जीवन में सुख-शांति मनुष्य के कर्मों पर टिकी होती है. चाणक्य ने मनुष्य के बेहतरी के लिए कई नीतियों का वर्णन किया है. उन्होंने अपने नीतिशास्त्र में क्या करना है और क्या नहीं करना है का विस्तृत व्याख्या की है. आइए जानते हैं चाणक्य के मुताबिक कौन है सबसे श्रेष्ठ मनुष्य...
अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।
धर्मोपदेशविश्यातं कार्याऽकार्याशुभाशुभम्।।
धर्म का उपदेश देने वाले, कार्य-अकार्य, शुभ-अशुभ को बताने वाले इस नीतिशास्त्र को पढ़कर जो सही रूप में इसे जानता है, वही मनुष्य श्रेष्ठ है. इस नीतिशास्त्र में धर्म की व्याख्या करते हुए चाणक्य बताते हैं कि मनुष्य को क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए. क्या अच्छा है, क्या बुरा है.
उन्होंने यहां ज्ञान का वर्णन किया गया है. इसका अध्ययन करके इसे अपने जीवन में उतारनेवाला मनुष्य ही श्रेष्ठ मनुष्य है.
आचार्य विष्णुगुप्त यानी चाणक्य का यहां कहना है कि ज्ञानी व्यक्ति नीतिशास्त्र को पढ़कर जान लेता है कि उसके लिए करणीय क्या है और न करने योग्य क्या है. साथ ही उसे कर्म के भले-बुरे के बारे में भी ज्ञान हो जाता है.
कर्तव्य के प्रति व्यक्ति द्वारा ज्ञान से अर्जित यह दृष्टि ही धर्मोपदेश का मुख्य सरोकार और प्रयोजन है. कार्य के प्रति व्यक्ति का धर्म ही व्यक्ति धर्म कहलाता है. अर्थात मनुष्य अथवा किसी वस्तु का गुण और स्वभाव जैसे अग्नि का धर्म लजाना और पानी का धर्म बुझाना है. उसी प्रकार राजनीति में भी कुछ कर्म धर्मानुकूल होते हैं और बहुत कुछ धर्म के विरुद्ध होते हैं.
गीता में कृष्ण ने युद्ध में अर्जुन को क्षत्रिय का धर्म इसी अर्थ में बताया था कि रणभूमि में सम्मुख शत्रु को समाने पाकर युद्ध ही क्षत्रिय का एकमात्र धर्म होता है. युद्ध से पलायन या विमुख होना कायरता कहलाती है. इसी अर्थ में आचार्य चाणक्य धर्म को ज्ञानसम्मत मानते हैं.