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संघ के 100 साल: विजय दिवस आज, गोलवलकर ने इंदिरा को लिखा था- आपके नेतृत्व में भारत का गौरव...

आज विजय दिवस है. 54 साल पहले आज ही के दिन पाकिस्तान ने ढाका में समर्पण किया था और बांग्लादेश नाम के एक नए राष्ट्र का निर्माण हुआ था. संघ ने पाकिस्तान के हश्र और 1971 के युद्ध की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है उसी घटना का वर्णन.

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गोलवलकर ने कहा था कि पाकिस्तान के विभाजन से भारत को खुश नहीं होना चाहिए. (Photo: AI generated)
गोलवलकर ने कहा था कि पाकिस्तान के विभाजन से भारत को खुश नहीं होना चाहिए. (Photo: AI generated)

आज जिस तरह से शेख हसीना को भारत में शरण लेनी पड़ी है, बांग्लादेश में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे रहे हैं और हिंदुओं पर अत्याचार के मामलों में वृद्धि हुई है, गुरु गोलवलकर की भविष्यवाणी सच साबित होती लग रही है. ऐसा नहीं था कि 1971 में बांग्लादेश निर्माण से गुरु गोलवलकर खुश नहीं थे, वो खुश थे, लेकिन उनको अंदाजा था कि एक दिन हिंदू विरोध के नाम पर ये दोनों इस्लामिक राष्ट्र फिर हाथ मिला सकते हैं. इसके लिए उन्होंने इतिहास से बहमनी साम्राज्य का उदाहरण दिया था. ये अलग बात है कि एक तरफ जहां उन्होंने इस युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी सरकार को पूरा समर्थन देने का ऐलान किया था, दूसरी तरफ ताशकंद समझौते की तरह वह शिमला समझौते से भी कतई खुश नहीं थे.  
 
गोलवलकर ने युद्ध की भी पहले ही कर दी थी भविष्यवाणी

गुरु गोलवलकर 1970 की विजया दशमी से ही इस संबंध में कड़ी चेतावनी दे रहे थे. नागपुर में 10 अक्टूबर को विजया दशमी समारोह में उन्होंने आगाह किया था कि जिस तरह से पूर्वी पाकिस्तान की बंगाली जनता को पाकिस्तान की फौजें यातना दे रही हैं, कहर बरपा रही हैं. उससे साफ लगता है कि एक ना एक दिन भारत को इसमें कूदना ही होगा. ये बात उन्होंने केवल एक बार नहीं कही. बल्कि कई बार अलग अलग मंचों से बोली. 22 नवंबर को दिल्ली के स्वयंसेवकों की सभा में, 8 जुलाई, 1971 को नागपुर में गुरु पूर्णिमा समारोह में, 24 अक्टूबर को जम्मू में एक जनसभा में और 26 नवंबर को जयपुर में एक जनसभा में दिए गए उनके भाषणों से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने आने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी कर दी थी और उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई. इसके साथ ही वो संघ के स्वयंसेवकों को भी लगातार चेताते आ रहे थे कि कभी भी देश को उनकी सहायता की जरूरत पड़ सकती है. यूं भी युद्ध से पहले शरणार्थी आने शुरू हो गए थे, उनकी सेवा में तो स्वयंसेवक लगे ही थे, पूरे देश में लगभग दो लाख स्वयंसेवकों ने सेना के लिए भी प्रभावी सहायता प्रदान की और लोगों को असामाजिक तत्वों से बचाया.

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गुरु गोलवलकर ने 1971 में संघ के प्रशिक्षण शिविरों में अपने प्रत्येक भाषण में पूर्वी पाकिस्तान में व्याप्त विस्फोटक स्थिति के खतरनाक परिणामों के बारे में चेतावनी दी थी. 28 जून, 1971 को उन्होंने अपना दौरा पूरा किया और नागपुर लौट आए. इस समय तक, स्थिति गंभीर हो चुकी थी. हिंदू शरणार्थियों की संख्या बढ़कर तीस लाख से अधिक हो गई थी. संघ ने पहले ही वस्तुहारा सहायता समिति के माध्यम से राहत अभियान शुरू कर दिया था. राहत सामग्री जुटाने के लिए देशव्यापी अभियान भी चलाया गया और शरणार्थी शिविरों में बड़े पैमाने पर अनाज, कपड़े और दवाइयां वितरित की गईं.

संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी की बैठक 8, 9 और 10 जुलाई 1971 को नागपुर में हुई और उसने बांग्लादेश की स्थिति पर एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें सरकार से विभाजन के समय पाकिस्तान के हिंदुओं को दिए गए अपने गंभीर वादे को निभाने का आह्वान किया गया, जिसमें उन्हें सुरक्षा और संरक्षा का आश्वासन दिया गया था. गुरु गोलवलकर ने स्वयंसेवकों से सतर्क रहने, सभी आवश्यक सहायता प्रदान करने और जन मनोबल को ऊंचा बनाए रखने का आह्वान किया. जब वे अक्टूबर में पंजाब गए, तो उन्हें सूचित किया गया कि इन सभी मामलों में स्वयंसेवकों द्वारा उनके आह्वान का पालन किया गया था और सेना भी पूरी तरह से युद्ध के लिए तैयार थी.

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गोलवलकर ने एकता का संदेश घर-घर पहुंचाया

अंततः, 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने हमला बोलकर युद्ध की शुरुआत कर दी. उस समय, नागपुर में युवा स्वयंसेवकों के लिए एक प्रशिक्षण शिविर चल रहा था. गुरु गोलवलकर ने आक्रमण और नागरिकों की जिम्मेदारी के संबंध में तुरंत एक बयान जारी किया. स्वयंसेवकों ने उनके बयान की लाखों प्रतियां घर-घर जाकर वितरित कीं. 4 दिसंबर 1971 को जारी अपने बयान में, गुरु गोलवलकर ने देशवासियों से राजनीतिक और अन्य सभी मतभेदों से ऊपर उठकर एक होकर पाकिस्तानी आक्रमण को विफल करने की अपील की. ​​उन्होंने कहा, "मातृभूमि के प्रति सच्चे प्रेम से प्रेरित एकता ही हमें विजय दिला सकती है."

युद्ध 3 दिसंबर को शुरू हुआ और 16 दिसंबर को ढाका में पाकिस्तानी सेनाओं के आत्मसमर्पण के साथ समाप्त हुआ. गुरुजी ने युद्ध में प्रदर्शित अद्वितीय शौर्य और शानदार रणनीति के लिए सेना की जमकर प्रशंसा की. ढाका को जिस गति से आत्मसमर्पण कराया गया, वह सचमुच आश्चर्यजनक था. गुरुजी को हमारी सशस्त्र सेनाओं की क्षमता और योग्यता पर पूरा भरोसा था. जब उनसे पूछा गया कि अगर अमेरिकी सातवें बेड़े ने हस्तक्षेप किया होता तो क्या होता, तो उन्होंने उत्तर दिया, "तब अमेरिकियों को भी भारतीय हथियारों की जबरदस्त मारक क्षमता का अनुभव होता."

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बांग्लादेश की बहमनी साम्राज्य से तुलना

एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा कि, “पाकिस्तान के विभाजन पर प्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है. हम अपने अतीत के इतिहास से सीखते हैं कि बहमनी साम्राज्य के पांच भागों में विभाजित होने के बाद भी, जब अवसर आया तो उन सभी ने मिलकर हिंदू राज्यों को नष्ट कर दिया”. 1971 के बाद बांग्लादेश में जो आमूलचूल परिवर्तन हुआ, वह केवल यह दर्शाता है कि गुरु गोलवलकर की धारणा कितनी सत्य थी. उस समय सैन्य तानाशाही ने लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता दोनों को कुचल दिया था और शरणार्थियों का प्रवाह तथा मुसलमानों की घुसपैठ भारत में जारी रही और आज भी बेरोकटोक जारी है. बस पहली बार वो डरते हुए नजर आ रहे हैं.
 
