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ईरान-इजरायल जंग में नेतन्याहू ने ट्रंप को फंसा दिया, इधर कुआं - उधर खाई

राष्‍ट्रपति बनने के बाद से डोनाल्‍ड ट्रंप के लिए कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है. टैरिफ वॉर, यूक्रेन वॉर, इंडो-पाक वॉर, और अब इजरायल-ईरान वॉर. ट्रंप ने जैसा-जैसा सोचा, हुआ उसका उलटा. दुनिया में सबसे बड़े सूरमा कहे जाने वाले अमेरिका को इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्‍याहू ने ऐसे दांव में फंसाया है कि ट्रंप का उससे निकलना नामुमकिन है.

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डोनाल्‍ड ट्रंप के लिए ईरान-इजरायल का युद्ध सांप-छछुंदर का खेल बन गया है.
डोनाल्‍ड ट्रंप के लिए ईरान-इजरायल का युद्ध सांप-छछुंदर का खेल बन गया है.

डोनाल्‍ड ट्रंप को अमेरिकी राष्‍ट्रपति बने आज ठीक छह महीने हो गए हैं. लेकिन, इस छह महीने में पूरी दुनिया ने अमेरिकी राष्‍ट्रपति की जबर्दस्‍त भद पिटती देखी है. पहले दौर की टैरिफ वॉर लगभग बेनतीजा रही. यूक्रेन-रूस युद्ध रुकवाने को लेकर ट्रंप के सारे दावे धरे रह गए. यूरोपीय यूनियन में ट्रंप की साख दो कौड़ी की होकर रह गई. भारत-पाकिस्‍तान के बीच सीजफायर करवाने की जश्‍न ट्रंप को भारी पड़ गया. और अब इजरायल-ईरान वॉर, जो कि ट्रंप की समझ से बाहर निकल गया है.

डोनाल्‍ड ट्रंप को समझ नहीं आ रहा है कि यदि उनका देश एक बार ईरान की जंग में घुसा तो बाहर कैसे और किन हालात में निकलेगा? इजरायल तो ईरान पर हमला कभी भी रोक सकता है, लेकिन अमेरिका के सामने मजबूरी यह है कि वह बिना ईरान के परमाणु कार्यक्रम और वहां के नेतृत्‍व को खत्‍म किये बिना युद्ध खत्‍म नहीं कर पाएगा.

यदि अमेरिका ने परमाणु कार्यक्रम और नेतृत्‍व को खत्‍म कर भी दिया तो क्‍या यह हमेशा के लिए समस्‍या का अंत होगा, या इससे ईरान के भीतर परमाणु हथियार पाने की लालसा और बढ़ जाएगी? ईरान के परमाणु कार्यक्रम और वहां के नेतृत्‍व तक पहुंचना अमेरिका के लिए आसान नहीं है. विशेषज्ञ बता रहे हैं कि ईरान ने अपने परमाणु संसाधन फार्द के जिन पहाड़ों के नीचे छुपा रखे हैं, वहां अमेरिका का कोई बम मार नहीं कर सकता है. यानी, अमेरिका को अपने सैनिक ईरान की सरजमीं पर उतारने होंगे.

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जहां तक ईरान में अमेरिकी सैनिक भेजने की बात है, तो यह समझ लीजिये कि ईरान का बड़ा इलाका पहाड़ों से पटा हुआ है. जहां पर जंग करना अमेरिका के लिए बहुत खूनखराबा लेकर आएगा. और यह डोनाल्‍ड ट्रंप के उन वादों के खिलाफ होगा, जो उन्‍होने अमेरिकी राष्‍ट्रपति चुनाव में किया था कि अमेरिका अब दूसरों की जंग नहीं पड़ेगा. क्‍योंकि अब अमेरिका अब अपने सैनिकों की लाशें उठाने के लिए तैयार नहीं है.

