'हम संघर्ष से अपनी पहचान नहीं चाहते, हम अपनी काबिलियत से अपनी पहचान बनाना चाहते हैं. हम फिर से दुनिया से अलग नहीं होना चाहते, हम सिर्फ़ सियासी हालात के शिकार नहीं हैं, बल्कि हम सपने देखने वाले लोग हैं जो डॉक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट और बहुत कुछ बनना चाहते हैं.' यह बात कश्मीर के सोपोर की एक 17 वर्षीय छात्रा ने कही है.
कश्मीर के देखने के कई नजरिए
खून से लथपथ घाटी में आशा और निराशा, असहज रूप से सत्कार और दुश्मनी के साथ-साथ चल रहे हैं. कई युवा कश्मीरी मुस्लिमों के किसी भी रूढ़िवाद से बाहर निकलने के लिए बेताब हैं, जो एक महत्वाकांक्षी समाज का हिस्सा बनने के लिए उत्सुक हैं. निश्चित रूप से, ऐसे लोग भी हैं जो अभी भी उग्रवाद को रोमांटिक बना सकते हैं, लेकिन एक जटिल कश्मीर को देखने के कई नजरिए हैं, जहां एक युवा छात्र की शांति की अपील और बदले के लिए कठोर आवाज़ एक साथ सुनाई दे सकती है.
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कॉन्फ्लिक्ट जोन में डर कैमरे पर प्रतिक्रियाओं को तय कर सकता है, यही कारण है कि 'नया' कश्मीर की असलियत जानने के लिए शोर को अलग करना जरूरी है. पहलगाम की बैसरन घाटी में हुए भयानक आतंकी हमले और भारतीय सशस्त्र बलों की जवाबी कार्रवाई के बाद यह साफ है कि कश्मीर एक बार फिर मंथन कर रहा है, यह मंथन नए और पुराने कई आयामों को दिखाता है.
घाटी के दौरे के बाद 10 बातें निकलकर आई हैं
सबसे पहले कश्मीरी समाज के एक बड़े हिस्से में बैसरन को लेकर गुस्सा और दुख वास्तविक और बिना किसी शर्त के है. यह आंशिक रूप से बेकसूर पर्यटकों की हत्या में आतंकियों के वहशीपन के खिलाफ सहज मानवीय और भावनात्मक प्रतिक्रिया से उपजा है. जो नहीं कहा गया है वह अतीत में मजबूती से बोलने में हुई विफलता के लिए पश्चाताप की भावना है, एक डरपोक चुप्पी जिसने शायद आतंकवादियों को सजा के बिना एक रेड लाइन पार करने की इजाजत दी है, जहां गैर-लड़ाकू भी आतंक के चंगुल में खींचे जाते हैं. अब 'बस बहुत हो गया' घाटी में गूंजने वाली एक चीख है.
दूसरा, हिंदुओं को निशाना बनाकर धर्म के नाम पर बेगुनाहों की हत्या ने 'नॉट इन माई नेम' के पोस्टर लहराने वालों के बीच आक्रोश पैदा कर दिया है. हाल के दशकों में कट्टरपंथी इस्लाम ने कश्मीर घाटी में अपनी पैठ बना ली है, कश्मीरी पंडितों का जबरन पलायन 'धर्मनिरपेक्ष' कश्मीरियत की किसी भी धारणा पर एक स्थाई धब्बा है. यहां तक कि रूढ़िवादी मुसलमान भी अब स्वीकार कर रहे हैं कि 'जिहाद फैक्ट्री' जहरीली और आत्मघाती है, जो उनकी धार्मिक संवेदनाओं पर हमला है.
तीसरा, घाटी में 'पाकिस्तान समर्थकों' को भारी झटका लगा है. पैन-इस्लामिक भाईचारे के विचार का समर्थन करने वाले लोग कैमरा बंद होने पर अपनी व्यापक निष्ठाओं की बात करते हैं, लेकिन इस्लामाबाद को अब कश्मीरी हितों के एकमात्र संरक्षक के रूप में नहीं देखा जाता है. जबकि कई लोग बैसरन में साफ तौर पर सुरक्षा चूक की ओर इशारा करते हैं, बहुत कम लोग पाकिस्तानी नेतृत्व के 'झूठे झंडे' के सिद्धांत पर भरोसा करते हैं. इसके बजाय, यह धीरे-धीरे महसूस हो रहा है कि पाकिस्तानी सेना-राज्य और उसके आतंकी समर्थकों ने कश्मीरी भावनाओं का फायदा उठाकर इस इलाके को अशांति के हालात में छोड़ दिया है.
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चौथा, स्थानीय आतंकियों के इर्द-गिर्द एक दशक पहले की तुलना में बहादुरी का आभास कम है. साल 2016 में हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी को सोशल मीडिया के युग में आतंकवाद के पोस्टर बॉय के रूप में देखा गया था, जब वह सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में मारा गया था. उसके बाद हुए हिंसक प्रदर्शन युवा, बेचैन कश्मीरियों के बीच वानी के बड़े समर्थन का आधार बने थे. लेकिन स्थानीय आतंकवाद का यह ब्रांड भी 'आज़ाद' या 'स्वतंत्र' कश्मीर के विचार के मूल समर्थकों को छोड़कर प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है.