जब गोलवलकर और इंदिरा गांधी ने लिखे एक दूसरे को पत्र

बांग्लादेश युद्ध की समाप्ति पर गुरु गोलवलकर ने 22 दिसंबर को इंदिरा गांधी को बधाई पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने लिखा: “देश की एकता, स्थिति का यथार्थवादी आकलन और देश के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने का दृढ़ संकल्प इसी प्रकार बना रहे. यह न केवल संकट के समय में, बल्कि सर्वकालिक और राष्ट्रीय पुनर्जागरण के सभी कार्यों के लिए आवश्यक है. राष्ट्रीय गौरव से ओतप्रोत राष्ट्रीय एकता की शक्ति के निर्माण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आपके साथ है और सदा आपके साथ रहेगा. मुझे विश्वास है कि देश के प्रतिनिधि के रूप में आप हमारी घरेलू और विदेश नीतियों का निर्धारण करते समय इन सभी कारकों को ध्यान में रखेंगी. आपके नेतृत्व में भारत का गौरव इसी प्रकार बढ़ता रहे.”
 
इंदिरा गांधी का इस पत्र का उत्तर जनवरी के मध्य में प्राप्त हुआ. उसी महीने संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी ने भी युद्ध में मिली शानदार जीत पर बधाई प्रस्ताव पारित किया. इंदिरा गांधी ने उस जीत की लहर पर सवार होकर 1972 में हुए विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत प्राप्त किया.
 
शिमला समझौते से खुश नहीं थे गोलवलकर

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युद्ध समाप्त होने के बाद, गुरु गोलवलकर ने यह राय व्यक्त की कि पश्चिमी मोर्चे पर सेना को खुली छूट नहीं दी गई थी. 1972 के शिमला समझौते ने भी युद्ध के मोर्चे पर सेना द्वारा प्राप्त सभी उपलब्धियों को व्यर्थ कर दिया था. इस समझौते के तहत भारत को अपने सशस्त्र बलों द्वारा कब्जा किए गए सभी क्षेत्रों को छोड़ना पड़ा. रक्षा मंत्री ने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी कि 'आज़ाद' कश्मीर वास्तव में भारतीय क्षेत्र है, और आश्वासन दिया था कि भारत के सशस्त्र बल अपनी वर्तमान स्थिति से एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे. लेकिन राजनीति ने अपना खेल खेला और शिमला समझौता पर हस्ताक्षर हो गए. कूटनीति की दृष्टि से यह विजय 1965 की विजय से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी. यदि वार्ता के समय इसका लाभ उठाया गया होता, तो हमारे वीर जवानों की उपलब्धि व्यर्थ नहीं जाती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

भारतीय सेना को अपने द्वारा जीते गए सभी क्षेत्रों को आत्मसमर्पण करना पड़ा और वापस लौटना पड़ा औऱ करीब 90 हजार कैदियों को भी छोड़ना पड़ा. गुरु गोलवलकर ने शिमला समझौते की कड़ी आलोचना की. युद्धविराम के समय जो भी उम्मीदें जगी थीं, उनमें से एक भी पूरी नहीं हुई. कश्मीर का मुद्दा अभी भी अनसुलझा था और पाकिस्तान पहले की तरह ही अड़ियल बना रहा. इस संदर्भ में बोलते हुए गोलवलकर ने सरकारी नेताओं की विचारहीन नीतियों की कड़ी निंदा की और कहा कि भारत युद्ध रणनीति के उन सिद्ध सिद्धांतों का पालन नहीं कर रहा है, जिनके अनुसार शत्रु का एक भी अंश नष्ट नहीं होना चाहिए. परिणामस्वरूप, विजय हार में परिवर्तित हो गई और देश को एक के बाद एक विपत्तियों का सामना करना पड़ा.
 
