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संघ के 100 साल: बालासाहब ना होते तो दशकों पहले ही गुमनामी में चले जाते गोविंदाचार्य

गोविंदाचर्य बीजेपी और संघ के ऐसे नेता रहे जिनका दोनों संगठनों में प्रभाव रहा. कहानी ऐसी है कि बालासाहब देवरस सरसंघचालक न होते तो बिहार आंदोलन में अपनी सक्रियता के लिए के.एन. गोविंदाचार्य दंडित किए जाते. इसकी वजह थी उनका जोश जोश में अपना दायित्व भूलकर सीमा रेखा को पार कर जाना. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है वही कहानी.

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गोविंदाचार्य संघ के बड़े विचारक हैं. (Photo: AI generated)
गोविंदाचार्य संघ के बड़े विचारक हैं. (Photo: AI generated)

बालासाहब देवरस ने जब तीसरे सरसंघचालक के तौर पर RSS की कमान संभाली थी, तब कुछ संकेत उन्होंने ऐसे दिए थे, जिससे स्पष्ट होता है कि उनके मन में संघ का वैचारिक विस्तार करने की प्रबल इच्छा थी. सरसंघचालक पद का दायित्व संभालने से पहले बालासाहब का महात्मा फुले की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करने जाना भी उन्हीं में से एक था. संघ हमेशा से ही जातिगत भेदभाव के विरुद्ध था. खुद महात्मा गांधी ने उनके शिविर में घूमने के बाद ये उल्लेख किया था कि सभी जातियों के लोग संघ के वर्ग में बिना किसी भेदभाव के साथ रह रहे थे, खाना खा रहे थे. कभी गांधीजी ही 1901 के कांग्रेस अधिवेशन में अलग अलग जातियों की रसोई का जिक्र कर चुके थे. उनके लिए ये अनोखा था, बावजूद इसके बालासाहब ने संकेत किया कि दलित, वंचित वर्गों के प्रति संघ अब और ज्यादा गंभीरता से सोचेगा.
 
23 साल बाद मधुकर देवल की नाराजगी दूर की

उनकी रणनीति स्पष्ट थी, रूठे हुए अपनों को ही नहीं हिंदू समाज और संगठन से रूठे हुए वर्गों को भी साथ लाना. दूसरा संकेत उन्होंने उसी समय मधुकर देवल से मुलाकात करके दिया. बालासाहब का नाम भी मधुकर दत्रात्रेय देवरस था, उनके नाम राशि मधुकर देवल भी कभी संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता थे. वैचारिक मतभेद होने के चलते वो संघ नेतृत्व से नाराज थे और खुद को संघ कार्य से निष्क्रिय कर लिया था. निष्क्रिय तो बालासाहब औऱ उनके भाई भाऊराव भी हुए थे, लेकिन गुरूजी के आग्रह पर वापस आ गए थे. मधुकर देवल थोड़े ज्यादा मुखर थे, भले ही संघ से अलग हुए लेकिन संघ को चेताते भी रहते थे. आगाह करते रहते थे कि ये गलत हो रहा है. लेकिन मन से वो संघी ही थे, ये बात बालासाहब अच्छी तरह से जानते भी थे. लेकिन गुरूजी के रहते हुए उन्होंने कभी भी मधुकर देवल को संघ में लाने की कोशिश नहीं की.

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सरसंघचालक बनने के बाद उन्हें लगा कि छोटी छोटी बातों पर जो कर्मठ कार्यकर्ता समय़ समय़ पर संघ से नाराज होकर निष्क्रिय हो चले हैं, उनको मिलना चाहिए, अगर सम्भव हो तो उन्हें वापस जोड़ना चाहिए. चूंकि चार या पांच साल तक वे खुद भी इसी मनोदशा में निष्क्रिय रहे थे, सो उनके मन की बात बेहतर जानते थे. ऐसे में चाहे वो दलितों को बड़े पैमाने पर जोड़ना हो या संघ के पुराने कार्यकर्ताओं को, बालासाहब ने संकेत पहले ही दे दिए थे.

‘खुला मंच’ में दिया पद, मर्यादा की चिंता किए बिना खुलकर बोलने का मौका

बाला साहब ने एक और बड़ा काम किया, कड़े अनुशासन के लिए प्रसिद्ध संघ की आंतरिक चर्चाओं में थोड़ा लचीलापन लाते हुए लोकतांत्रिक पद्धतियों पर जोर दिया. लोग कहते हैं कि साधारण स्वयंसेवक के प्रश्न को समझने की एक प्रक्रिया बालासाहब देवरस ने विकसित की, वह संवाद की थी, इसके लिए उन्होंने एक प्रयोग किया. वह सफल रहा, इसी से वह कार्य-पद्धति का हिस्सा बना. दत्तोपंत ठेंगड़ी ने अपने संस्मरण में बताया है कि "इसका पहला प्रयोग सन् 1945 में किया गया. नागपुर के राजाबागशा मारुति मंदिर के प्रांगण में दिन भर का 'खुला मंच' का कार्यक्रम रखा गया, उस कार्यक्रम में सबको पद, मर्यादा की चिंता किए बिना अपने- अपने विचार रखने को कहा गया”. कई लोगों ने हिचकते, झिझकते हुए विचार रखे तो कई ने खुलकर भी.

