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संघ के 100 साल: ऐसे बीते गुरु गोलवलकर के आखिरी दिन, अंतिम संस्कार के वक्त पढ़ी गईं तीन चिट्ठियां

जब गुरु गोलवलकर की मृत्यु हुई तो उनका पार्थिव शरीर नागपुर में अंतिम दर्शन के लिए रखा गया. वहीं पर गोलवलकर द्वारा लिखित और मुहरबंद तीन पत्र खोले गए. इन पत्रों में उन्होंने अपनी आखिरी इच्छा व्यक्त की, अपनी भूलों के लिए क्षमा याचना की और संत तुकाराम की रचना का उल्लेख किया. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है उसी घटना का वर्णन.

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गोलवलकर की मृत्यु के बाद उनके तीन पत्र खोले गए. (Photo: AI generated)
गोलवलकर की मृत्यु के बाद उनके तीन पत्र खोले गए. (Photo: AI generated)

भारत-पाक 1971 के युद्ध के दौरान कई तरह के राहत, सहायता कार्यों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो लाख स्वयंसेवक जुटे थे. उसी दौरान काफी कुछ जिम्मेदारियां बालासाहब देवरस ने संभाल रखी थीं. गुरु गोलवलकर अब थोड़ा थकने लगे थे. हालांकि डॉ प्रफुल्ल देसाई नागपुर में रहते हुए लगातार उनका चेकअप करते रहते थे. लेकिन जिस आराम की उन्हें जरूरत थी, वो उतना क्या आधा भी नहीं लेते थे. संघ की इतनी चिंता रहती कि शायद ही किसी कार्यक्रम या प्रवास की मना करते थे.

गुरु गोलवलकर खुद भी अपनी हालत से परिचित थे. जनवरी 1972 में वे उत्तर प्रदेश के दौरे पर थे. लगातार यात्रा और निरंतर कार्यक्रमों ने उन्हें पूरी तरह थका दिया था. अलीगढ़ से मेरठ तक कार से यात्रा के दौरान उन्होंने साथ चल रहे कार्यकर्ताओं से अर्थपूर्ण ढंग से कहा, “ज़रा मेरी हालत पर गौर कीजिए; आप लोग मुझे हर पल दौड़ाते रहते हैं.” गोवा के दौरे में भी उन्होंने माना कि उन्हें अब थकान होने लगी है. 25 जुलाई से 18 अगस्त तक उन्हें इंदौर के पंडित राम नारायण शास्त्री जी के यहां ना चाहते हुए भी विश्राम करना पड़ा. वहां से सितंबर के अंत तक वे राजस्थान चले गए. वहां 4 अक्टूबर को उन्हें बुखार हो गया. फिर भी वह अजमेर के सभी कार्यक्रमों में गए. उसके बाद जोधपुर गए और वहां से जयपुर के लिए रवाना हुए.

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जयपुर में गुरु गोलवलकर इतने ज्यादा बीमार हुए कि रात भर सो नहीं पाए, तापमान 103 डिग्री पर था, फिर भी वो अपनी पहले से तय एक बैठक को रद्द करने को तैयार नहीं थे. लेकिन जब आवाज ही निकालना गले से भारी पड़ गया तो उसे रद्द करना ही पड़ा. अब शरीर का तापमान 105 पहुंच गया था. डॉक्टरों ने उनके साथ के सभी स्वयंसेवकों को डांट तक दिया कि इनके स्वास्थ्य के साथ क्यों खेल रहे हो. पहली बार गुरु गोलवलकर को भी लगा कि उनका उनके शरीर पर अब पहले जैसा नियंत्रण नहीं रह गया है. ये बात सुबह जब बुखार उतरा तो चाय पीते समय उन्होंने साथी स्वयंसेवकों से कही भी, बोले, “ये पहली बार है कि मैं खुद पर ही नियंत्रण खो रहा हूं, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ”. हालांकि तबीयत सही होते ही फिर से उन्होंने आराम के बजाय काम का रास्ता अपनाया.
 
