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आपदा पर आपदा: त्रासदियों पर सियासत भारी, कब तय होगी जिम्मेदारी?

प्रत्येक ऐसी त्रासदी एक परिचित पैटर्न की तरह दिखती है. सख्त सुरक्षा मानकों का पालन करने पर कम ध्यान दिया जाता है, जो ‘चलता है’ वाले रवैये को दर्शाता है. यहां रोजमर्रा की शासन की कठिनाइयों पर ध्यान देने के बजाय, राजनीतिक दिखावे को प्राथमिकता दी जाती है.

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एअर इंडिया विमान हादसे ने हवाई सुरक्षा पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है
एअर इंडिया विमान हादसे ने हवाई सुरक्षा पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है

यह हफ्ता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के 11 साल पूरे होने के जश्न का होना था, वो भी उनके पसंदीदा 'बैंड, बाजा, बारात' और मीडिया वाले अंदाज़ में. लेकिन इस बार हेडलाइन मैनेजमेंट में माहिर सरकार के समर्थक जून के दूसरे हफ्ते में हुई भयावह घटना से ध्यान नहीं भटका सके. यह देश में 1996 के बाद की सबसे बड़ी विमान दुर्घटना थी जिसमें कम से कम 270 लोगों की मौत हो गई.

एअर इंडिया की फ्लाइट 171 अहमदाबाद, गुजरात के पास दुर्घटनाग्रस्त हुई. ऐसा राज्य जो सरकार के दोनों शीर्ष नेताओं का गृहराज्य है. ऐसे में यह त्रासदी और भी मार्मिक हो गई. राजनीतिक उपलब्धियों का उत्सव एकाएक राष्ट्रीय शोक में बदल गया.हालांकि हादसे के कारणों पर अटकलें लगाना जल्दबाज़ी होगी, लेकिन इसने हवाई सुरक्षा को लेकर फिर से एक नई बहस को जन्म दे दिया है.

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार भारत की सुरक्षा स्थिति वैश्विक मानकों के अनुरूप है, लेकिन कई चिंताजनक पहलू भी हैं. टाटा समूह द्वारा संचालित एअर इंडिया को अब समझ आ रहा है कि एक एयरलाइन चलाना स्टील या कंज्यूमर या अन्य बिजनेस चलाने से बिल्कुल अलग है. दुनिया की सबसे बड़ी एयरोस्पेस कंपनी बोइंग पर फिर से सवाल उठ रहे हैं. नागरिक उड्डयन मंत्रालय की निगरानी क्षमता भी सवालों के घेरे में है. अहमदाबाद एयरपोर्ट का संचालन कर रहे अडानी समूह को भी जवाब देना होगा.

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हादसे के बाद उठे सवालों के जवाब कब मिलेंगे?

गौर करने वाली बात यह है कि मार्च में नागरिक उड्डयन मंत्रालय पर संसदीय स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में बताया गया कि डीजीसीए के 53% पद खाली हैं जबकि नागरिक उड्डयन सुरक्षा ब्यूरो में 35% रिक्तियां हैं. सरकार की उड़ान योजना 120 नए स्थानों को जोड़ने की बात तो करती है, लेकिन उसका बजट 32% घटा दिया गया है. सवाल यह है कि क्या यह भयावह हादसा ज़मीन पर कोई बदलाव ला पाएगा? पिछले एक दशक में हवाई अड्डों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है, लेकिन सुरक्षा मानकों को बनाए रखने पर खर्चा नहीं हो रहा है.

इससे एक बड़ा सवाल उठता है कि क्या एक भयानक हवाई दुर्घटना से जमीन पर कुछ बदलेगा? ब्लैक बॉक्स और फ्लाइट डेटा रिकॉर्डर यह सुराग दे सकते हैं कि टेक-ऑफ के कुछ सेकंड बाद ही ड्रीमलाइनर विमान में आग का गोला कैसे बन गया, लेकिन क्या जांच निष्पक्ष और पारदर्शी होगी, खासकर जब इससे शक्तिशाली हितधारक जुड़े हुए हैं? यह एक महत्वपूर्ण सवाल उठाता है कि क्या हमारे सिस्टम में ऐसी जवाबदेही है जो समयबद्ध तरीके से प्रमुख लोगों पर जिम्मेदारी तय कर सके?

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बेंगलुरु में जिम्मेदार लोग फोटो खिंचवाने में रहे बिजी

जून माह के कुछ दिन अभी बाकी हैं, लेकिन यह महीना आपदा से भरा रहा. 4 जून को, IPL फाइनल के एक दिन बाद, बेंगलुरु में रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु की जीत के जश्न के दौरान भगदड़ में 11 लोग मारे गए और कई घायल हुए. जल्दबाजी में आयोजित इस कार्यक्रम को पुलिस की अनुमति के बिना आयोजित किया गया था. विधान सौधा और चिन्नास्वामी स्टेडियम में लगातार आयोजनों के कारण पुलिस भीड़ को नियंत्रित करने में असमर्थ थी. एक निजी फ्रेंचाइजी की जीत के जश्न के लिए सार्वजनिक तमाशे को सार्वजनिक सुरक्षा से ज्यादा तरजीह दी गई. जिम्मेदारी स्वीकार करने के बजाय, कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने अपनी गलती से इनकार कर दिया. बेंगलुरु के शीर्ष पुलिस अधिकारी को निलंबित कर दिया गया, जबकि स्टार खिलाड़ियों के साथ खुशी-खुशी तस्वीरें खिंचवाने वाले किसी भी राजनेता को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया.