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दूसरे सप्ताह में नागपुर के संघचालक बाबा साहब घटाटेजी के घर उन्हीं लोगों का इसी प्रकार के कार्यक्रम का दोबारा आयोजन किया गया. सरसंघचालक के नाते श्रीगुरुजी ने उन स्वयंसेवकों के विचारों के प्रकटीकरण पर अपना मत व्यक्त किया. ये वाकई में एक अनोखा आयोजन था. सभी स्वयंसेवकों को अपने मन की बात रखने का अवसर मिला, जो बात वो अनुशासन या पदानुक्रम के चलते वरिष्ठ अधिकारियों से नहीं कह पाते थे, वो यहां कह पाए क्योंकि खुद सरसंघचालक उन्हें बैठककर सुन रहे थे और सब को ये भी पता था कि उनकी बात अगर पसंद ना भी आई तो कोई भी नाराज ना होगा. एक तरह से अभयदान पहले ही मिल गया था.

इस तरह बालासाहब ने गुटबाजी से बचाते हुए परस्पर संवाद से समाधान की प्रक्रिया को कार्य-पद्धति का अंग बनाया. उसे संघ ने अपने वचन और व्यवहार में आत्मसात् किया. इसका लंबा इतिहास है. बालासाहब के निजी सचिव रहे बाबूराव चौथाई वाले ने प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक हमारे ‘बालासाहब देवरस’ में एक घटना का विस्तार से वर्णन किया है. वे बता रहे हैं कि, “बात सन् 1947 की है, उस समय संघ नेतृत्व इस प्रश्न को हल करना चाहता था कि प्रशिक्षण के वर्गों के स्वरूप और कार्यक्रमों में राष्ट्रीय स्तर पर एकरूपता हो या हर राज्य अलग-अलग स्वरूप और कार्यक्रम अपनाएँ? संघ के नेतृत्व में जो भी उस समय थे, वे वहाँ उपस्थित थे. देर रात तक बहस चली, ऐसा लगा कि निर्णय नहीं हो पाएगा. उस बातचीत में चुप बैठे बालासाहब ने अंत में हस्तक्षेप किया और निर्णय करवाया. इसके लिए मतदान जैसी एक प्रक्रिया से ही हल निकाला गया था. इससे एक बात तो तय हो गई कि जहां तक सम्भव हो निर्णय सामूहिक स्तर पर ही लिए जाएंगे”.
 
जब गोविंदाचार्य को बालासाहब की वजह से अभयदान मिला

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संघ का इतिहास लिखने वाले कई विद्वान ये दावा करते आए हैं कि बालासाहब देवरस सरसंघचालक न होते तो बिहार आंदोलन में अपनी सक्रियता के लिए के.एन. गोविंदाचार्य दंडित किए जाते. उसकी वजह था उनका जोश जोश में अपना दायित्व भूलकर सीमा रेखा को पार कर जाना. उस समय के एन गोविंदाचार्य संघ के विभाग प्रचारक थे. संघ में ये परम्परा रही है कि अगर आपको किसी भी राजनैतिक आंदोलन में भाग लेना है तो संघ के दायित्व से मुक्त होकर ही भाग लेने जा सकते हैं. खुद डॉ हेडगेवार सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जंगल सत्याग्रह में भाग लेने के लिए सरसंघचालक का दायित्व डॉ परांजपे को देकर खुद दायित्व मुक्त होकर ही गए थे. ऐसे में संघ के किसी विभाग प्रचारक से इसकी उम्मीद नहीं की जाती कि वह इस परम्परा का पालन ना करे. बिना दायित्व मुक्त हुए आंदोलन में भाग ले ले. उसे राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी से पहले अपने दायित्व से मुक्त हो जाना होता है. इसके ठीक विपरीत गोविंदाचार्य आंदोलन की अगली कतार में सक्रिय रहे. उन्हें अनुमति तो महीनों बाद मिली थी.

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी जीवनी 'मेरा देश, मेरा जीवन' में लिखा है, 'बिहार छात्र आंदोलन के दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रमुख नेता के.एन. गोविंदाचार्य से मैं पहली बार मिला, उनकी सक्रियता से प्रभावित हुआ और एक दशक बाद मैंने उन्हें पार्टी महासचिव के रूप में भाजपा में शामिल कर लिया।" हालांकि गोविंदाचार्य उस समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के नेता नहीं थे, संघ के पटना विभाग के प्रचारक ही थे. उनकी सक्रियता संघ के कुछ अधिकारियों को जम नहीं रही थी. लोगों का मानना है कि वे पटना से दूर किसी कालापानी जैसे स्थान पर भेज दिए जाते, अगर बालासाहब देवरस ने हस्तक्षेप न किया होता.