1970 में हुआ था कैंसर का ऑपरेशन

यह स्वाभाविक ही था बिना विश्राम या शरीर की चिंता के लगातार काम और प्रवास गुरु गोलवलकर के स्वास्थ्य पर असर डालने लगे थे. जब वो 60 वर्ष के हुए, तब स्वास्थ्य पर ये असर साफ दिखने लगा था. मई 1970 में, उनकी छाती में एक गांठ पाई गई. पता चला यह कैंसर था. फिर भी, उन्होंने मई और जून के अपने निर्धारित दौरे के पूरा होने के बाद ही इसका इलाज कराने का निर्णय लिया. 1 जुलाई को टाटा कैंसर अस्पताल में डॉ. प्रफुल्ल देसाई ने उनका ऑपरेशन किया. डॉ. देसाई उस समय संघ की गतिविधियों से अपरिचित थे. गुरु गोलवलकर के बारे में उन्होंने लिखा, “मैं सोच रहा था कि 65 वर्ष की आयु में गुरुजी इतनी गहन और लंबी सर्जरी कैसे सहन कर पाएंगे. लेकिन जिस शांति, साहस और सहयोग के साथ उन्होंने पूरी प्रक्रिया को सहन किया, और उनके चेहरे से मुस्कान कभी नहीं हटी, वह अद्भुत था. वे अगले ही दिन चलने-फिरने लगे.”

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गोलवलकर ने डॉक्टर से पूछा कि ऑपरेशन के बाद वे कितने दिन जीवित रहेंगे. उनका जवाब पाकर बोले, “वाह! बहुत बढ़िया! इसका मतलब है कि मेरे पास बहुत समय है. मुझे बहुत काम करना है!” डॉ. देसाई ने नियमित जांच जारी रखी और जल्द ही गुरु गोलवलकर अपनी दिनचर्या में लौट आए, पत्र लिखने, यात्रा करने, स्वयंसेवकों से मिलने आदि में व्यस्त हो गए.
 
अंतिम समय निकट देखकर बुलाया विशेष अखिल भारतीय वर्ग

लेकिन अब गुरु गोलवलकर ये सोचने लगे थे कि वे कब तक इस तरह रह पाएंगे? वे लगातार यात्राएं करने में असमर्थ थे. सीपी भिषिकर गुरु गोलवलकर की जीवनी में लिखते हैं कि, “इसलिए गुरुजी ने हिंदू परंपरा के अनुसार प्रमुख कार्यकर्ताओं से अंतिम वार्ता करने का निर्णय लिया. तदनुसार, महाराष्ट्र के ठाणे में प्रमुख कार्यकर्ताओं के लिए एक अखिल भारतीय अध्ययन शिविर आयोजित करने का निर्णय लिया गया. इसमें संघ के प्रचारकों और वरिष्ठ पदाधिकारियों के साथ-साथ राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत महत्वपूर्ण स्वयंसेवकों को आमंत्रित किया गया. शिविर 28 अक्टूबर से 3 नवंबर तक चला, लेकिन गुरुजी की हालत देखकर कार्यकर्ता अत्यंत व्याकुल हो गए. उनके मन में अशुभ विचार छा गए.

ठाणे में आयोजित शिविर पांडुरंग शास्त्री अठावले के तत्वज्ञान विद्यापीठ में था. ऐसा लग रहा था मानो कोई गुरु अपने नश्वर शरीर को त्यागने से पहले अपने शिष्यों को अपने जीवन दर्शन का अंतिम उपदेश दे रहा हो. गहन ज्ञान और स्पष्टता के साथ, गुरुजी ने आधुनिक जीवन के तुलनात्मक उदाहरणों और संदर्भों के आधार पर हिंदू जीवन के शाश्वत सांस्कृतिक आधार का प्रतिपादन किया.
 
