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विधायक का एनकाउंटर! 38 साल पहले आया था राजनीतिक भूचाल, सीएम को गंवानी पड़ी थी अपनी कुर्सी

Political Qissa: आजाद भारत का एक ऐसा एनकाउंटर जिसने एक सीएम की कुर्सी तक हिला दी थी. हालात ऐसे बने की सीएम को कुर्सी छोड़नी पड़ी... हम बात कर रहे हैं 21 फरवरी साल 1985 की, जब राजस्थान के डीग में चलीं ताबड़तोड़ गोलियों की आवाज़ दिल्ली तक गूंजी.

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डीग में राजा मानसिंह के फर्जी एनकाउंटर की कहानी (सांकेतिक तस्वीर)
डीग में राजा मानसिंह के फर्जी एनकाउंटर की कहानी (सांकेतिक तस्वीर)

यूपी एसटीएफ ने गुरुवार 13 अप्रैल को अतीक अहमद के बेटे असद और उसके खास शूटर गुलाम का झांसी में एनकाउंटर कर दिया. प्रयागराज में हुए उमेश पाल हत्याकांड के बाद से ही असद को फरार बताया जा रहा था. यूपी एसटीएफ के एडीजी अमिताभ यश ने बताया कि पिछले डेढ़ महीने से असद अहमद और गुलाम को ट्रेस किया जा रहा था. एक बार तो गुलाम पांच मिनट की देरी से मिस हो गया. लेकिन इस बार इन्हें झांसी में लोकेट कर लिया गया और पारीछा डैम के पास पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में गुलाम और असद एसटीएफ की गोलियों का शिकार हो गए. हालांकि इस पूरे मामले में पुलिस का यह भी कहना है कि हम उन्हें जिंदा पकड़ना चाहते थे.

लेकिन इस पूरे एनकाउंटर को लेकर पुलिस ने जो थ्योरी बताई उस पर कई सवाल भी उठने लगे. जिसमें सबसे पहला सवाल यही उठा कि असद और गुलाम का एनकाउंटर पारीछा डैम के पास उस जगह पर किया गया, जहां आगे का रास्ता बंद था. ऐसे में जब असद बाइक चला रहा था और उसे गोली लगी तो उसकी बाइक पर कोई खरोंच भी नहीं आई. मीडिया भी घटनास्थल पर पहुंची तो वहां बाइक की चाभी नहीं मिली. इस पूरे एनकाउंटर को लेकर सवाल कई हैं, राजनीति के मैदान में भी दो धड़े बंट गए. जिसमें एनकाउंटर का समर्थन और विरोध दोनों ही चरम पर है. 

कहानी अभी बाकी थी...

यह सब कुछ अभी थमा नहीं था कि इसी बीच माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की प्रयागराज में शनिवार 15 अप्रैल को रात करीब 10 बजकर 40 मिनट के आसपास गोली मारकर हत्या कर दी गई. पुलिस दोनों को प्रयागराज के कॉल्विन अस्पताल में मेडिकल के लिए लेकर जा रही थी. तभी तीन हमलावरों ने काफी नजदीक से उन पर ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी, जिसमें दोनों की मौत हो गई. हमला करने वालों को पुलिस ने पकड़ लिया है, तीनों की पहचान भी कर ली गई है. जिसके बाद विभाग अब आगे की कार्रवाई में जुटा है. 

लेकिन यूपी में एसटीएफ की टीम की तरफ से एक एनकाउंटर को अंजाम देने के बाद तीसरे ही दिन प्रयागराज में चलीं गोलियों की गूंज ने सरकारी महकमे में हलचल ला दी है. सीएम हाई लेवल स्तर की ताबड़तोड़ मीटिंग कर रहे हैं. त्वरित कार्रवाई करते हुए अतीक और अशरफ के साथ घटना के दौरान मौजूद पुलिसकर्मियों को सस्पेंड कर दिया गया है. तो वहीं विपक्ष 'यूपी में जंगलराज' जैसे नारों को लेकर सूबे की सरकार पर हमलावर है. जिसके बाद अब एक तरफ फर्जी एनकाउंटर का आरोप तो दूसरी तरफ पुलिस की कड़ी सुरक्षा के बीच अतीक और अशरफ की हत्या का हो जाना, जैसे सवालों को लेकर अब राजनीति दो हिस्सों में बंटती हुई नजर आ रही है.

