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संघ के 100 साल: RSS के इस स्वयंसेवक की खोज ने बना दिया उसे भारत का सबसे बड़ा पुरातत्वविद

डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर ने गुमनामी में खोये भारत के समृद्ध अतीत को सामने लाकर भारतवासियों के मन में गौरव का भाव भरा. उन्होंने गुजरात क्षेत्र में लुप्त सरस्वती नदी के प्रवाह की दिशा का अन्वेषण कर यह सिद्ध किया कि यह भारतवर्ष में ही बहती थी, जिससे सिंधु सरस्वती सभ्यता को नया प्रमाण मिला. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है डॉ वाकणकर की कहानी.

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डॉ वाकणकर ने भीमबेटका की गुफाओं की खोज की थी. (Photo: AI generated)
डॉ वाकणकर ने भीमबेटका की गुफाओं की खोज की थी. (Photo: AI generated)

समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में करियर बनाने वाले लोगों ने, अलग-अलग रुचि रखने वाले लोगों ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के लिए अपने परिवार, व्यक्तिगत आकांक्षाओं को भुलाकर देश और समाज के लिए कई बड़े ऐतिहासिक काम किए. इनके जरिए 100 वर्ष की इस संघ यात्रा में वे मील के ऐसे पत्थर की तरह खुद को स्थापित कर गए कि उनको नजरअंदाज करना मुश्किल है. संघ के ऐसे ही एक स्वयंसेवक की पुरातत्व और इतिहास के क्षेत्र में की गई खोजें आज भारतीय इतिहास ही नहीं मानव इतिहास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं.
 
भीमबेटका गुफाएं ढूंढने वाले डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर

आज उनकी गिनती भारत के महान पुरातत्वविदों में होती है. उन्हें ‘शैलचित्रों का पितामह’ कहा जाता है. लेकिन लोग भूल गए हैं कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी थे. डॉ. वाकणकर ने के. एल. कामत को दिए एक साक्षात्कार में अपनी खोज के बारे में बताते हुए कहा था, "1957 में, मैं ट्रेन से भोपाल से इटरसी जा रहा था. रास्ते में मुझे लगा कि पहाड़ों में महान इतिहास छिपा है. मैं अगले स्टेशन पर उतरा और यहां तक पैदल आया. जिस पहली गुफा में मैं दाखिल हुआ, उसमें चित्रकारी थी! इस स्थान पर 5 लाख साल पुराने अवशेष हैं।" वे एक टीले पर खड़े होकर बोले, "यह एक बौद्ध स्तूप है; ऐसे दो स्तूप हैं. सम्राट अशोक का दल अवश्य इसी मार्ग से गुजरा होगा. क्या आप वहां उन खंडहरों को देख रहे हैं? वे राजा भोजराज द्वारा निर्मित एक बांध के अवशेष हैं. उन्होंने अपने समय की सबसे बड़ी झील का निर्माण करवाया था. यहां भोपाल से नावें आ सकती थीं."

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उनसे पहले एक अंग्रेज पुरातत्वविद ने उसे बौद्ध साइट घोषित कर दिया था. लेकिन विष्णु वाकणकर की खोज ने बताया कि कैसे ना केवल हजारों लाखों सालों पहले मानव इन गुफाओं में रहता था बल्कि गुफाओं में शैल चित्रकारी भी करता था. सबसे नए शैल चित्र भी 10 से 40 हजार साल पुराने हैं. इन गुफाओं में घोड़े के जितने चित्र मिले हैं, उससे आर्य विदेशी वाली थ्योरी भी गलत साबित होती है.

क्या है भीमबेटका गुफाओं में

भीमबेटका गुफाएं मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में, भोपाल से लगभग 45 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित हैं. यह यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है जिसमें सात पहाड़ियां और 10 किलोमीटर (6.2 मील) के क्षेत्र में फैली 750 से अधिक चट्टानी गुफाएं शामिल हैं. इनमें से कम से कम कुछ गुफाओं में 1 लाख वर्ष से भी अधिक समय पहले लोग रहते थे.