‘हिंदू ही क्यों? भारतीय क्यों नहीं’

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शिविर में उठाया गया पहला प्रश्न यही था: हमें हर समय ‘हिंदू’, ‘हिंदू’ का जाप क्यों करते रहना चाहिए? देश की मौजूदा स्थिति को देखते हुए, क्यों न हम इस शब्द को त्यागकर ‘भारतीय’ या कोई अन्य उपयुक्त शब्द अपना लें? ऐसा करने से संघ पर सांप्रदायिकता का आरोप नहीं लगेगा. चूंकि कुछ लोग अक्सर संघ को संकीर्ण सोच वाला और सांप्रदायिक कहते थे, इसलिए इस संदेह को दूर करना आवश्यक था. स्वयं गुरु गोलवलकर ने इस मुद्दे का जवाब दिया, कहा: ‘यह सत्य है कि ‘हिंदू’ शब्द के बारे में तरह-तरह की भ्रांतियां फैलाने का प्रयास किया जा रहा है. विभिन्न स्वार्थी तत्व यह प्रचार कर रहे हैं कि संघ की ‘हिंदू’ की अवधारणा मुस्लिम-विरोधी, ईसाई-विरोधी, जैन-विरोधी, हरिजन-विरोधी आदि है. हालांकि, यह आरोप किसी ठोस आधार पर आधारित नहीं है. यदि ऐसा करने वाले लोगों ने संघ के विचारों में परिलक्षित हमारे देश के धर्म, संस्कृति और इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन किया होता, तो वे संघ के खिलाफ ऐसे झूठे आरोप नहीं लगाते.’

RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 

उन्होंने कहा कि, “हमारी हिंदू विचारधारा और हिंदू जीवन शैली इस भूमि पर हजारों वर्षों से विद्यमान और फल-फूल रही है, ईसाई धर्म और इस्लाम के जन्म से भी बहुत पहले तो फिर हिंदू धर्म मुस्लिम विरोधी कैसे हो सकता है? सिख धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म जैसे संप्रदायों की बात करें तो वे सभी वास्तव में 'हिंदू' की विशाल अवधारणा में समाहित हैं. जो स्वयं को हिंदू कहने से इनकार करते हैं, वे उस अंग के समान हैं जो अपने मुख्य शरीर से अलग होने का प्रयास कर रहा है, जो कि आत्महत्या के समान ही है. हिंदू विचार न केवल अपने दृष्टिकोण में हमेशा सकारात्मक रहा है, बल्कि सर्वसमावेशी भी रहा है”. गुरु गोलवलकर का शायद ये आखिरी बौद्धिक रहा होगा, जिसमें उन्होंने बहुत देर तक अलग अलग तर्कों, तथ्यों और अवधारणाओं का उदाहरण देकर समझाया कि संघ ना तो साम्प्रदायिक है और ना ही किसी सम्प्रदाय के खिलाफ है, लेकिन अपनी सनातनी संस्कृति पर गर्व करता है. उन्होंने आर्य शब्द पर काफी कुछ बोला और ये बताया कि किस तरह हिंदू, भारतीय, आर्य, सनातनी इन शब्दों में उलझाकर विरोधी शक्तियां हमारे ही स्वयंसेवकों के मन में संशय उत्पन्न करना चाहते हैं. लेकिन उनके इस बौद्धिक ने संशय के सारे बादल शिविर में मौजूद स्वयंसेवकों के मन से हटा दिए.
 
स्वयंसेवकों की थी कामना, गुरुजी का संबोधन जल्द खत्म हो

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गुरु गोलवलकर ने ठाणे शिविर के बाद भी अपनी यात्राएं जारी रखीं. 4 फरवरी 1973 को, बैंगलोर में, उन्होंने एक घंटे तक धाराप्रवाह अंग्रेजी में सार्वजनिक भाषण दिया, वह भी खड़े होकर. हजारों स्वयंसेवकों और अन्य नागरिकों से भरे श्रोताओं में से किसी को भी यह आभास नहीं हुआ कि वे जल्द ही इस नश्वर संसार को त्यागने वाले हैं. 25 मार्च को, उन्होंने नागपुर में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के अवसर पर, देश भर के महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं को अपना अंतिम सम्बोधन दिया. उन्हें सुन रहे स्वयंसेवक कामना कर रहे थे कि वे अपना सम्बोधन जल्द समाप्त कर दें क्योंकि उन्हें हर शब्द बोलने में कठिनाई हो रही थी. लेकिन अपनी खराब सेहत के बावजूद, वह 40 मिनट तक बोलते रहे. उन्होंने कहा, “हमारे सभी प्रयासों का एकमात्र उद्देश्य हमारे राष्ट्र को विश्व स्तर पर सम्मान दिलाना होना चाहिए”, उन्होंने जोर देते हुए कहा, “परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, इस विश्वास के साथ अपने मार्ग पर चलें कि एक दिन ‘हिंदू’ शब्द को सर्वत्र मान्यता मिलेगी.” और उन्होंने अपने भाषण का समापन यह कहते हुए किया, “विजय ही विजय है”.
 
