कुशल नीतिज्ञ रहे चाणक्य ने अपने नीति शास्त्र यानी 'चाणक्य नीति' में धर्म को लेकर काफी कुछ लिखा है. वो श्लोक के माध्यम से बताते हैं कि किस प्रकार के मनुष्य का जीवन व्यर्थ है और कौन मौत के बाद भी वर्षों तक याद रखा जाता है. आइए जानते हैं इनके बारे में...
जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्।
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः॥
आचार्य चाणक्य का कथन है कि धर्म से हीन प्राणी को मैं जीते जी मृत समझता हूं. धर्मपरायण व्यक्ति मृत भी दीर्धजीवी है. इसमें कोई संदेह नहीं है.
चाणक्य इसमें बताते हैं कि मनुष्य दो प्रकार के होते हैं. पहला जीते जी भी मरा हुआ मनुष्य और दूसरा मरकर भी लंबे समय तक जीवित रने वाला मनुष्य. जो मनुष्य अपने जीवन में कोई भी अच्छा काम नहीं करता, अर्थात जिसकी धर्म की झोली ही खाली रह जाती है, ऐसा धर्महीन मनुष्य जिंदा रहते हुए भी मरे हुए मनुष्य के समान है.
जो मनुष्य अपने जीवन में लोगों की भलाई करता है और धर्म संचय करके मर जाता है, उसे लोग उसकी मृत्यु के बाद भी याद करते रहते हैं. ऐसा ही व्यक्ति मृत्यु के बाद भी यश से लंबे समय तक जीवित रहता है.
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्वते।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्॥
आचार्य चाणक्य यहां व्यक्ति की सार्थकता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से जिस व्यक्ति को एक भी नहीं मिल पाता, उसका जीवन व्यर्थ है.
चाणक्य कहते हैं कि जो मनुष्य अपने जीवन में न तो कोई धर्म के कार्य करता है, न धनवान बन पाता है, न भोग कर पाता है और न मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, उस व्यक्ति का जीवन पूर्ण रूप से बेकार है.