भीमबेटका के कुछ शिलास्तंभों में प्रागैतिहासिक गुफा चित्रकारी पाई जाती है, जिनमें से सबसे पुरानी 10 हजार ईसा पूर्व की हैं, जो भारतीय मध्यपाषाण काल ​​से मेल खाती हैं. इन गुफा चित्रकारी में पशु, नृत्य और पाषाण युग के शिकार के प्रारंभिक प्रमाण, साथ ही बाद के काल (संभवतः कांस्य युग) के घुड़सवार योद्धाओं जैसे विषय दर्शाए गए हैं. भीमबेटका गुफाओं में भारत की सबसे पुरानी ज्ञात शिलाकला पाई जाती है, साथ ही यह सबसे बड़े प्रागैतिहासिक परिसरों में से एक है.

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डॉ. वाकणकर ने रेखाचित्रों और चित्रों को सात अलग-अलग कालों में वर्गीकृत किया और सबसे पुराने रेखाचित्रों को ऊपरी पुरापाषाण काल ​​का बताया, जो लगभग 40 हजार वर्ष पुराने हैं. इनमें प्रयुक्त रंग वनस्पति रंग हैं जो समय के साथ बरकरार रहे हैं क्योंकि रेखाचित्र आमतौर पर किसी आले के भीतर या भीतरी दीवारों पर गहराई में बनाए जाते थे.
 
संघ से क्या था नाता

संघ के स्वयंसेवक होने के नाते डॉक्टर विष्णु सामाजिक क्षेत्र में भी सक्रिय थे. वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, मध्यप्रदेश के अध्यक्ष रहे. बाद में संस्कार भारती के भी संस्थापक महामंत्री रहे. आरएसएस मध्य भारत के प्रांतीय बौद्धिक प्रमुख भी रहे तो उज्जैन में सरस्वती शिशु मंदिर के संस्थापक भी रहे. विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद 1966 में प्रयाग में जब प्रथम ’विश्व हिन्दू सम्मेलन’ हुआ, तो एकनाथ रानाडे ने उन्हें वहां प्रदर्शिनी बनाने तथा सज्जा करने के लिए भेजा. फिर तो ऐसे हर सम्मेलन में हरिभाऊ (उनका चर्चित दूसरा नाम) की उपस्थिति अनिवार्य हो गई. इसके बाद वे विश्व के अनेक देशों में गए और वहां भारतीय संस्कृति, कला, इतिहास और ज्ञान-विज्ञान आदि पर व्याख्यान दिए.

1981 में ‘संस्कार भारती’ की स्थापना होने पर उन्हें उसका महामंत्री बनाया गया. एक बार वे लंदन के पुरातत्व संग्रहालय में शोध कर रहे थे. वहां उन्होंने सरस्वती की वह प्राचीन प्रतिमा देखी, जिसे धार की भोजशाला पर हमला कर आताताइयों ने तोड़ा था. धार में ही जन्मे हरिभाऊ यह देखकर भावुक हो उठे. अगले दिन वे संग्रहालय में गए और प्रतिमा पर एक पुष्प चढ़ाकर वंदना करने लगे. उनकी आंखों में आंसू देखकर संग्रहालय का प्रमुख बहुत प्रभावित हुआ. उसने हरिभाऊ को एक अलमारी दिखाई, जिसमें अनेक अंग्रेज अधिकारियों की डायरियां रखी थीं. इनमें वास्कोडिगामा की डायरी भी थी. उस डायरी से ही पता चला था कि वास्कोडिगामा भारत को खोजने नहीं आया  था बल्कि लुटेरा था.
 