38 साल पुरानी एक कहानी... 

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ऐसे में आज हम आपको एक ऐसी कहानी सुनाने जा रहे हैं जो कि अब से तकरीबन 38 साल पहले घटी थी. एक ऐसी कहानी जिसने उस दौर की राजीव गांधी सरकार तक की कुर्सी हिला कर रख दी थी. हालात ऐसे बने की राज्य के मुख्यमंत्री को कुर्सी तक छोड़नी पड़ी...

हम बात कर रहे हैं 21 फरवरी साल 1985 की, जब राजस्थान के डीग में चलीं ताबड़तोड़ गोलियों की आवाज़ दिल्ली तक गूंजी. जिसमें दिनदहाड़े राजा मानसिंह पर पुलिस की तरफ से गोलियां बरसा दी गईं. और इसे एनकाउंटर की शक्ल देने की पूरी कोशिश की गई. लेकिन 35 साल बाद इस एनकाउंटर को कोर्ट ने ना सिर्फ फर्जी करार दिया बल्कि इसमें शामिल आरोपियों के खिलाफ सजा भी सुनाई.


20 फरवरी 1985

इस घटना की शुरुआत 20 फरवरी 1985 को हुई, जब चुनाव प्रचार जोरों पर था. 20 फरवरी को राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर की चुनावी सभा होनी थी. लेकिन इसी दौरान कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा राजा मानसिंह की रियासत के झंडे उखाड़ देने की बात सामने आई. इस बात से नाराज राजा मानसिंह ने तुरंत अपनी जोंगा जीप उठाई और सीधे मुख्यमंत्री के सुरक्षा घेरे को तोड़ते हुए उस जगह पर पहुंचे, जहां मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से उतरे थे. इस दौरान कहा गया कि राजा मानसिंह ने अपनी जीप से टक्कर मार कर सीएम के हेलीकॉप्टर को क्षतिग्रस्त कर दिया. हालांकि यह भी कहा जाता है कि घटना के समय सीएम शिवचरण वहां नहीं थे. 

कहानी इतनी नहीं है... मानसिंह इतने में नहीं रुके, उन्होंने इसके बाद मुख्‍यमंत्री के भाषण के लिए तैयार किए गए चुनावी मंच को भी ध्वस्त कर दिया. जिसके बाद मुख्‍यमंत्री शिवचरण ने टूटे मंच से ही चुनावी भाषण दिया. इस पूरी घटना के बाद कांग्रेस कार्यकर्ता बुरी तरह बौखला उठे थे. ये आक्रोश का दौर था. डीग, जहां से राजा विधानसभा चुनाव लड़ते थे, वहां राज्य सरकार की किरकिरी होने पर कर्फ्यू लगा दिया गया था. माना जाता है कि इस पूरे कांड को सीएम ने भी अपनी आन-बान-और शान पर ले लिया. इस घटना का सूबे की सियासत में असर गहरा हुआ. पुलिस ने भी आलाकमान के आदेश का पालन करते हुए राजा मानसिंह के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया.

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'मेरी रियासत, मेरा कोई क्या बिगाड़ेगा...'

21 फरवरी को राजा मानसिंह अपने समर्थकों के साथ अपनी जीप से निकले. घर से लेकर बाहर तक सभी ने उन्हें समझाया कि राज्य में कांग्रेस सरकार है और आपने सीधे मुख्यमंत्री को चुनौती दी है, कर्फ्यू भी लगा हुआ है, लेकिन वो नहीं माने, उन्होंने कहा कि ये मेरी रियासत है, यहां मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा.  

राजा मानसिंह जब पूरे दमखम के साथ लाल कुंडा चुनाव कार्यालय से प्रचार के लिए अनाज मंडी, डीग थाने के सामने से गुजर रहे थे तो वहां मौजूद पुलिस अधिकारी डीएसपी कान सिंह भाटी ने उन्हें अपनी टीम के साथ रोक लिया. और राजा समेत कार में सवार लोगों पर वहां मौजूद पुलिस ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी. पुलिस ने राजपरिवार के सदस्य राजा मानसिंह सहित उनके दो साथी ठाकुर सुमेर सिंह व ठाकुर हरी सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी थी. लेकिन इसी बीच जीप में सवार राजा के दामाद कुंवर विजय सिंह बच गए. राजपरिवार का कहना था कि राजा मानसिंह थाने में समर्पण करने जा रहे थे.

जिसके बाद डीग थाना के एसएचओ वीरेंद्र सिंह ने राजा मानसिंह के दामाद विजय सिंह सिरोही के खिलाफ भी 21 फरवरी को ही धारा 307 की रिपोर्ट दर्ज करा दी. हालांकि उसी रात विजय सिरोही को जमानत मिल गई. इसके दो दिन बाद विजय सिरोही ने डीएसपी कान सिंह भाटी सहित 17 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया.

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राजा मानसिंह के अंतिम संस्कार के समय की तस्वीर

यूपी तक पहुंची राजस्थान की आग की तपिश

इस पूरी घटना के बाद राजस्थान जल उठा. जिसकी तपिश यूपी तक पहुंच गई. देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी सिटिंग एमएलए का दिनदहाड़े एनकाउंटर किया गया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर पर आरोप लगे कि उनके ही इशारे पर पुलिस ने मानसिंह की हत्या कर दी है. यह पूरा मामला केंद्र की कांग्रेस सरकार तक पहुंचा और 23 फरवरी 1985 को माथुर को इस्तीफा देना पड़ गया. जिसके बाद हीरा लाल देवपुरा को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाया गया.

इसके बाद हुए चुनाव में राजा मानसिंह की पुत्री कृष्णेंद्र कौर दीपा विधायक चुनी गईं. मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई. लेकिन इसी बीच साल 1990 में दीपा भरतपुर से बीजेपी की सांसद चुनी गईं. उन्होंने ना सिर्फ राजनीतिक विरासत संभालने का जिम्मा उठाया बल्कि अपने पिता के मामले को अंजाम तक पहुंचाने का प्रण भी लिया. जिस कड़ी में उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने राजा मानसिंह को लेकर चल रही जांच को मथुरा ट्रांसफर कर दिया. जहां साल 21 जुलाई 2020 सीबीआई कोर्ट ने 35 साल बाद फैसला सुनाते हुए डीएसपी सहित 11 पुलिस कर्मियों को राजा व उसके दो साथियों की हत्या का दोषी करार दिया.

फैसले के बाद राजा मानसिंह की पुत्री और पूर्व मंत्री कृष्णेंद्र कौर दीपा ने कहा कि अब जाकर उनके पिता की आत्मा को शांति मिली होगी. इस दौरान उन्होंने बताया कि 1700 तारीखों में कई जज बदल गये... अब 35 वर्षों बाद फैसला आया है कि ये पूरा एनकाउंटर फर्जी था. इसमें 18 पुलिसकर्मियों के खिलाफ सीबीआई ने चार्जशीट पेश की थी, इनमें से 4 की मौत हो गई. तीन साक्ष्यों के अभाव में बरी हो गए, 11 पुलिसवालों को दोषी पाया गया.

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मानसिंह के परिवार को कोर्ट में किन आधार पर मिली जीत -

1- इस मामले की पैरवी कर रहे वकील नारायण सिंह विप्लवी ने बताया कि हम यह साबित करने में सफल रहे कि राजा को घेरकर मारा गया. पुलिस ने राजा की जीप के आगे अपनी जीप लगा दी. इसके बाद मानसिंह की कनपटी पर बंदूक सटाकर गोली मारी गई जो उनके साथ बैठे 2 और लोगों के सिर में लगी और तीनों की मौत हो गई.

2- मानसिंह के सीने में भी गोली मारी गई थी, गोली नजदीक से मारी गई थी, अगर मुठभेड़ होती है तो गोली दूर से चलती.

3- जीडी में जिक्र किया गया कि राजा मानसिंह की तलाश में पुलिस टीम निकल रही है और उसके 4 मिनट बाद ही मुठभेड़ दिखा दी गई.

4- पुलिसवालों का तर्क था कि राजा से बहस हुई और उन्होंने हथियार निकाल लिए इसके बाद पुलिस ने गोली चलाई. पुलिस ने एक कट्टा बरामद दिखाया. बाद में साबित हो गया कि पुलिस ने ये प्लांट किया था. राजा के पास तो कोई हथियार ही नहीं था.

5- इस पूरे मामले में सबसे ख़ास बात यह रही कि जितने भी गवाह थे, उन्होंने कोर्ट को सब कुछ एकदम सच-सच घटना बयान की, और कोई भी गवाह अपनी बात से नहीं मुकरा.

