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'90 फीसदी से ज्यादा हिस्सा संरक्षित, फैलाया जा रहा भ्रम...', अरावली विवाद पर बोले पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव

केंद्र सरकार के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने समिति की उस सिफारिश को स्वीकार किया है, जिसके तहत संरक्षित क्षेत्र, इको-सेंसिटिव जोन, टाइगर रिजर्व, आर्द्रभूमि और इनके आसपास के क्षेत्रों में खनन पर पूरी तरह रोक रहेगी. केवल राष्ट्रीय हित में आवश्यक, रणनीतिक और गहराई में स्थित खनिजों के लिए सीमित छूट दी जा सकती .

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अरावली विवाद पर क्या बोले भूपेंद्र यादव (Photo: PTI)
अरावली विवाद पर क्या बोले भूपेंद्र यादव (Photo: PTI)

सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा को मंजूरी दी है, जिसे लेकर हंगामा बरपा हुआ है. इसे लेकर बड़े पैमाने पर पर्यावरणविदों और लोगों ने आपत्ति जताई है. लेकिन केंद्र सरकार ने रविवार को उन रिपोर्टों को खारिज कर दिया जिनमें दावा किया गया कि अरावली पहाड़ियों की परिभाषा में बदलाव से बड़े पैमाने पर खनन की अनुमति दी जा रही है.

सरकार ने स्पष्ट किया है कि इस पूरे क्षेत्र में नए खनन पट्टों पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की वजह से पहले ही रोक लगी हुई है. सरकार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूर किया गया एक ढांचा अरावली पर्वत श्रृंखला को पहले से कहीं अधिक मजबूत संरक्षण प्रदान करता है और तब तक नए खनन पट्टों पर पूरी तरह रोक लगाता है, जब तक कि एक व्यापक प्रबंधन योजना को अंतिम रूप नहीं दे दिया जाता.

पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने सुंदरबन टाइगर रिजर्व में पत्रकारों से बातचीत में कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत परिभाषा के तहत अरावली क्षेत्र का 90 फीसदी से अधिक हिस्सा संरक्षित क्षेत्र के दायरे में आ जाएगा. सरकार ने 100 मीटर के मानदंड को लेकर उठे विवाद के बीच जारी एक स्पष्टीकरण में कहा कि अरावली पहाड़ियों और पर्वतमालाओं की परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सभी राज्यों में मानकीकृत किया गया है, ताकि अस्पष्टता को दूर किया जा सके और उस दुरुपयोग को रोका जा सके, जिसके तहत पहाड़ियों के आधार के बेहद पास तक खनन जारी रहता था.

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पर्यावरण मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने अरावली क्षेत्र में अवैध खनन से जुड़े लंबे समय से लंबित मामलों की सुनवाई के दौरान मई 2024 में एक समिति का गठन किया था, ताकि एक समान परिभाषा की सिफारिश की जा सके. दरअसल, खनन की अनुमति देते समय अलग-अलग राज्य अलग-अलग मानदंडों का पालन कर रहे थे.

यह समिति पर्यावरण मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में गठित की गई थी, जिसमें राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली के प्रतिनिधियों के साथ तकनीकी संस्थानों के सदस्य शामिल थे. समिति ने पाया कि केवल राजस्थान में अरावली की एक औपचारिक परिभाषा पहले से मौजूद है, जिसे वह वर्ष 2006 से लागू कर रहा है.

इस परिभाषा के अनुसार, स्थानीय भू-आकृति से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई तक उठे भू-आकारों को पहाड़ी माना जाता है और ऐसी पहाड़ियों को घेरने वाले bounding contour के भीतर आने वाले पूरे क्षेत्र में खनन पर रोक होती है, भले ही उस घेरे के भीतर मौजूद भू-आकारों की ऊंचाई या ढलान कुछ भी हो.

सूत्रों ने बताया कि चारों राज्यों ने लंबे समय से लागू राजस्थान मॉडल को अपनाने पर सहमति जताई है, साथ ही इसे और अधिक वस्तुनिष्ठ और पारदर्शी बनाने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा उपाय भी जोड़े गए हैं.

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इन उपायों में 500 मीटर के भीतर स्थित पहाड़ियों को एक ही पर्वतमाला मानना, किसी भी खनन निर्णय से पहले सर्वे ऑफ इंडिया के नक्शों पर पहाड़ियों और पर्वतमालाओं की अनिवार्य मैपिंग करना, तथा कोर और अविनाशी (इनवायोलेट) क्षेत्रों की स्पष्ट पहचान शामिल है, जहां खनन पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगा.

सरकार ने एक पृष्ठभूमि नोट में इस दावे को भी खारिज किया कि 100 मीटर से नीचे के क्षेत्रों में खनन की अनुमति दे दी गई है. उसने कहा कि प्रतिबंध केवल पहाड़ी की चोटी या ढलान तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे पहाड़ी तंत्र और उसके भीतर आने वाले भू-आकारों पर लागू होता है. सरकार ने कहा कि यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि 100 मीटर से नीचे के सभी भू-आकार खनन के लिए खुले हैं.

सरकार ने कहा कि राजस्थान, हरियाणा और गुजरात के जिलास्तरीय विश्लेषण से पता चलता है कि वर्तमान में कानूनी रूप से स्वीकृत खनन अरावली क्षेत्र के कुल भौगोलिक क्षेत्र का केवल लगभग 0.19 फीसदी ही है. ये 37 अरावली जिलों में फैला हुआ है. दिल्ली, जहां अरावली के पांच जिले आते हैं, वहां किसी भी प्रकार के खनन की अनुमति नहीं है. सरकार ने कहा कि अरावली के लिए सबसे बड़ा खतरा अब भी अवैध और अनियंत्रित खनन ही है. इसे रोकने के लिए समिति ने निगरानी और प्रवर्तन को मजबूत करने तथा ड्रोन और निगरानी तकनीक जैसे आधुनिक साधनों के उपयोग की सिफारिश की है.

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