कौन थे विष्णु वाकणकर

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विष्णु श्रीधर वाकणकर का जन्म 4 मई 1919 को मध्य प्रदेश राज्य के मालवा क्षेत्र के नीमच कस्बे में हुआ था. वे एक प्रतिष्ठित परिवार से थे. डॉ. वाकणकर ने कला की शिक्षा प्राप्त की (मुंबई से कला में स्नातक), लेकिन बाद में उन्होंने इतिहास/प्रागैतिहासिक काल, पुरातत्व और मुद्राशास्त्र को अपना विषय बनाया तथा कला, पुरातत्व, सामाजिक कार्य और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में अपने योगदान के लिए विश्वव्यापी ख्याति अर्जित की. उनके बड़े भाई स्वर्गीय लक्ष्मण श्रीधर वाकणकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से केमिकल इंजीनियर थे. वाकणकर परिवार का इतिहास 1700 से शुरू होता है और यह आठ पीढ़ियों तक फैला हुआ है, डॉ. वाकणकर ने डॉ. एच.डी. संकलिया, सर मोर्टिमर व्हीलर, के.के. लेले, एस.के. दीक्षित, जेरी जैकबसन, एन.आर. बनर्जी जैसी प्रख्यात हस्तियों के साथ कार्य किया. पुरातत्व के क्षेत्र में उनके अपार योगदान के साथ-साथ, एक कलाकार के रूप में उन्होंने भारत के साथ-साथ विदेश में भी कई कला प्रदर्शनियों का आयोजन किया, जिनमें ऑस्ट्रिया, रोम, पेरिस, फ्रैंकफर्ट और अमेरिका शामिल हैं. 3 अप्रैल 1988 को उनका निधन हो गया.
 
डॉ. वाकणकर ने मुंबई से स्नातक, मध्य प्रदेश से स्नातकोत्तर और महाराष्ट्र के पुणे स्थित डेक्कन कॉलेज से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. उन्होंने विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया और भारती कला भवन, शैल कला अनुसंधान केंद्र के निदेशक और वाकणकर भारती संस्कृति अन्वेषण न्यास के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में एएसआई से घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे. उन्होंने कई छात्रवृत्तियां और पुरस्कार प्राप्त किए और संस्थानों द्वारा व्याख्यान के लिए आमंत्रित किए गए, जैसे: फ्रांस में शिक्षा के लिए दोराबजी टाटा ट्रस्ट छात्रवृत्ति (1963), सोरबोन, फ्रांस में अनुसंधान के लिए फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति (1961-63), अमेरिकी शैल आश्रयों के अध्ययन के लिए अमेरिका से आमंत्रण (1966); कैपो डी पोंटे-इटली में शोध पत्र प्रस्तुति (1981), अमेरिका में "विश्व में भारत का योगदान" विषय पर प्रदर्शनी (1984), अमेरिका में माया और एज़्टेक सभ्यता का अध्ययन (1984).

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RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 
 
डॉ. वाकणकर स्वतंत्रता सेनानी भी थे और उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें 1975 में मिला पद्मश्री सम्मान भी शामिल है. वे अखिल भारतीय कालिदास चित्रकला एवं मूर्तिकला प्रदर्शनी के संस्थापक और निदेशक थे और उन्होंने भारत कला भवन, ललित कला संस्थान, रॉक आर्ट इंस्टीट्यूट उज्जैन के निदेशक. उत्खनन विभाग, पुरातत्व संग्रहालय, विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के निदेशक, आरएसएस मध्य भारत के प्रांतीय बौद्धिक प्रमुख, सरस्वती शिशु मंदिर, उज्जैन के संस्थापक और पूर्व अध्यक्ष, संस्कार भारती के संस्थापक महामंत्री, थियोसोफिकल सोसाइटी उज्जैन के अध्यक्ष, कला पत्रिका आकार उज्जैन के संरक्षक. बाबासाहेब आप्टे इतिहास संकलन समिति (मध्य प्रदेश और गुजरात) के प्रमुख व विद्यार्थी परिषद मध्य प्रदेश के अध्यक्ष आदि कई पदों पर रहे.
 