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कौन कौन था आरोपित- 

- डिप्टी एसपी कान सिंह भाटी, 
- एसएचओ डीग वीरेंद्र सिंह, 
- चालक महेंद्र सिंह, 
- कांस्टेबल नेकीराम, 
- सुखराम, 
- कुलदीप सिंह, 
- आरएसी के हेड कांस्टेबल जीवाराम, 
- भंवर सिंह, कांस्टेबल हरी सिंह, 
- शेर सिंह, 
- छत्तर सिंह, 
- पदमाराम, 
- जगमोहन, 
- पुलिस लाइन के हेड कांस्टेबल हरी किशन, 
- इंस्पेक्टर कान सिंह सिरबी, 
- एसआई रवि शेखर, 
- कांस्टेबल गोविन्द प्रसाद, 
- और एएसआई सीताराम.

कौन-कौन हुआ दोषी करार

- डिप्टी एसपी कान सिंह भाटी, 
- एसएचओ डीग वीरेंद्र सिंह, 
- सुखराम, 
- आरएसी के हेड कांस्टेबल जीवाराम, 
- भंवर सिंह, 
- कांस्टेबल हरी सिंह, 
- शेर सिंह, 
- छत्तर सिंह, 
- पदमाराम, 
- जगमोहन, 
- और एसआई रवि शेखर. 

कौन थे राजा मानसिंह?

भरतपुर रियासत के राजा मानसिंह अपने चार भाइयों में तीसरे नंबर पर थे. उनका जन्म 1921 में हुआ था. बड़े भाई बृजेंद्र सिंह महाराज हुआ करते थे. मानसिंह बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थे, उन्हें मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने ब्रिटेन भेजा गया. वहां से डिग्री लेने के बाद वह सेकंड लेफ्टिनेंट हो गए. लेकिन यह बात अपने बड़े भाई को नहीं बताई. भरतपुर रियासत के लोग गाड़ियों और महल में दो झंडे लगाते थे एक देश का, दूसरा रियासत का. अंग्रेजों से इसी बात पर इनकी अनबन हो गई और उन्होंने नौकरी छोड़ दी, आजादी के बाद वह राजनीति में आ गए.

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देश की राजनीति में ये दौर कांग्रेस का था. लेकिन राजा मानसिंह किसी भी दल में नहीं जाना चाहते थे. इतना ही नहीं कांग्रेस से उनका समझौता था कि वह उनके खिलाफ उम्मीदवार भले उतारे, लेकिन कोई बड़ा नेता प्रचार करने नहीं आएगा. राजा मानसिंह की लोकप्रियता इसी से आंकी जा सकती है कि साल 1952 से 1984 तक वह लगातार निर्दलीय चुनाव लड़ते रहे और जीतते भी रहे. 

इंदिरा लहर में भी चला मानसिंह का सिक्का
 
1977 की जनता लहर और 1980 की इंदिरा लहर में भी राजा मानसिंह की दावेदारी पर कोई असर नहीं पड़ा और वो दमखम से जीत दर्ज करते रहे. भले ही राजा मानसिंह जननेता के तौर पर सीट पर काबिज रहे लेकिन इस दौरान कुछ ऐसे लोग भी रहे जो उनकी जीत पर और उनको लेकर कई सवाल करते रहे. कुछ लोगों को यह बात खटकती रही कि आखिर भरतपुर रियासत में दो झंडे क्यों लगते हैं? मानसिंह को कांग्रेस वॉक ओवर क्यों देती है? अगर हम दूसरी सीटें जीत सकते हैं तो डीग क्यों नहीं?

शिवचरण माथुर के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गई थी डीग की सीट 

साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई. पूरे देश में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर थी. 1985 में राजस्थान में विधानसभा चुनाव हो रहे थे. तब राजस्थान के मुख्यमंत्री हुआ करते थे शिवचरण माथुर. बताया जाता है कि उन्होंने डीग की सीट को प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था. जिसके चलते आजाद भारत के इतिहास में इस फर्जी एनकाउंटर का किस्सा भी जुड़ गया. ना सिर्फ किस्सा जुड़ा बल्कि इस एनकाउंटर ने सरकार की कुर्सी तक हिला कर रख दी. सीएम को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी और सरकार की किरकिरी हुई सो अलग. और सहानुभूति के चलते डीग सीट एक बार फिर राजा मानसिंह के परिवार के हक में चली गई.


 

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