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पुस्तक ‘हमारे बाला साहब देवरस’ के एक लेख में प्रख्यात पत्रकार रामबहादुर राय लिखते हैं कि, “गोविंदाचार्य अपनों के ही निशाने पर थे. बुरी तरह घिर गए थे, कोई सफाई माँगे तो वे अपना पक्ष रखने के लिए हमेशा की तरह उस समय भी तत्पर थे, लेकिन उनसे कोई पूछता नहीं था. कोई स्पष्ट निर्देश भी नहीं था. इस कारण उनके मन में कई सवाल थे. जैसे यह कि 'आखिर मैं कर क्या रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ और कैसे कर रहा हूँ ?' तभी बालासाहब देवरस पटना आए. एक बयान दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि ‘बिहार आंदोलन को केवल कानून व्यवस्था का प्रश्न समझना उचित नहीं है। इसमें सत्य और अन्याय का पक्ष भी है.‘ इस बयान से गोविंदाचार्य को बल मिला. समाधान भी मिला कि वे सही दिशा में सक्रिय हैं.
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किन संघ का तंत्र उन्हें अपने सवालों के घेरे में रखे हुए ही था. गोविंदाचार्य को ये सलाह दी गई कि वे बालासाहब देवरस से मिलें. पर पुलिस की छापेमारी और गिरफ्तारी की आशंका से वे नहीं मिल सके. यह बात जून 1974 की है. एक दिन उन्हें नागपुर बुलाया गया, जहाँ बालासाहब देवरस सहित संघ के सभी शीर्षस्थ नेता उपस्थित थे.

रामबहादुर राय लिखते हैं कि, “गोविंदाचार्य बताते हैं कि ‘अनेक मत थे, वहां पहुंचकर मुझे  अनुभव हुआ कि मैं कठघरे में खड़ा हुआ हूँ.’उन्होंने बताया कि बातचीत शुरू हुई. तब बालासाहब देवरस ने कहा, ‘अच्छा गोविंद, ऐसा करो कि शुरू से अब तक का पूरा वर्णन सुनाओ.' गोविंदाचार्य को याद है कि उन्होंने करीब दो घंटे में अपनी बात पूरी की. फिर विचार प्रारंभ हुआ. मुद्दा यह था कि बिहार आंदोलन में संघ की भूमिका क्या हो? पूरी बातचीत के बाद बालासाहब देवरस ने कहा कि 'बिना तैयारी के अखाड़े में उतर पड़े हैं. इससे संकट आएगा. लेकिन घबराने की जरूरत नहीं है. उसमें से रास्ता निकालेंगे,' उन्होंने गोविंदाचार्य के बारे में कहा कि इनकी ओर से कोई अनुशासनहीनता नहीं हुई है.

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परिस्थितिवश जो हो सकता था, वही गोविंद ने किया है. इसके बाद वे बिहार आंदोलन में संघ की भूमिका के बारे में बोले, जिसे वे पटना में अपने प्रवास के दौरान कुछ दिनों पहले प्रेस को बता चुके थे, उसे ही दोहराया और कहा कि आंदोलन में जो स्वयंसेवक शामिल हैं, वे समाज के एक नागरिक की भूमिका निभा रहे हैं. यह आंदोलन परिवर्तन के लिए है. इसमें संघ एक संगठन के रूप में शामिल नहीं है. 

बालासाहब देवरस ने बैठक के बाद गोविंदाचार्य को रुकने के लिए कहा. अलग से बात की.पूछा कि 'इस आंदोलन से क्या निकालना चाहते हो?' गोविंदाचार्य ने कहा, 'हम व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं, इसकी आंदोलन में संभावनाएं हैं' इसके जवाब में बालासाहब देवरस ने टिप्पणी की, 'देखो, इतना कुछ नहीं हो पाएगा. अगर भ्रष्टाचार पर सामाजिक अंकुश लग जाए और सत्तारूढ़ पक्ष उसके दबाव में खुद को सुधारने का प्रयास करे तो इतना ही काफी होगा.' हालांकि गोविंदाचार्य के सर पर लटकी तलवार तो हट ही चुकी थी. इस घटना के बाद वह धीरे धीरे लोगों, संगठन और मीडिया में ऊपर चढ़ते चले गए और आज हाशिए पर रहने के बावजूद संघ के मजबूत स्तम्भों में उनकी गिनती होती है, तो इसके पीछे बड़ी वजह बाला साहब देवरस की वो नीति है, जिसमें वो संघ की कुछ नीतियों से असहमत स्वयंसेवकों के भी मन की बात संवाद से समझने की कोशिश करते थे.

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