प्राचीन सिक्के जमा करने और चित्रकारी का भी था शौक

डॉ. वाकणकर मुद्राशास्त्र और शिलालेख विद्या के विशेषज्ञ भी थे. उन्होंने पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर अब तक के 5,500 से अधिक सिक्कों का संग्रह और अध्ययन किया. यह संग्रह अब वाकणकर शोध संस्थान का हिस्सा है. इसके अलावा, उन्होंने संस्कृत, प्राकृत और ब्राह्मी भाषाओं में लिखे गए दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के कई शिलालेखों का भी अध्ययन किया. उन्होंने 6 पुस्तकें और 400 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित किए थे, उन्होंने भारत के उज्जैन में वाकणकर इंडोलॉजिकल कल्चरल रिसर्च ट्रस्ट की स्थापना की. आज वाकणकर शोध संस्थान में डॉ. वाकणकर द्वारा स्वयं बनाए गए 7500 से अधिक शैल चित्रों का संग्रह मौजूद है. आपके लिए ये भी जानना दिलचस्प होगा कि एक हिन्दू सम्मेलन में भाग लेने के लिए डॉ वाकणकर सिंगापुर गए थे. वहां उनका होटल समुद्र किनारे बना था, उनके कमरे से समुद्र की बड़ा मनोहारी दृश्य हर समय दिखाई देता था. उनको लगा कि इसका चित्र बनाना चाहिए. उन्होंने काम शुरू कर दिया. अगले दिन यानी चार अप्रैल, 1988 को जब वे निर्धारित समय पर सम्मेलन में नहीं पहुंचे, तो लोगों ने होटल जाकर देखा. हरिभाऊ बालकनी में एक कुर्सी पर बैठे थे. घुटनों पर रखे एक बड़े कागज पर अठखेलियां करते समुद्र का आधा चित्र बना था, पेंसिल नीचे गिरी हुई मिली. हजारों साल पहले के चित्रों की खोज करने वाला चित्रकारी करते-करते इस दुनिया से चला गया.
 
इतिहास गलत लिखा है, अपने एक शिक्षक के द्वारा ये बार बार बताए जाने से वाकणकर के मन में सही इतिहास समझने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी. वो खुद बताते थे कि, “जब मैं छोटा था तो प्राध्यापक प्रभाकर राव गोरे इतिहास पढ़ाते थे. विद्यालय में इतिहास के उन पृष्ठों को जिनको ब्रिटिश शासकों द्वारा रचा गया था, उसे वे झूठ मानते थे. गोरे पढ़ाने के बाद कहा करते थे कि यह पाठ परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए है, न कि याद रखने के लिए. इतिहास की वास्तविकता का पूर्ण पाठ पढ़ो.” शिक्षक की इस बात को उन्होंने बचपन से ही गांठ बांध लिया.

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उन्होंने सारनाथ, बनारस, अमरावती, नागार्जुन कोंडा के बौद्ध स्मारकों का सर्वेक्षण कर बौद्ध इतिहास की समझ को सामने रखा तो बड़वानी (मप्र) की सौ से ज्यादा जैन मूर्तियों के पादपीठ अभिलेखों का वाचन कर प्रकाशन किया. उन्होंने नदी सभ्यता और हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के समकालीन जीवन की खोज में काफी श्रम किया. मध्यप्रदेश की नर्मदा और चंबल के इलाके में उन्होंने काफी उत्खनन किया. उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग, जिससे वे वर्षों तक संबद्ध रहे, के संयोजन में उन्होंने मालवा में व्यापक उत्खनन किया. मालवा में उज्जैन के गांव कायथा, जहां प्राचीन खगोलविद् वराहमिहिर का जन्म हुआ था और दंगवाड़ा व महेश्वर के पास नावड़ा तोड़ी के उत्खनन के जरिये डॉ. वाकणकर ने यह सिद्ध किया कि हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति का विस्तार यहां तक था.

