8,848 मीटर की ऊंचाई के साथ माउंट एवरेस्ट ग्रह की सबसे ऊंची चोटी है. लेकिन इसकी ऊंचाई इसे गर्म होती जलवायु के प्रभावों से नहीं बचा सकती. एवरेस्ट का सबसे ऊंचा ग्लेशियर साउथ कोल 1990 के दशक के अंत से 54 मीटर से अधिक सिकुड़ गया है.
हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. यह बात इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) के क्रायोस्फियर विशेषज्ञ शरद जोशी ने कही. उन्होंने कहा कि ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के स्तर में वृद्धि और जल संसाधनों पर प्रभाव पड़ सकता है.
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हिंदू कुश हिमालय में ग्लेशियरों का पिघलना
हिंदू कुश हिमालय (HKH) क्षेत्र आठ देशों में फैला हुआ है. इनमें ग्लेशियरों का पिघलना बढ़ते वैश्विक तापमान और स्थानीय मौसम की स्थिति (शुष्क और ठंडी हवाओं के साथ) के कारण हो रहा है. वर्षा के पैटर्न बदल रहे है. ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी अधिक बारिश और कम बर्फबारी हो रही है.
ICIMOD के अध्ययन के अनुसार 2011 और 2020 के बीच हिंदू कुश हिमालय के लगभग 56000 ग्लेशियर पिछली दशक की तुलना में 65% तेजी से पिघले. इस सदी के अंत तक वे अपने आयतन का 80% तक खो सकते हैं. नेपाल की लंगटांग घाटी में स्थित याला ग्लेशियर देश के सबसे अधिक अध्ययन किए गए ग्लेशियरों में से एक है.
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1974 से 2021 तक एक तिहाई पिघला याला ग्लेशियर
यह आईसीआईएमओडी द्वारा निगरानी किए जाने वाले ग्लेशियरों में से एक है. यह हिमालय क्षेत्र का एकमात्र ग्लेशियर है जो ग्लोबल ग्लेशियर कैजुअल्टी लिस्ट में शामिल है, जो हाल ही में विलुप्त या गंभीर रूप से लुप्तप्राय ग्लेशियरों के वर्ल्ड एटलस में है.
1974 और 2021 के बीच याला ग्लेशियर का क्षेत्र एक तिहाई से अधिक सिकुड़ गया. यह ग्लेशियर अगले 20 से 25 वर्षों में गायब हो सकता है. शरद जोशी कहते हैं कि हर बार जब मैं ग्लेशियर की यात्रा करता हूं, तो मुझे इसके बड़े नुकसान को देखकर गहरी उदासी महसूस होती है.
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नेपाल में ग्लेशियर पिघलेगा, भारत पर भी असर पड़ेगा
शरद जोशी बताते हैं कि नेपाल में ग्लेशियरों का पिघलना स्थानीय और वैश्विक स्तर पर समुदायों और पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए कई प्रभाव डालता है. ग्लेशियरों के पीछे हटने से प्रोग्लेशियल झीलें बनती हैं. ये झीलें बर्फ या मलबे से बने प्राकृतिक बांधों से घिरी होती हैं, जिन्हें मोरेन कहा जाता है.
भूस्खलन या भूकंप के कारण इन बांधों के अचानक टूटने से बाढ़ (ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स या GLOFs) और गांवों, सड़कों, पुलों, जलविद्युत संयंत्रों और अन्य बुनियादी ढांचों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ सकता है. इसका असर भारत में भी देखने को मिल सकता है.
अक्टूबर 2023 में सिक्किम की घटना
अक्टूबर 2023 में हिमालय क्षेत्र में स्थित साउथ लोनाक झील में भूस्खलन के कारण एक सुनामी जैसी लहर उत्पन्न हुई, जिसकी ऊंचाई 20 मीटर तक थी. इस बाढ़ ने 386 किलोमीटर लंबी घाटी में व्यापक नुकसान पहुंचाया. करीव 55 लोग मारे गए और 70 अन्य लापता हो गए.
ज्यूरिख यूनिवर्सिटी के पर्यावरण और जलवायु के प्रोफेसर क्रिश्चियन हुग्गेल कहते हैं कि यह घटना प्रभावशाली ढंग से दिखाती है कि उच्च पर्वतीय क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति कितने संवेदनशील हैं. साउथ लोनाक झील सिक्किम के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में स्थित एक ग्लेशियल-मोरेन झील है. यह झील सिक्किम हिमालय क्षेत्र की सबसे तेजी से विस्तारित झीलों में से एक है. GLOFs के लिए अतिसंवेदनशील मानी जाती है.
ICIMOD cryosphere expert Sharad Joshi describes the rapid loss of Himalayan glaciers as a personal heartbreak—something he has witnessed firsthand.
— ICIMOD (@icimod) April 17, 2025
With glaciers melting at an alarming pace, nearly two billion people are at risk of losing their most vital resource: water.
This… pic.twitter.com/PFxKmkC67X
ग्लेशियरों के पीछे हटने के प्रभाव
ग्लेशियरों के पिघलने के प्रभाव क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर समान रूप से गंभीर हैं. नेपाली और हिमालयी ग्लेशियर दुनिया की कुछ सबसे महत्वपूर्ण नदी बेसिनों को पानी प्रदान करते हैं, जिनमें गंगा और यलो नदी शामिल हैं. लगभग दो अरब लोग हिमालय के ग्लेशियरों और बर्फ से आने वाले पानी पर निर्भर हैं.
ग्लेशियरों के पीछे हटने से नदी के प्रवाह में कमी आती है, जिससे मौसमी पानी की कमी होती है जो कृषि को नुकसान पहुंचाती है. पीने के पानी की उपलब्धता को सीमित करती है. जोशी बताते हैं कि पानी की घटती आपूर्ति न केवल खेती और जलविद्युत उत्पादन को खतरे में डालती है. स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को भी बदल देती है, जिससे ठंडे वातावरण में अनुकूलित प्रजातियों को खतरा होता है.