नेतान्‍याहू ने फंसा दिया

डोनाल्‍ड ट्रंप तो ओमान में ईरान के साथ न्‍यूक्लियर डील करके अपनी ‘अमन के मसीहा’ (peacemaker) वाली छवि मजबूत करने जा रहे थे. हालांकि, ईरान इस बातचीत का बहाना करके अपने परमाणु कार्यक्रम को बम बनाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा रहा था. जो कि इजरायल को मंजूर नहीं रहा. ऐसे में नेतान्‍याहू ने बिना ट्रंप की परवाह किये ईरान पर हमला बोल दिया.

अब तक ईरान के साथ सिर्फ जुबानी जंग करते आए अमेरिकी राष्‍ट्रपतियों से अलग डोनाल्‍ड ट्रंप के सामने विकट स्थिति खड़ी हो गई है. इजरायल को हर हाल में सपोर्ट करने की अमेरिकी नीति से वो अलग हो नहीं सकते. और अपनी ‘अमन के मसीहा’ वाली इमेज को ताक पर रखकर तुरंत युद्ध में भी नहीं उतर सकते.

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ट्रंप ने दो हफ्ते का समय क्‍यों लिया है?

सच तो यह है कि ट्रंप को कुछ सूझ ही नहीं रहा है कि ईरान-इजरायल युद्ध में उसकी भूमिका क्‍या हो. दो हफ्ते का समय इसलिए कि कुछ दिन में यह पता चल जाएगा कि जीत कौन रहा है. ईरानी मिसाइलों के हमलों से यदि इजरायल में ज्‍यादा तबाही होती है, तो ट्रंप के पास अमेरिकी जनता को बताने के लिए वजह होगी कि उन्‍हें ईरान पर हमला क्‍यों करना पड़ा है.
दूसरा, ट्रंप चाहते हैं कि नेतान्‍याहू उनके सामने आकर याचना करें कि वह ईरान के साथ जंग में उनका साथ दें. और यदि ट्रंप युद्ध में शामिल होने में थोड़ा और वक्‍त लेते हैं तो इजरायल के सामने और कोई विकल्‍प नहीं होगा कि वह ट्रंप से मदद के लिए सार्वजनिक याचना करें.
हालांकि, पर्दे के पीछे से अमेरिका इजरायल की मदद कर भी रहा है. इसका आंकलन आप इसी बात से कर सकते हैं कि पिछले तीन वर्षों से इजरायल गाजा पर जो बम गिरा रहा है, उसके पास इतना असलहा कहां से रहा है? इतना ही नहीं, हफ्ते भर से इजरायली फाइटर प्‍लेन ईरान पर जब हमला करने के लिए जा रहे हैं तो वापस लौटने का ईंधन उन्‍हें रास्‍ते में अमेरिका ही उपलब्‍ध करवा रहा है. 

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लेकिन, सच्‍चाई यह है कि इजरायल के हवाई हमलों से ईरान का कुछ नहीं बिगड़ने वाला. बल्कि, ईरान यदि अपनी हाइपरसॉनिक मिसाइलों को इजरायल भेजता है तो उसका ज्‍यादा बड़ा नुकसान होगा. ऐसा इसलिए क्‍योंकि, इजरायल की ज्‍यातार आबादी उसके चार-पांच बड़े शहरों में रहती है. जबकि ईरान का फैलाव इजरायल के मुकाबले कई गुना अधिक है. और इजरायल के पास इतने संसाधन नहीं है कि वह उसके सभी शहरों तक पहुंच जाए.

ईरान का जवाबी हमला अभी काफी कमतर है

एक तरफ इजरायल ईरान में घुसकर उसके न्‍यूक्लियर ठिकानों, सैन्‍य अड्डों पर हमला कर रहा है. लेकिन, ईरान अपनी कम क्षमता वाली मिसाइलों को ही इजरायल की ओर भेज रहा है. ईरान के लिए बहुत आसान है कि वह भी इजरायल के परमाणु ठिकाने पर हमला कर दे. यह कोई रहस्‍य नहीं है कि इजरायल के डिमोना न्‍यूक्लियर प्‍लांट में ही पर्याप्‍त मात्रा में न्‍यूक्लियर मटेरियल मौजूद है, जिसका इस्‍तेमाल परमाणु हथियार बनाने में हो सकता है. 