9 जून को, मुंबई के पास मुंब्रा में एक रेल हादसे में चार लोग मारे गए और नौ घायल हुए. भीड़भाड़ वाले ट्रेनों के फुटबोर्ड पर खड़े यात्री पटरियों पर गिर गए. सेंट्रल रेलवे की एक समिति इस घटना की जांच कर रही है, लेकिन मुंबई जैसे महानगर में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की बदहाली के मूल कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया है. क्या उपनगरीय ट्रेन प्रणाली उपेक्षा का शिकार है, जैसा कि यात्री संगठनों का आरोप है, जबकि निजी कारें चमचमाती कोस्टल रोड पर तेजी से दौड़ रही हैं?

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पुणे हादसे के लिए कौन जिम्मेदार?

 16 जून को, पुणे के नजदीक भारी बारिश के बीच भीड़ की जवह से एक पुराना पुल ढह गया, जिसमें चार लोग मारे गए और कई घायल हुए. 30 साल पुराना यह पुल ‘असुरक्षित’ माना गया था, लेकिन स्थानीय लोगों द्वारा कई सालों तक खतरे की चेतावनी देने के बावजूद, नए पुल के निर्माण का वर्क ऑर्डर देरी से हुआ और कथित तौर पर ढहने से सिर्फ पांच दिन पहले इसे जारी किया गया. पिछले साल नए पुल के लिए 8 करोड़ रुपये की मंजूरी दी गई थी, लेकिन नौकरशाही की लालफीताशाही के कारण यह बहुत देर हो चुकी थी. फिर भी, महाराष्ट्र की बीजेपी नीत सत्तारूढ़ गठबंधन के राजनेताओं ने गुस्से में कार्रवाई का वादा किया है, शायद तब तक, जब तक अगला पुल ढहने से एक और चेतावनी न मिले.

उत्तराखंड में लगातार हो रहे हवाई हादसे
15 जून को, उत्तराखंड में केदारनाथ मंदिर से गुप्तकाशी जा रहा एक हेलिकॉप्टर जंगल में दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें सात लोगों की मौत हो गई. चिंताजनक रूप से, यह क्षेत्र में 6 हफ्ते के अंदर में ऐसी पांचवीं घटना थी. इसने खराब मौसम में हेलिकॉप्टर सेवाओं की व्यवहार्यता पर सवाल उठाए. मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने मानक संचालन प्रक्रिया लागू करने का वादा किया है, जबकि DGCA ने अतिरिक्त निगरानी का आश्वासन दिया है. लेकिन फिर से एक बार बहुत देर से.

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प्रत्येक ऐसी त्रासदी एक परिचित पैटर्न की तरह दिखती है. सख्त सुरक्षा मानकों का पालन करने पर कम ध्यान दिया जाता है, जो ‘चलता है’ वाले रवैये को दर्शाता है. रोजमर्रा की शासन की कठिनाइयों पर ध्यान देने के बजाय, राजनीतिक दिखावे को प्राथमिकता दी जाती है. सुपरफास्ट ट्रेनें शुरू की जाती हैं, ज्यादा हवाई अड्डों को चालू किया जाता है, अधिक पर्यटन स्थल बनाए जाते हैं, अधिक चमकदार खेल समारोह आयोजित किए जाते हैं.

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सुशासन गुम

मोदी सरकार द्वारा 2047 तक विकसित भारत बनाने का लक्ष्य एक नेक उद्देश्य है. फिर भी, 1.4 अरब लोगों के इस देश में धरातल पर कठोर वास्तविकता अक्सर हवा में बुने जा रहे सपनों से मेल नहीं खाती. और फिर जब कभी-कभी कोई जर्जर पुल ढह जाता है, सामूहिक आयोजन से भगदड़ मचती है, या रेल या हवाई दुर्घटना होती है तो सत्ता में बैठे लोग सबसे पहले अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं. 

अंतत: लगभग सभी मामलों में यह गुमनाम भारतीय ही है जो अपनी जान गंवाता है. इन सभी घटनाओं में एक समानता है- लापरवाही, नियोजन की कमी और जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना. विकास के वादों के बीच बुनियादी सुरक्षा, जवाबदेही और सुशासन गुम है. जब तक सिस्टम में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होगी, भारत एक त्रासदी से दूसरी त्रासदी की ओर बढ़ता रहेगा. भारत में अगर कोई एक खेल है जिसमें हम ओलंपिक पदक के हकदार हैं, तो वह है ‘जिम्मेदारी टालना.’

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पोस्टस्क्रिप्ट: विडंबना यह है कि कुछ दिन पहले, एक बीबीसी जांच रिपोर्ट ने इस साल जनवरी में महाकुंभ भगदड़ में हुई मौतों की सच्चाई उजागर की. आधिकारिक तौर पर, यूपी सरकार ने दावा किया कि 37 लोग मारे गए, लेकिन बीबीसी की विस्तृत जांच में पाया गया कि यह संख्या कम से कम 82 थी. अगर हम मौतों के आंकड़े तक झूठ बोलते हैं, तो फिर जीवन का मोल ही क्या रह जाता है?

(लेखक: राजदीप सरदेसाई एक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
 

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