकि उनके नेत्र कमल के समान थे.

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क्या है राजीव लोचन मंदिर की मान्यता?

इस मंदिर को लेकर एक जनश्रुति भी है. कहते हैं कि इस मूर्ति का निर्माण खुद विश्वकर्मा ने किया था. यह क्षेत्र दंडकारण्य में शामिल था और सतयुग-त्रेता के दौरान यहां राक्षस बहुत उत्पात मचाया करते थे. उस समय यह क्षेत्र पद्मावती क्षेत्र या पद्मपुर कहलाता था. उस दौरान एक राजा रत्नाकर यज्ञ आदि के जरिए इस क्षेत्र की सुरक्षा किया करते थे. ऐसे ही एक आयोजन में राक्षसों ने ऐसा विघ्न डाला कि राजा दुखी हो कर वहीं खंडित हवन कुंड के सामने ही तपस्या में लीन हो गए. राजा की तपस्या से प्रसन्न  होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने राजा को वरदान दिया कि वह कुछ दिनों में अवतार लेकर इस समस्या का समूल नाश करेंगे और स्वयं यहां निवास करेंगे. 

राजिम तीर्थ पर कैसे स्थापित हुए भगवान विष्णु?

अपने वचन के तौर पर भगवान विष्णु मूर्ति रूप में वहां स्थापित हो गए और प्रतिमा पर बड़ी-बड़ी आंखें उभर आईं. तभी से राजीव लोचन की मूर्ति इस मंदिर में विराज रही है. एक और जनश्रुति है कि राजा जगतपाल इस क्षेत्र पर राज कर रहे थे तभी कांकेर के कंडरा राजा ने इस मंदिर के दर्शन किए और उसके मन में लोभ जागा कि यह मूर्ति तो उसके राज्य में स्थापित होनी चाहिए पुजारियों को धन का प्रलोभन दिया पर वे माने नही तो कंडरा राजा बलपूर्वक सेना की मदद से इस मूर्ति को ले चला. 

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राजिम तेलिन के पास पहुंच गई प्रतिमा

एक नाव में मूर्ति को रखकर वह महानदी के जलमार्ग से कांकेर रवाना हुआ पर धमतरी के पास रुद्री नामक गांव के समीप मूर्ति सहित नाव डूब गई और मूर्ति शिला में बदल गई. कंडरा राजा खिन्न मन से कांकेर लौट गया. उसी समय राजिम में महानदी के बीच में स्थित कुलेश्वर महादेव मंदिर की सीढ़ी से आ लगी इस "शिला" को देख 'राजिम' नाम की तेलिन उसे अपने घर ले गई और कोल्हू में रख दी.

उसके बाद से तो उसका घर धन-धान्य से भर उठा उधर सूने मंदिर को देखकर दुखी होते राजा जगतपाल को भगवान ने स्वप्न दिया कि वे जाकर तेलिन के घर से उन्हें वापस लाकर प्रतिष्टित करें. पहले तो तेलिन राजी ही नही हुई पर फिर भगवान विष्णु ने स्वप्न में दर्शन दिए तो वह तैयार हो गई. प्रतिमा की फिर से प्राण प्रतिष्ठा हुई और राजा ने इस क्षेत्र राजिम तेलिन के नाम से राजिम तीर्थ घोषित कर दिया. आज भी राजीव लोचन मंदिर के आसपास अन्य मंदिरों के साथ राजिम तेलिन का मंदिर भी विराजमान है. उन्हें राजिम माता के नाम से जाना जाता है. इस कथा का जिक्र लेखक धनंजय चोपड़ा ने अपनी किताब (भारत में कुंभ) में भी किया है. 

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इन तीन नदियों के संगम पर है राजिम तीर्थ

सोंढूर-पैरी-महानदी इन तीन नदियों के त्रिवेणी संगम तट पर बसा राजिम प्राचीनकाल से छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख तीर्थस्थल है. लोगों की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक सम्पूर्ण नही होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नही कर लेता. कहते हैं माघ पूर्णिमा के दिन स्वयं भगवान जगन्नाथ पुरी से यहां आते हैं. उस दिन जगन्नाथ मंदिर के पट बंद रहते हैं और भक्तों को भी राजीव लोचन में ही भगवान जगन्नाथ के दर्शन होते हैं. 

कुलेश्वर महादेव मंदिर भी है आस्था का केंद्र

राजिम तीर्थ में ही कुलेश्वर महादेव मंदिर भी विराजमान है, जिसका भी प्राचीन काल से बहुत महत्व रहा है. छत्तीसगढ़ को भगवान राम के वनवास काल के पथगमन मार्ग के रूप में चिह्नित किया गया है और इस तथ्य को प्रमाणित करते हुए कई अवशेष यहां मौजूद हैं. इन्हीं में से एक प्रतीक है राजिम का कुलेश्वर महादेव मंदिर.

महानदी, पैरी और सोंढूर नदियों के त्रिवेणी संगम पर स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि जिस जगह मंदिर स्थित है, वहां कभी वनवास काल के दौरान मां सीता ने देवों के देव महादेव के प्रतीक रेत का शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा की थी. कहा जाता है कि नदियों के संगम पर मौजूद इस मंदिर के अंदर एक गुप्त गुफा मौजूद है जो नजदीक ही स्थित लोमस ऋषि के आश्रम तक जाती है. इस त्रिवेणी के कारण ही राजिम छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहलाता है. 

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महाभारत में भी है राजिम तीर्थ का जिक्र

महाभारत के आरण्यक पर्व के अनुसार संपूर्ण छत्तीसगढ़ में राजिम ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहां बदरीनारायण का प्राचीन मंदिर है. इसका वही महत्व है जो जगन्नाथपुरी का है. इसीलिए यहां भी "महाप्रसाद" का खास महत्व है. यहां चावल से निर्मित "पीड़िया" नामक एक मिष्ठान्न भी प्रसाद के लिए उपलब्ध रहता है. माघ पूर्णिमा से यहां जो मेला लगता है उसकी छटा निराली ही होती है. यह मेला पंद्रह दिन तक चलता है. इस स्थान पर लगने वाले 15 दिन के माघ मेला को कुंभ की संज्ञा प्राप्त है और राजिम कुंभ में भी देशभर से नागा साधु व साधु-महात्माओं के अखाड़े विशेष रूप से शामिल रहते हैं.

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