'मंडल का जवाब कमंडल से...', यह नारा कभी 1990 के दशक में जाति-आधारित राजनीति के खिलाफ बीजेपी के उग्र विरोध को परिभाषित करता था. यह ओबीसी आरक्षण के लिए मंडल आयोग के आह्वान के खिलाफ पार्टी का युद्धघोष था, जो खुद को जाति विभाजन से ऊपर एक एकीकृत हिंदू पहचान के रक्षक के रूप में पेश करता था. लेकिन एक नाटकीय बदलाव में, उसी बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अब आगामी जनगणना के साथ-साथ जाति जनगणना करवाने का ऐलान किया है.
एक ऐसी पार्टी के लिए जो कभी जाति के आंकड़ों को राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा मानती थी, यह कदम एक सोची-समझी राजनीतिक उलटफेर को दर्शाता है. गौरतलब है कि कुछ महीने बाद जाति के नजरिए से बेहद संवेदनशील राज्य बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.
‘तेलंगाना मॉडल ने रास्ता दिखाया...’
उम्मीद के मुताबिक, विपक्ष ने तुरंत इस पर हमला बोल दिया. देश में जाति जनगणना की मांग सबसे पहले उठाने वाले राहुल गांधी ने दोहराया कि यह कांग्रेस की लंबे वक्त से की गई प्रतिबद्धता थी. उन्होंने कहा, “हमने संसद में कहा था कि हम जाति जनगणना करवा कर रहेंगे. हमने आरक्षण की 50 फीसदी सीमा को हटाने के लिए भी प्रतिबद्धता जताई थी.
तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने इस विकास को अपने राज्य के अग्रणी 2024 सामाजिक, आर्थिक और जाति सर्वेक्षण की पुष्टि के रूप में सराहा, जिसमें पाया गया कि 56.32 फीसदी आबादी पिछड़ी जातियों से है. रेड्डी ने कहा, "तेलंगाना आज जो करता है, भारत कल उसको फॉलो करता है."
समय का ध्यान रखते हुए सावधानीपूर्वक गणना की गई है
केंद्र सरकार का यह कदम ओबीसी के बीच बीजेपी के मजबूत समर्थन को सेफ रखने और कथित उच्च जाति के मतदाताओं को अपने पक्ष में रखने के लिए बनाया गया लगता है. पिछले साल ही, मोदी ने मध्य प्रदेश में एक रैली के दौरान कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक पर “जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोगों को विभाजित करने की कोशिश” करने का आरोप लगाया था.
बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जाति जनगणना बीजेपी को पिछड़े समुदायों के बीच विपक्षी दलों की बढ़ती अपील को बेअसर करने में मदद कर सकती है. अपने आदेश के तहत इसे शुरू करके, मोदी सरकार यह सुनिश्चित करती है कि वह प्रक्रिया की गति और प्रस्तुति दोनों को नियंत्रित करे, जिससे विपक्षी राज्यों के लिए कहानी गढ़ने की गुंजाइश सीमित हो जाए.
बीजेपी की रणनीति से जोखिम भरा बदलाव
जाति गणना का ऐलान बिना रिस्क उठाए नहीं किया जा सकता. बीजेपी की चुनावी मशीन लंबे वक्त से हिंदुत्व के अखिल हिंदू एकता के वादे पर फलती-फूलती रही है, जो अंतर-हिंदू जाति विभाजन को कम करती है. ताजा जाति डेटा हाईयर कोटा, ओबीसी के अंदर सब-कैटेगराइजेशन और जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर राज्य संसाधनों के पुनर्वितरण की पुरानी मांगों को फिर से जगा सकता है. इस तरह के घटनाक्रम बीजेपी के ऊपर की ओर बढ़ते ओबीसी मतदाताओं और उसके पारंपरिक उच्च-जाति समर्थन आधार के बीच नाजुक संतुलन को बिगाड़ सकते हैं.
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जाति की राजनीति पर बीजेपी का बदलाव?
अपर कास्ट के एकीकरण से लेकर ओबीसी तक पहुंच और इस जनगणना तक.
पिछले दशक में नरेंद्र मोदी ने ओबीसी नेता के रूप में सफलतापूर्वक एक राजनीतिक व्यक्तित्व तैयार किया है, जो योग्यता के आधार पर आगे बढ़ा है, जिससे बीजेपी को गैर-प्रमुख पिछड़ी जाति समूहों में पैठ बनाने में मदद मिली है. जाति जनगणना के लिए जोर अब उस विकास में अगला कदम हो सकता है.
जानकारों का तर्क है कि यह मंडल 2.0 की शुरुआत की तरफ इशारा करता है. सामाजिक न्याय की राजनीति की एक नई लहर, जो 1990 के दशक में अपने पूर्ववर्ती की तरह, भारतीय चुनावी गतिशीलता को फिर से संगठित कर सकती है.
बीजेपी ने अभी क्यों उठाया ऐसा क़दम?
कुछ महीनों बाद बिहार विधानसभा चुनाव होने हैं और जेडी(यू), आरजेडी, कांग्रेस और डीएमके जैसी विपक्षी पार्टियां जातिगत समानता पर जोर दे रही हैं. ऐसे में बीजेपी एक बड़ा कदम उठाने जा रही है. बिहार के सीएम नीतीश कुमार के हालिया राज्य स्तरीय जाति सर्वेक्षण ने एक व्यापक राष्ट्रीय मांग की नींव रखी, जिससे केंद्र के पास ओबीसी विरोधी दिखे बिना विरोध करने की बहुत कम गुंजाइश बची.
बीजेपी ने जिस बात की कभी निंदा की थी, उसे अपनाकर बीजेपी सिर्फ़ नीतिगत बदलाव नहीं कर रही है, बल्कि एक सियासी दांव खेल रही है. सवाल यह है कि क्या वह सत्ता में आने वाले आधार को खत्म किए बिना अपने सामाजिक गठबंधन का विस्तार कर सकती है?