कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हाल ही में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर एक बड़ा मुद्दा उठाया है. उन्होंने आरोप लगाया कि 'नॉट फाउंड सूटेबल' (NFS) का इस्तेमाल SC, ST और OBC वर्ग के उम्मीदवारों को जानबूझकर अयोग्य बताकर शिक्षा और नेतृत्व से दूर रखने के लिए किया जा रहा है. इस बयान ने एक नई बहस छेड़ दी है. आखिर NFS है क्या? शिक्षक वर्ग इस मुद्दे पर क्या सोचता है? आइए, इस पूरे मामले को समझते हैं.
NFS का मतलब क्या है?
'NFS' यानी 'नॉट फाउंड सूटेबल' एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती के दौरान कुछ उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित कर दिया जाता है. राहुल गांधी का दावा है कि इस प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है. उनके मुताबिक, SC, ST और OBC वर्ग के उम्मीदवारों को जानबूझकर अयोग्य ठहराया जा रहा है ताकि आरक्षित पद खाली रहें. राहुल ने दिल्ली यूनिवर्सिटी का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां 60% से ज्यादा प्रोफेसर और 30% से ज्यादा एसोसिएट प्रोफेसर के आरक्षित पद NFS बताकर खाली रखे गए हैं. यह सिर्फ DU तक सीमित नहीं है बल्कि IITs और अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी ऐसा हो रहा है.
राहुल गांधी के आरोप पर BJP का जवाब
राहुल गांधी ने 27 मई को दिल्ली यूनिवर्सिटी के दौरे के दौरान कहा कि NFS अब नया मनुवाद बन चुका है. उनके इस बयान पर बीजेपी ने तीखी प्रतिक्रिया दी है. केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने राहुल पर पलटवार करते हुए कहा कि कांग्रेस ने ही दशकों तक दलितों और पिछड़ों को धोखा दिया. NFS जैसी प्रक्रिया कांग्रेस की नीतियों का नतीजा है. प्रधान ने दावा किया कि 2014 में UPA सरकार के जाते वक्त केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में SC के 57%, ST के 63% और OBC के 60% शिक्षक पद खाली थे जबकि मोदी सरकार ने इसे घटाकर 25.95% तक ला दिया है.
अलग-अलग है शिक्षक वर्ग की राय
शिक्षकों के बीच इस मुद्दे पर अलग-अलग राय है. डीयू में असिस्टेंट प्रोफेसर और DUTA मेंबर आनंद प्रकाश विश्वकर्मा ने इस पर कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय ही नहीं देश के लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दलित पिछड़ों आदिवासियों की सीटों को भारी संख्या में एनएफएस किया गया है. आज देश के लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों का खेल खेला जा रहा है. उन्होंने कहा कि देश में केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी आरक्षण 2006-07 में कांग्रेस सरकार के समय लागू हुआ था और उसी समय दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग चार हज़ार शिक्षकों की नई पोस्ट भी आई थी. उस समय डूटा अध्यक्ष डॉ आदित्य नारायण मिश्रा थे डीयू को न सिर्फ़ शिक्षकों की पोस्ट्स सेंक्शन हुई थी, साथ ही करोड़ों का फंं मिला था और आज जब EWS आरक्षण लागू हुआ तब न तो एक भी सीटें आई है और न हि एक पाई पैसा मिला है. उन्होंने राहुल गांधी की बात का समर्थन करते हुए कहा कि आज जब एक बड़ी संख्या संख्या में ओबीसी एससी एसटी के लोग पढ़-लिखकर नौकरियों में आने लगे तो उन्हें प्रोफेसर बनने से रोकने के लिए मनुवादी विचार धारा के लोगों ने उनकी सीटों पर एनएसएफ कर दिया.
खोखला है राहुल गांधी का बयान?
वहीं, दिल्ली यूनिवर्सिटी के फोरम ऑफ एकेडेमिक्स फॉर सोशल जस्टिस (शिक्षक संगठन) ने राहुल गांधी के बयान को खोखला बताया है. दिल्ली विश्वविद्यालय समेत तमाम केंद्रीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों में एससी / एसटी तथा ओबीसी वर्गों के लिए आरक्षित प्रोफेसर पदों पर भर्ती नहीं किए जाने के आरोप पर फोरम का कहना है कि राहुल गांधी की खोखली बयानबाजी डीयू के शिक्षकों और छात्रों को मूर्ख नहीं बना सकती. आजकल राहुल गांधी व उनके साथी खुद को सामाजिक न्याय का मसीहा और भारतीय संविधान का रक्षक बता रहे हैं. जब 2004 से 2014 तक यूपीए सत्ता में थीं तो उन्होंने अपने कार्यकाल में केंद्रीय विश्वविद्यालयों व डीयू कॉलेजों में आरक्षित सीटों को क्यों नहीं भरा. केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जब आरक्षण लागू करने की शुरुआत हो रही थीं तो उनकी पार्टी के शिक्षक संगठन इंटेक ने दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक पदों पर एससी/एसटी अभ्यर्थियों के आरक्षण का पुरजोर विरोध किया था.