अंतिम वर्ग में नहीं जा पाए

मई माह में नागपुर में संघ का तृतीय वर्ष शिक्षा वर्ग चल रहा था. गुरु गोलवलकर के लिए वर्ग में उपस्थित होना संभव नहीं था. इसलिए, उनकी प्रबल इच्छा को ध्यान में रखते हुए, प्रांतवार स्वयंसेवकों को संघ कार्यालय में उनसे मिलने के लिए आमंत्रित किया गया. ​​यह कार्यक्रम 16 से 25 मई तक चला. बाद में यह कार्यक्रम भी जारी नहीं रह सका. देश के विभिन्न हिस्सों से स्वयंसेवक और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति उनके स्वास्थ्य के बारे में जानने के लिए संघ कार्यालय आते रहे. 3 जून को जब राष्ट्र सेविका समिति की संचालिका, मौसी केलकर उनसे मिलने आईं, तो उन्होंने अर्थपूर्ण ढंग से कहा, "मैं पूरी तरह तैयार हूं।"
 
4 जून की शाम को जब उनकी सेवा में लगे कर्मचारी मालिश करने के लिए तेल की बोतल लेकर आए, तो वह खाली थी. उन्होंने मज़ाक में कहा, “अब तो बस हो गया! अच्छा हुआ. कल मालिश करने कौन आएगा?” 5 जून की सुबह उन्होंने स्नान किया और अपनी नियमित सीट पर बैठकर ध्यान लगाया. इसी दिन रात 9:30 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली.
 
उनके तीन अंतिम पत्र और उत्तराधिकारी का नाम

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गुरु गोलवलकर का पार्थिव शरीर नागपुर के महल कार्यालय के सामने रखा गया. 6 जून की सुबह शोक संतप्त लोग वहां उमड़ पड़े. गुरु गोलवलकर द्वारा लिखित और मुहरबंद तीनों पत्र खोले गए और पढ़े गए. महाराष्ट्र प्रांत के संघचालक बाबासाहब भिडे ने पहला पत्र पढ़ा, जिसमें बालासाहब देवरस को संघचालक का प्रभार सौंपा गया था. अन्य दो पत्र बालासाहब देवरस ने पढ़े. दूसरे पत्र में गुरु गोलवलकर ने संकेत दिया था कि संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के अलावा किसी और के लिए स्मारक बनाना उचित नहीं है. तीसरे पत्र में उन्होंने विनम्रतापूर्वक लिखा था, “यदि मैंने कभी जानबूझकर या अनजाने में किसी को भी दुख पहुंचाया हो, तो मैं उन सभी से हाथ जोड़कर क्षमा मांगता हूं. पत्र में संत तुकाराम की एक अभंग (रचना) का भी उल्लेख किया गया था, जिसका अर्थ है...

“हे संतजनो! मेरी अंतिम विनती को
भगवान तक पहुंचा दीजिए कि वे मुझे न भूलें.
वे सब कुछ जानते हैं; इससे अधिक क्या कहूं.
तुकाराम कहता है, अपना सिर उनके चरणों में रखकर
मैं सदा उनकी कृपा की छाया में बना रहूं.“

रेशमबाग (नागपुर) में डॉक्टर हेडगेवार की समाधि के पास चंदन की चिता पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. बाद में भगवा ध्वज फहराया गया और वहां उपस्थित हजारों लोगों ने शोकग्रस्त स्वर में संघ की प्रार्थना गाई. भारत माता की जय का उच्चारण करने के बाद सभी स्वयंसेवक भारी मन से अपने घर लौट गए. अब रेशमबाग में दो सरसंघचालकों की समाधि है. डॉ. हेडगेवार की प्रतिमा स्मृति मंदिर की ऊपरी मंजिल पर विराजमान है और गुरु गोलवलकर स्मृति चिन्ह (एक प्रतीकात्मक स्मृति) के रूप में विराजमान हैं.

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