उन्होंने गुजरात क्षेत्र में लुप्त सरस्वती नदी के प्रवाह की दिशा का अन्वेषण कर यह सिद्ध किया कि यह भारतवर्ष में ही बहती थी, जिससे सिंधु सरस्वती सभ्यता को नया प्रमाण मिला. उन्होंने सम्राट विक्रमादित्य के शासन काल की सील (मुद्रांक) प्राप्त कर विक्रम संवत की ऐतिहासिकता सिद्ध की.
सचिन कुमार तिवारी अपने शोधपत्र में बतौर इंडोलॉजिस्ट उनके कार्यों की विस्तार से जानकारी देते हैं. वो लिखते हैं कि, “एक भारतीय पुरातत्वविद् के रूप में डॉ. वाकणकर ने अनेक पुरातात्विक सर्वेक्षणों में भाग लिया, उन्होंने चंबल और नर्मदा नदियों की घाटियों का अन्वेषण किया, साथ ही अब सूख चुकी सरस्वती नदी के बेसिन का भी पता लगाया, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसमें भारतीय सभ्यता के कई रहस्य छिपे हैं. उन्होंने भारत और विदेश दोनों जगह कई उत्खनन कार्यों में भाग लिया और उन्हें अंजाम दिया/ इनमें महेश्वर (1954), नवदतोली (1955), मनोती (1960), आवारा (1960), इंद्रगढ़ (1959), कायथा (1966), भीमबेटका (1971 से 1978 तक), मंदसौर (1974 और 76), आज़ादनगर (1974), डांगवाड़ा (1974 और 82), इंग्लैंड में वर्कोनियम रोमन स्थल (1961), फ्रांस में इनकोलिएव (1962) और रुनिजा (1980) शामिल हैं. इसके अलावा, डॉ. वाकांकर मुद्राशास्त्र और शिलालेख विज्ञान के विशेषज्ञ भी थे. उन्होंने उज्जैन में ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी से लेकर अब तक के 5,500 से अधिक सिक्के एकत्र किए और उनका अध्ययन किया. इसी प्रकार, ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर अब तक संस्कृत, प्राकृत और ब्राह्मी भाषाओं में लगभग 250 शिलालेखों का संग्रह ‘वाकणकर शोध संस्थान’ को समृद्ध करता है.”
 
ह्वीलर को एक ऋषि की कहानी के जरिए इतिहास लेखन समझाया

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1957 में जब प्रसिद्ध पुरातत्वविद मार्टिमर व्हीलर उज्जैन में एएसआई. के प्रो. बनर्जी द्वारा किए उत्खनन कार्य को देखने आए तो ये दायित्व प्रो. वाकणकर को दिया गया. उन्होंने तब मार्टिमर ह्वीलर से कहा था- भारतीय परंपराओं को समझे बगैर भारतीय संस्कृति को नहीं समझा जा सकता. ऐसी ही एक कथा का यथार्थ खोजने का प्रसंग उन्होंने ही इस तरह सुनाया था- “एक ऋषि के द्वारा जंगल के मुहाने पर नदी किनारे यज्ञ करने के दौरान कुछ ग्रामीणों ने आकर यह शिकायत की कि अकाल के कारण वे भुखमरी के शिकार हैं. ऋषि ने यज्ञ की अग्नि को मुंह में भरकर जंगल पर फूंका जिससे जंगल भस्म हो गया. ऋषि ने ग्रामीणों से कहा कि अब वे वहां जाकर अन्न उपजाएं.” डॉ. वाकणकर ने बताया कि इस कथा का मर्म जानने के लिए उस स्थल पर खुदाई करवाई तो बड़ी तादाद में कुल्हाड़ी की तरह के औजार मिले. वाकणकर के मुताबिक इसका अर्थ था कि ऋषि ने ग्रामीणों को कुल्हाड़ियां देकर वन काटने और खेती करने को कहा होगा, ह्वीलर को समझ आ गया कि भारतीय परम्पराओं में काफी इतिहास छुपा है.

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