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शाही परंपरा... केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जैसे ही शमी के पौधे में लगाई तलवार, पत्तियां लूटने दौड़े लोग

दशहरे के पावन अवसर पर केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ग्वालियर शहर की मांढरे वाली माता स्थित दशहरा पार्क में शमी पूजन किया. इस दौरान सिंधिया परंपरा अनुसार राजसी पोशाक में नजर आए.

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तलवार से शमी पूजन करते केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया.(Photo:Screengrab)
तलवार से शमी पूजन करते केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया.(Photo:Screengrab)

भले ही रियासतें समाप्त हो गई हों, लेकिन मध्य प्रदेश के ग्वालियर में रियासतकालीन परंपराओं का निर्वहन आज भी जारी है. इसका उदाहरण है सिंधिया राजवंश. दशहरे के अवसर पर केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राजसी पोशाक में शमी पूजन किया और अपने महल में राजशाही अंदाज में दरबार लगाया. इस मौके पर उन्होंने सभी को दशहरे की शुभकामनाएं दीं.

शमी पूजन का यह दृश्य ग्वालियर के मांढरे की माता स्थित दशहरा पार्क का है. यहां सिंधिया राजवंश की आठवीं पीढ़ी का नेतृत्व करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया परंपरागत वेशभूषा में शमी पूजन स्थल पहुंचे. लोगों से मिलने के बाद उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा की. 

बेटे महान आर्यमन भी पिता ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ पूजा में मौजूद रहे.

जैसे ही उन्होंने म्यान से तलवार निकालकर शमी वृक्ष पर प्रहार किया, हजारों की संख्या में मौजूद लोग पत्तियां लूटने के लिए टूट पड़े. 

लोग इन पत्तियों को सोने के प्रतीक के रूप में महाराज को परंपरा के अनुसार भेंट करते हैं और अपने साथ भी ले जाते हैं.

सिंधिया परिवार की दशहरे पर 'शमी पूजन' की परंपरा सदियों पुरानी है. उस समय महाराजा अपने लाव-लश्कर और सरदारों के साथ महल से निकलते थे. सवारी गोरखी पहुंचती थी, जहां देव दर्शन के बाद शस्त्रों की पूजा होती थी. यह सिलसिला दोपहर तक चलता था.

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दरअसल, मान्यता है कि भगवान श्री राम लंका पर विजय हासिल कर लौटे तो उनकी सेना सोना भी साथ ले आई. उस सोने का अयोध्यावासियों में बांट दिया गया. इसी परंपरा से प्रेरित होकर ग्वालियर के राजपरिवार में शमी को सोने का प्रतीक मानकर इसकी पत्तियां महाराज को भेंट की जाती हैं. यह परंपरा दशहरे पर शुभकामनाओं के आदान-प्रदान का हिस्सा है.

महाराज बग्घी पर सवार होकर आते थे और लौटते समय हाथी के हौदे पर बैठकर जाते थे. शाम को शमी वृक्ष की पूजा के बाद वे गोरखी में देव दर्शन के लिए जाते थे. यह परंपरा आज भी निर्बाध जारी है.

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