‘बांग्लादेश को भारत में शामिल करने का हो विकल्प’

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गुरु गोलवलकर को ये भी अंदेशा था कि कल को बांग्लादेश भी पाकिस्तान की तरह कट्टर इस्लामिक राष्ट्र बनने की कगार जा सकता है. जबकि वो तब एक धर्मनिरपेक्ष देश बनने की बात कर रहा था, गुरु गोलवलकर ने इस मुद्दे पर कहा था कि, "अगर यह धर्मनिरपेक्ष, लेकिन धर्मविरोधी नहीं, स्वरूप का पालन करे तो अच्छा होगा, उन्होंने पहले ही आश्वासन दिया है कि कोई धार्मिक भेदभाव नहीं होगा. उम्मीद है कि वे अपने आश्वासनों पर खरे उतरेंगे."

RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 

इससे भी दो कदम आगे बढ़ गए थे गुरु गोलवलकर, उन्होंने सुझाव दिया था कि अगर बांग्लादेश भारत में शामिल होना चाहे तो उसको ये विकल्प देना चाहिए. उन्होंने कहा था कि, “मेरा मानना ​​है कि फिलहाल पूर्वी बंगाल को भारत में हमारे राज्य परिवार में शामिल होने या एक स्वतंत्र पड़ोसी बने रहने का विकल्प दिया जाना चाहिए।"
 
1971 के युद्ध में क्या क्या कर रहे थे संघ के स्वयंसेवक

बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान आरएसएस ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और भारतीय सरकार को पूर्ण समर्थन दिया, स्वयंसेवकों (आरएसएस के स्वयंसेवकों) ने खाइयां खोदने, रसद संबंधी सहायता प्रदान करने और सीमावर्ती क्षेत्रों में राहत कार्यों में भाग लेकर सशस्त्र बलों की सक्रिय रूप से सहायता की. आरएसएस के स्वयंसेवक भारतीय सेना के लिए बड़े पैमाने पर रक्तदान शिविर आयोजित करने वाले पहले संगठन थे, जिन्होंने घायल सैनिकों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. इन्हीं सब प्रयासो को देखकर फील्ड मार्शल करियप्पा ने कहा था कि, "RSS is my heart's work...The country is standing in need of your services."

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उस वक्त तक बालासाहेब देवरस ने भी युद्ध से सम्बंधित काफी राहत कार्यों की कमान अपने हाथों में ले ली थी. आरएसएस स्वयंसेवकों ने पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा में राहत शिविर स्थापित किए. इन शिविरों ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पाकिस्तानी अत्याचारों से भाग रहे लाखों बंगाली हिंदू शरणार्थियों को भोजन, आश्रय, चिकित्सा सहायता और पुनर्वास सहायता प्रदान की. आरएसएस ने 1971 में विदर्भ-नागपुर में एक बड़ा प्रांतीय शिविर आयोजित किया, जिसमें 10,000 से अधिक स्वयंसेवकों ने भाग लिया, जिससे मनोबल बढ़ा और युद्ध से संबंधित स्वयंसेवी प्रयासों का समन्वय हुआ.
 
BSF को सहायता करते वक्त स्वयंसेवक ने जान दे दी, बना है स्मारक

पश्चिम बंगाल के रायगंज में, मदन लाल वर्मा नामक एक आरएसएस स्वयंसेवक ने सीमा पार से पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ की आशंका जताते हुए बीएसएफ कर्मियों को सतर्क करके महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें अग्रिम मोर्चे पर बारूद के कार्टन पहुंचाने का जिम्मा सौंपा गया था, जहां उन्होंने बीएसएफ जवानों के साथ मिलकर भीषण गोलीबारी के बीच महत्वपूर्ण रसद सहायता प्रदान की. वर्मा इस लड़ाई में शहीद हो गए और रायगंज में उनकी याद में एक शहीद स्मारक बनाया गया है. यह घटना दर्शाती है कि किस प्रकार आरएसएस स्वयंसेवकों ने युद्ध के पूर्वी मोर्चे पर सीमा सुरक्षा को समर्थन देने के लिए जमीनी स्तर पर रसद सहायता प्रदान की, जिसमें सामग्री परिवहन और खुफिया जानकारी साझा करना शामिल था.

पिछली कहानी: 1965 में सीजफायर की खबर सुनकर निराश हो गए थे गुरु गोलवलकर

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