इजरायल की बर्बादी अमेरिका को शर्मसार और खतरे में डालेगी

यदि ईरान इजरायल पर हमले तेज करता है, और उसकी बर्बादी होती है तो यह इजरायल से ज्‍यादा अमेरिका के लिए खतरे और चिंता की बात होगी. ऐसा इसलिए क्‍योंकि दुनिया जानती है कि मिडिल ईस्‍ट में इजरायल अमेरिका का एक्‍सटेंशन है. ये कहें कि उसकी एक फ्रंटलाइन स्‍टेट. ऐसे में दुनिया जब इजरायल के खंडहरों की तस्‍वीरें देखेगी तो यह मानेगी कि अमेरिका इजरायल को नहीं बचा पाया. जिसका दूरगामी असर खाड़ी देशों में मौजूद अमेरिका सैनिकों की सुरक्षा पर पड़ेगा.

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अमेरिका का एक बड़ा सैनिक जमावड़ा इराक, कुवैत, बहरीन और अन्‍य खाड़ी देशों में हैं. ये तमाम अमेरिकी मिलिट्री बेस ईरान मिसाइलों की मारक क्षमता के भीतर हैं. यदि ईरान-इजरायल युद्ध में अमेरिका का दखल एक सीमा से ज्‍यादा बढ़ता है. या, इसके उलट यदि ईरान-इरायल युद्ध अनिर्णय की स्थिति में पहुंचता है तो यकीन रखिये कि इससे पूरे गल्‍फ में अमेरिकी ठिकाने खतरे में पड़ जाएंगे. पूरे में मिडिल ईस्‍ट में युद्ध का पर्याय रहा अमेरिका पलायन और कायरता का पर्याय बन जाएगा.

ट्रंप के गले की हड्डी बन गया है इजरायल का ईरान पर अटैक

आमतौर, अमेरिका ने अपने इतिहास में युद्ध के समय, जमीन और हालात खुद तय किये. यह पहला मौका है कि जब कोई देश उसे जबरन में युद्ध में घसीट लाया है. इजरायल ने ईरान पर हमला करके ट्रंप के सभी समीकरणों पर पानी फेर दिया है. वह इजरायल को अकेला छोड़ना भी नहीं चाहता और ईरान में घुसना भी नहीं चाहता है. यानी, इधर कुआं है और उधर खाई. और उसकी यह हैसियत भी नहीं बची है कि  वह इजरायल और ईरान के बीच सीजफायर करवा पाए. यदि दुनिया को दूसरी और कोई ताकत यदि यह युद्ध रुकवाना चाहे भी तो अमेरिका को यह मंजूर नहीं होगी. जाहिर है कि इससे बड़ी बेइज्‍जती क्‍या होगी?

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तो मूल प्रश्‍न पर फिर लौटते हैं. ईरान पर हमले को लेकर फैसला करने के लिए ट्रंप ने दो हफ्ते का समय क्‍यों लिया है? जवाब यह है कि दो हफ्ते तो क्‍या दो दिन में ट्रंप इस हमले की इजाजत दे सकते हैं. क्‍योंकि ट्रंप ऐसे ही हैं. दूसरा, यदि तर्कों के आधार पर देखें तो थोड़ा वक्‍त बीतने पर ट्रंप को अंदाजा हो जाएगा कि ईरान-इजरायल युद्ध किस दिशा में जा रहा है. और क्‍या इस युद्ध में शामिल होकर वे इसे निर्णायक नतीजे तक पहुंचा पाएंगे? जिसकी उम्‍मीद कम ही है.

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