फोरम के चेयरमैन डॉ.हंसराज सुमन ने कहा कि कांग्रेस की लगभग छह दशक तक सरकार रही लेकिन फोरम व अन्य शिक्षक संगठनों के सड़कों पर उतरने व एससी/एसटी कमीशन के हस्तक्षेप के बाद साल 1997 में जाकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू हुआ. केंद्रीय विश्वविद्यालयों व संबद्ध कॉलेजों में आरक्षण लागू होने के बाद भी उन्हें नॉट फाउंड सुटेबल किया जाता रहा या यह कहा गया कि अभ्यर्थी उपलब्ध नहीं हुए. बता दे कि कांग्रेस ने विश्वविद्यालय शिक्षकों की नियुक्तियों में ओबीसी आरक्षण 2007 में लागू किया. उन्होंने बताया है कि साल 2008 से 2014 तक यूजीसी व शिक्षा मंत्रालय द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एससी/एसटी के अभ्यर्थियों के लिए स्पेशल भर्ती अभियान चलाने के लिए सर्कुलर जारी किए लेकिन उन पदों को भरा नहीं. लगभग छह दशक तक कांग्रेस की सरकार रहने के बावजूद क्यों विश्वविद्यालयों /कॉलेजों में 1997 में आरक्षण लागू किया गया ? दिल्ली विश्वविद्यालय में कांग्रेस के शिक्षक संगठन ने खुद शिक्षक नियुक्तियों में आरक्षण का विरोध किया था और डीयू में 13 पॉइंट रोस्टर को लागू करने वाले कांग्रेस द्वारा नियुक्त कुलपति ही थे.
X पर क्या कह रहे लोग?
X पर भी इस मुद्दे पर खूब बहस हो रही है। कुछ यूजर्स राहुल गांधी के बयान का समर्थन कर रहे हैं. एक यूजर ने लिखा कि NFS एक हथियार बन गया है जिससे SC, ST और OBC के हक छीने जा रहे हैं. वहीं कुछ लोग इसे राजनीतिक बयानबाजी बता रहे हैं. एक अन्य यूजर ने लिखा कि राहुल गांधी हर चीज को साजिश बता देते हैं. NFS का इस्तेमाल जरूरी है लेकिन इसे पारदर्शी बनाना चाहिए.
विशेषज्ञ बोले- गंभीर है ये बहस, NFS की मॉनिटरिंंग जरूरी
शिक्षा और सामाजिक न्याय के विशेषज्ञ प्रो राजेश कुमार झा कहते हैं कि इस बहस को गंभीरता से देखना चाहिए. सवाल यह है कि NFS का दुरुपयोग एक सिस्टमैटिक समस्या है या वाकई काबिलियत में कमी के कारण ऐसा हो रहा है. सरकार को चाहिए कि चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता लाए और NFS के इस्तेमाल पर सख्त गाइडलाइंस बनाए. यह सिर्फ NFS की बात नहीं है. भारत में उच्च शिक्षा में सामाजिक न्याय को लागू करने में सिस्टमिक खामियां हैं. इस पूरे सिस्टम को ठीक करना होगा, वरना आरक्षण का लाभ सही लोगों तक नहीं पहुंचेगा.
नॉट फाउंड सूटेबल' (NFS) के कथित दुरुपयोग पर चल रही बहस में दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व शिक्षक और वर्तमान में सिंगापुर यूनिवर्सिटी में विशिष्ट प्रोफेसर डॉ. एम. के. पंडित ने aajtak.in से अपनी राय साझा की है. उन्होंने इस प्रक्रिया को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं और इसे पक्षपातपूर्ण बताया है. डॉ. पंडित का कहना है कि NFS का इस्तेमाल तब तक उचित हो सकता है, जब यह उम्मीदवार की योग्यता और क्षमता के आधार पर हो. लेकिन अगर यह सिफारिशों या राजनीतिक समर्थन की कमी की वजह से हो रहा है तो यह पूरी तरह गलत है. चयन प्रक्रिया में उम्मीदवार की काबिलियत को प्राथमिकता देनी चाहिए, न कि बाहरी प्रभावों को.
अगर NFS का इस्तेमाल योग्य उम्मीदवारों को दरकिनार करने के लिए हो रहा है तो यह प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग है. उन्होंने आगे कहा कि शिक्षा जैसे क्षेत्र में पारदर्शिता और निष्पक्षता बहुत जरूरी है. अगर चयन समिति योग्यता को नजरअंदाज कर रही है तो यह न सिर्फ उम्मीदवारों के साथ अन्याय है बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता पर भी सवाल खड़ा करता है. इस प्रक्रिया में मॉनिटरिंग की जरूरत है ताकि सही और काबिल लोग शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दे सकें. इससे अगली आने वाली पीढ़ी पर बहुत दुष्प्रभाव कम होगा, वैसे भी बाहर के देशों में हमारी बहुत ज्यादा अच्छी साख नहीं है.