पांचवां, पाकिस्तान के प्रति जनता के समर्थन में आई तेज गिरावट के साथ-साथ भारत के प्रति लोगों की बढ़ती दिलचस्पी भी जरूरी नहीं है. सच तो यह है कि मोदी सरकार को कश्मीर की सड़कों पर मुस्लिम विरोधी माना जाता है, यह भावना 2019 में और मजबूत हुई जब भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य को रातोरात केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया. कश्मीरी लोगों के दिल और दिमाग में यह बात बैठ गई है कि केंद्र ने उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया है, उन्हें उनके संवैधानिक अधिकारों और समानता और सम्मान की भावना से वंचित कर दिया है, जिससे मुख्यधारा के भारत से अलगाव का एक जाना-पहचाना पैटर्न जुड़ गया है.
छठा, साल 2024 के चुनावों ने कश्मीरियों के घायल स्वाभिमान को कम करने के लिए कुछ खास नहीं किया है. उमर अब्दुल्ला को व्यापक रूप से एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के रूप में देखा जाता है, जिनके पास ज्यादा अधिकार नहीं हैं, वह एक नेकदिल, अच्छा बोलने वाला व्यक्ति हैं, दिल्ली की सत्ता के लिए एक स्वीकार्य चेहरा हैं, लेकिन वह उस तरह के जुझारू जननेता नहीं है जिसकी कई कश्मीरी चाहत रखते हैं. वास्तव में पूरी कश्मीरी रूलिंग क्लास की ज़मीन पर सीमित पकड़ है, उन्हें वंशवादी और हकदार तो माना जाता है, लेकिन आम लोगों से उनका जुड़ाव नहीं है.
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सातवां, घाटी में सुरक्षाबलों की भारी मौजूदगी को घुटन भरी सरकारी सत्ता का प्रतीक माना जाता है, जिससे कई कश्मीरी आज़ाद होना चाहते हैं. नियमित रूप से इंटरनेट बंद करना, हर बार आतंकी हमले के समय दमघोंटू तलाशी अभियान चलाना, बिना किसी सही प्रोसेस के संदिग्ध आतंकियों के घरों पर बमबारी करना और निर्दोष नागरिकों को परेशान करना, एक ऐसे दमनकारी राज्य का सबूत हैं जो कश्मीरियों पर बुनियादी तौर पर भरोसा नहीं करता है.
आठवां, कश्मीरियों में अभी भी स्थायी पीड़ित होने की भावना है, जो अतीत के जख्मों और आक्रोश पर आधारित है. यही कारण है कि जब भी भारत के किसी भी हिस्से में किसी कैंपस में कश्मीरी छात्र को परेशान किया जाता है, तो खबर पूरी घाटी में जंगल की आग की तरह फैल जाती है. बड़ी संख्या में कश्मीरियों को लगता है कि उन्हें 'मुख्यधारा' भारत की ओर से जानबूझकर 'राष्ट्र-विरोधी' के रूप में बदनाम किया जा रहा है और वे इस बात से दुखी हैं कि उन्हें लगता है कि हर आतंकी वारदात के लिए एक समुदाय को 'सामूहिक सजा' दी जा रही है.
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नौवीं बात, निस्संदेह 'P एंड P' (शांति और समृद्धि) के रूप में वर्णित की जाने वाली चीज के लिए जगह और स्वीकार्यता बढ़ रही है. हाल के वर्षों में कश्मीर में पर्यटकों की संख्या में भारी उछाल देखा गया है, जो इस उभरते 'पी एंड पी' का एक महत्वपूर्ण पहलू है. बैसरन ने कश्मीरी पर्यटन अर्थव्यवस्था के दिल में खंजर घोंप दिया है, जब यह एक बड़े उछाल के लिए तैयार था. एक कठोर वास्तविकता जिसने आंशिक रूप से आतंकी हमलों के खिलाफ तात्कालिक गुस्से को बढ़ाया है. कम प्रति व्यक्ति आय और कम रोजगार के अवसरों वाले राज्य में कई कश्मीरी अपनी खास पहचान को बनाए रखते हुए भारत के विकास कहानी का हिस्सा बनना चाहते हैं.
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जो हमें दसवीं और अंतिम टिप्पणी पर ले आता है. बैसरन, भले ही भयावह हो, ने विरोधाभासी रूप से शांति के स्टेक होल्डर्स के लिए मौके की एक खिड़की जरूर खोल दी है. ऐसे समय में जब घाटी आतंक से सुन्न हो गई है, उन लोगों तक पहुंचना अहम है जो हिंसा के खिलाफ बोल रहे हैं. जब पीड़ितों के साथ एकजुटता में श्रीनगर के डाउनटाउन में कैंडल मार्च निकाले जाते हैं, जब सोपोर जैसे शहरों में आतंकवादियों के खिलाफ सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन होते हैं, जब अपराधियों को अधिकतम सजा देने की मांग उठती है, और जब पाकिस्तान तेजी से अपना समर्थन खो रहा है, तो भारतीय राज्य और सिविल सोसायटी को सार्थक तरीके से घाटी तक पहुंचने की जरूरत है. हिंदू-मुस्लिम तनाव को भड़काने या किसी भी तरह से कश्मीरियों को निशाना बनाने के जरिए नहीं, बल्कि एक दुष्ट और विफल पाकिस्तानी राज्य के विपरीत भारत को एक सच्चे 'धर्मनिरपेक्ष' देश के रूप में स्थापित करने के विचार के निर्माण के लिए यह जरूरी है.
(राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. उनकी हालिया किताब '2024: द इलेक्शन दैट सरप्राइज्ड' इंडिया बेस्टसेलर है )
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं)