...क्या आपने कभी गौर किया है कि 35 हजार फीट की ऊंचाई पर बादलों के बीच उड़ते हुए, आपका सबसे बड़ा संघर्ष 'ग्रेविटी' से नहीं, बल्कि उस 'आर्म-रेस्ट' मतलब हत्थे के लिए होता है, जिस पर पड़ोस वाली सीट का यात्री पहले ही कब्जा जमा चुका है. यह केवल आपकी परेशानी नहीं है, बल्कि यह आधुनिक विमानन उद्योग का सबसे बड़ा विरोधाभास है क्योंकि, एक तरफ ग्लोबल हेल्थ डेटा चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि इंसान का शरीर और वजन ऐतिहासिक रूप से बढ़ रहा है तो वहीं दूसरी तरफ, एयरलाइंस का गणित सीटों को इंच-दर-इंच छोटा कर रहा है. तो चलिए बायोलॉजी और इकोनॉमिक्स के इस 'तंग' होते रिश्ते की पड़ताल करते हैं.
यात्रियों का ये संघर्ष विमान के टेक-ऑफ होने के बाद ही शुरू हो जाता है. लोग अपनी सीट पर बुरी तरह से फंसे हुए महसूस करने लगते हैं. ऐसी स्थिति में न केवल सीट बेल्ट लगाने में दिक्कत होती है बल्कि उड़ान के दौरान शारीरिक दर्द का अनुभव भी होता है. सबसे ज्यादा मुश्किल तो तब होती है जब यात्री को शौचालय के लिए बाहर निकलना हो. अगर शरीर ज्यादा भारी हो या लंबा-चौड़ा शख्स हो तो कई बार तो सीट से बाहर निकलने के लिए पड़ोसी यात्रियों की मदद की भी जरूरत पड़ जाती है.
दूसरी ओर, एयर सेफ्टी के लिहाज से सबसे बड़ी चिंता ये है कि यदि आपातकालीन स्थिति में विमान को 90 सेकंड के भीतर खाली करना पड़े, तो फंसे हुए यात्री या वे यात्री जो सीट से मुश्किल से निकल पाते हैं, निकासी प्रक्रिया को धीमा कर देंगे, जिससे सभी यात्रियों की सुरक्षा को खतरा हो सकता है.
कितनी बदल चुकी हैं सीटें
दुनिया के ज्यादातर पैसेंजर विमानों में पहले की तुलना में आज हालात काफी बदल चुके हैं. स्काईट्रैक्स और अन्य उड्डयन एजेंसियों के आंकड़े बताते हैं कि इकोनॉमी क्लास में औसतन सीट पिच घटकर 30-31 इंच रह गई है. कुछ 'लो-कोस्ट कैरियर्स' में तो यह 28 इंच तक सिमट गई है. यही हाल सीट की चौड़ाई का भी है. जो चौड़ाई पहले 18.5 इंच हुआ करती थी, वह अब औसतन 17 इंच के आसपास आ गई है. यानी, आपके पास हिलने-डुलने के लिए जगह ऐतिहासिक रूप से सबसे कम है. यह संकीर्ण जगह बड़े शरीर वाले यात्रियों के लिए मुश्किल और असहज हो जाती है, खासकर लंबी यात्राओं में.
सिक्के के दूसरे पहलू को भी देखें
सीटों के सिकुड़ने के संकट का एक और पहलू भी है. एक तरफ विमान की सीटें सिकुड़ रहीं लेकिन दूसरी ओर इंसान फैलता जा रहा. यानी दुनियाभर में मोटापे की समस्या बढ़ती जा रही. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि 1975 के बाद से दुनिया भर में मोटापे की दर लगभग तीन गुना हो गई है. दुनिया में 1.9 अरब से अधिक वयस्क अधिक वजन के यानी ओवरवेट हैं जिनमें से 65 करोड़ से ज्यादा लोग ओबेसिटी के शिकार हैं. सीडीसी का डेटा बताता है कि 1960 के दशक में एक औसत अमेरिकी पुरुष का वजन लगभग 75 किलो था, जो अब बढ़कर 90 किलो के पार जा चुका है. यही ट्रेंड महिलाओं में भी है. भारत जैसे देशों में भी, जहां हवाई यात्रियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, शहरी मोटापे और बढ़ती कद-काठी के कारण यह समस्या अब आम हो गई है.
हाइलाइट्स...
-विमानों में सीट पिच और लेगरूम घटते जाना यात्रियों के लिए मुसीबत
-इकोनॉमी क्लास में सीट पिच 28 इंच तक सिमट चुकी है.
-यही हाल सीट की चौड़ाई का भी है. 18.5 से घटकर 17 इंच तक हुई.
-प्रीमियर इकोनॉमी-बिजनेस क्लास में एक्सट्रा स्पेस
-कई एयरलाइंस बाथरूम और किचन की सुविधा भी देती हैं.
कैसे शुरू हुई ये कंजूसी?
लेकिन, विमान सेवाएं हमेशा से ऐसी नहीं थीं. जब विमान सेवाएं शुरू हुईं तो उसमें घुसकर उड़ान भर लेना ही काफी होता था लेकिन 1950 के दशक के बाद ये सीन बदलने लगा. 1960 और 70 के दशक को विमानन का स्वर्ण युग कहा जाता है. उस समय, हवाई यात्रा विलासिता का प्रतीक हुआ करती थी. इकोनॉमी क्लास की सीटों के बीच की दूरी औसतन 35 इंच हुआ करती थी. जिसमें लोग आराम से पैर फैलाकर यात्रा किया करते थे. लेकिन 1978 में अमेरिका में एयरलाइन डीरेगुलेशन एक्ट आया, जिसने पूरी दुनिया के विमानन बाजार को बदल दिया. प्रतिस्पर्धा बढ़ी और किराया कम हुआ. मुनाफे के लिए एयरलाइंस ने सीटों को सिकोड़ना शुरू कर दिया.
जैसा खर्च, वैसा स्पेस
सवाल उठता है कि आखिर टिकट के हजारों रुपये लेने वाली एयरलाइंस कंपनियां सीटों की साइज में ये कंजूसी करती क्यों हैं? विमानन विशेषज्ञों के अनुसार, एक विमान में सीटों की एक या दो अतिरिक्त पंक्तियां जोड़ने से एयरलाइन को साल भर में लाखों डॉलर का अतिरिक्त राजस्व मिलता है. भौतिक भाषा में इसे घनत्व बढ़ाना कहा जाता है. सीटों का ये एडजस्टमेंट होता कैसे है, इसका भी अलग जुगाड़ है. सीटों के कुशन यानी गद्दे पतले कर दिए जाते हैं, ताकि घुटनों के लिए थोड़ी ज्यादा जगह का भ्रम पैदा किया जा सके, जबकि असल में जगह कम हो चुकी होती है.
इस नए आर्थिक मॉडल में जो लेगरूम पहले मुफ्त मिलती थी, अब उसके लिए 'प्रीमियम इकोनॉमी' के नाम पर एक्स्ट्रा पैसे लिए जाते हैं. हालांकि, ऐसा नहीं है कि सभी एयरलाइंस में लेगरूम एक जैसा ही मिले. कोई खुलकर फैलने के लिए ज्यादा जगह देता है तो किसी एयरलाइंस की कंजूसी यात्रियों को सिकुड़कर बैठने को मजबूर कर देती है. जेटब्लू, जापान एयर और टर्किश एयरलाइंस इकोनॉमी क्लास में 33 से 34 इंच तक की जगह देते हैं. अलास्का एयरलाइंस, साउथवेस्ट और एमिरेट्स पैसेंजर्स को 32 इंच तक जगह देते हैं. लेकिन वहीं, बजट एयरलाइंस में कम स्पेस पैसेंजर्स के लिए एडजस्ट करना मुश्किल बना देते हैं. यूरोप के दो बड़ी बजट एयरलाइंस- इजीजेट, रयानएयर सिर्फ 30 इंच की ही जगह देते हैं. तो उससे भी आगे बढ़कर अमेरिकन डिस्काउंस कैरियर स्पिरिट एयरलाइंस केवल 28 इंच जगह देता है.
हालांकि, ऐसा नहीं है कि हर प्लेन यात्री को सिकुड़कर ही यात्रा करना पड़ता है. ज्यादा पैसा पेमेंट करने पर एयरलाइंस खुलकर पैर फैलाने की जगह भी देती हैं. प्रीमियर इकोनॉमी-बिजनेस क्लास में एक्स्ट्रा स्पेस के मजे भी लोग लेते हैं. इन क्लासेज में 82 से 90 इंच तक जगह मिल जाती है. ऐसे में यात्रियों को इकोनॉमी क्लास की तरह यहां सीट के हत्थों यानी आर्मरेस्ट के बीच फिजिकली फिट होने में संघर्ष नहीं करना पड़ता है.
कई एयरलाइंस अपने यात्रियों के लिए लग्जरी स्पेस का भी वादा करने लगी हैं. फिलीपींस की सेबी एयरलाइंस तो प्लेन में यात्रियों के लिए किचेन और बाथरूम का भी वादा करती है. इसका एक कारण ये भी है कि इंटरनेशनल फ्लाइट्स में कई बार यात्रियों को 18-19 घंटे की उड़ान भी भरनी पड़ती है. सोचिए अगर प्लेन में किचेन और बाथरूम की सुविधा मिलने लगे को कौन नहीं चाहेगा.
कोर्ट भी पहुंचा था मामला
प्लेन में सीटों के साइज को रेगुलेट करने को लेकर अमेरिका में विमान नियामक एजेंसी के सामने सवाल भी उठा लेकिन उन्होंने ये कहते हुए इनकार कर दिया कि इमरजेंसी इवैकुएशन की स्थिति में भी ये सीटें तुरंत रेस्क्यू के हिसाब से डिजाइन की गई होती हैं तो ऐसे में रेगुलेट करने की जरूरत नहीं है. उन्होंने तर्क दिया कि इस बात के कोई सबूत मौजूद नहीं हैं कि इमरजेंसी के हालात में भारी से भारी कद के व्यक्ति के लिए सीट से कुछ सेकंड्स के अंदर निकलने में कोई मुश्किल आई हो.
यात्री अधिकारों की वकालत करने वाले समूहों ने अमेरिका की संघीय उड्डयन प्रशासन को कई बार कोर्ट में भी घसीटा. उनकी दलील थी कि सीटें इतनी छोटी हैं कि आपातकालीन स्थिति में 90 सेकंड के भीतर विमान खाली करना मुश्किल हो सकता है. लेकिन एजेंसियों का तर्क अभी भी सुरक्षा मानकों पर टिका है, न कि कंफर्ट पर.
इकोनॉमिक्स और बायोलॉजी की इस जंग में फिलहाल तो बायोलॉजी यानी हमारा शरीर हार रहा है और इकोनॉमिक्स यानी एयरलाइंसेज का मुनाफा जीत रहा है. अगली बार जब आप प्लेन की सीट पर कोहनी रखने के लिए संघर्ष करें, तो याद रखिएगा- आप अकेले नहीं हैं, पूरी दुनिया की कमर का घेरा बढ़ रहा है और आपके बैठने की जगह सिकुड़ रही है.
एक और रोचक फैक्ट ये भी है कि सीटों की स्पेस तो उनके लिए समस्या है जो लगातार प्लेन की यात्रा करते हैं. लेकिन जो लोग पहली बार प्लेन में यात्रा करने जाते हैं, उनके लिए बस एंट्री ही उत्सव बन जाता है, प्लेन के साथ पहली सेल्फी का कम क्रेज नहीं है दुनिया में. हां, और ऐसा करने वालों की संख्या कोई सैकड़ों या हजारों में नहीं है. एक आंकड़े के अनुसार हर साल दुनियाभर में 10 करोड़ लोग पहली बार प्लेन की यात्रा करते हैं. सोचिए इनके लिए प्लेन में एंट्री ही बड़ी बात है, अब चाहे सिकुड़कर ही क्यों न बैठना पड़े.