नरेंद्र मोदी हमेशा से ही एक शानदार परफॉर्मर रहे हैं: उन्हें एक मंच, एक माइक और एक अच्छी ऑडिएंस दे दीजिए, प्रधानमंत्री हमेशा की तरह शोस्टॉपर साबित होंगे. इस हफ्ते लोकसभा में 102 मिनट तक मोदी वही कर रहे थे जिसका उन्हें सबसे ज्यादा आनंद आता है: अपने बारे में थर्ड पर्सन में बोलते हुए कांग्रेस पर निशाना साधना.
भाषण भले ही थोड़ा ज्यादा लंबा रहा हो, लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री संसद में बहुत कम बोलते हैं, इसलिए शायद ही किसी ने उन्हें ज्यादा समय देने पर ऐतराज किया होगा. भाषण के दौरान जहां मोदी ने ऑपरेशन सिंदूर से निपटने के तरीके पर अपने आलोचकों पर तीखे प्रहार किए, वहीं अतीत का एक जाना-पहचाना नाम पूरे भाषण में बार-बार दोहराया गया. प्रधानमंत्री ने 14 मौकों पर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 'गलतियों' का जिक्र किया. इससे यह सवाल उठता है कि मोदी का नेहरू का बार-बार जिक्र करना आखिर क्या बताता है?
मई 1964 में नेहरू का निधन हो गया और मोदी उस दौरान किशोरावस्था में थे. तब से, प्रधानमंत्री मोदी को लेकर भारत में 13 अलग-अलग प्रधानमंत्री हुए हैं.
प्रधानमंत्री का राजनीति से पहला परिचय इंदिरा गांधी के दौर में हुआ था. 1975 में एक स्टूडेंट एक्टिविस्ट के रूप में आपातकाल के खिलाफ लड़ाई ने ही उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी. अगर किसी पूर्व प्रधानमंत्री से मोदी को नाराज होना चाहिए तो वह इंदिरा होना चाहिए, जिन्होंने आपातकाल के दौरान उन्हें और सैकड़ों आरएसएस स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया था. तो फिर, इंदिरा उनके उपहास का पात्र क्यों नहीं बनतीं, क्यों वो हमेशा नेहरू को दोष देते रहते हैं?
सबसे पहले, इस बात पर गौर करना जरूरी है कि नेहरू निस्संदेह देश के सबसे प्रतिबद्ध 'धर्मनिरपेक्ष' प्रधानमंत्री थे. उनके लिए बिना भेदभाव वाला धर्मनिरपेक्षता आस्था का एक मूल तत्व था. यही उनकी राजनीतिक विचारधारा का मूल भी था. उन्होंने यह पूरी तरह से सुनिश्चित करने की कोशिश की कि भारत कभी'हिंदू राष्ट्र' या 'हिंदू पाकिस्तान' न बने.
इसके लिए वो हमेशा ही हिंदुत्ववादी ताकतों से उलझते रहते थे, उन्हें हाशिए पर डालने, यहां तक कि उन्हें बहिष्कृत करने की हर संभव कोशिश करते थे. नाथूराम गोडसे के महात्मा गांधी की हत्या ने हिंदू सांप्रदायिकता को हर मोड़ पर चुनौती देने के उनके संकल्प को और मजबूत कर दिया. वो इसे बहुलवादी, बहु-धार्मिक भारत के अपने विचार के बिल्कुल विपरीत मानते थे.
उस समय आरएसएस के लिए, नेहरू सबसे बड़े 'शत्रु' थे, जिनसे वे वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर बेहद नफरत करते थे. इसके उलट, इंदिरा गांधी एक ऐसी नेता थीं जिनके साथ आरएसएस को लगता था कि वे बातचीत कर सकते हैं. आरएसएस के लोग इंदिरा की कट्टर 'राष्ट्रवादी' साख के लिए मन ही मन उनकी प्रशंसा भी करते थे, जिसमें बाद के सालों में नरम हिंदू टच आ गया था.
संघ परिवार की कोख में पले-बढ़े मोदी के लिए, नेहरू हमेशा एक खलनायक के रूप में ही देखे जाते थे, जिन्होंने भगवा बिरादरी को कुचलने की कोशिश की थी. मोदी की राजनीतिक मान्यताओं को आरएसएस के सबसे लंबे समय तक प्रमुख रहे एमएस गोलवलकर ने आकार दिया है, जिन्हें गुरुजी के नाम से जाना जाता है.
2008 में मोदी ने ज्योतिपुंज नामक एक किताब लिखी, जिसमें उन्होंने उन 16 आरएसएस कार्यकर्ताओं की जीवनी बताई जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया था. किताब में गुरु गोलवलकर को खास स्थान दिया गया और उनकी तुलना बुद्ध, छत्रपति शिवाजी महाराज और बाल गंगाधर तिलक से की गई.
1940 से 1973 तक आरएसएस के सरसंघचालक के रूप में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान, गोलवलकर नेहरू को अपना प्रमुख विरोधी मानते थे. वो उन्हें एक ऐसा व्यक्ति मानते थे जो हिंदुत्व को लोगों के बीच स्वीकार्यता हासिल करने से रोक रहे थे.
1952 में, आरएसएस की पत्रिका ऑर्गनाइजर ने यहां तक लिखा था कि 'नेहरू को हमेशा भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की विफलता का अफसोस रहेगा.' जब गुरु भारत के पहले प्रधानमंत्री के प्रति इतनी गहरी दुश्मनी रख सकते हैं, तो उनके अनुयायी इससे बहुत पीछे कैसे रह सकते हैं?
मोदी बनाम नेहरू की तीखी लड़ाई का दूसरा कारण कांग्रेस पार्टी में ही छिपा है. नेहरू के निधन के बाद, कांग्रेस पार्टी ने नेहरू को आजादी के बाद से भारत के लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नेता के बजाय एक अर्ध-देवता के रूप में स्थापित कर दिया. इसका मतलब था कि नेहरू की पूजा करते हुए एक कहानी गढ़ी गई, जिसने 17 साल लंबे प्रधानमंत्री कार्यकाल की उपलब्धियों और गलतियों पर गंभीर बहस को रोक दिया.
कांग्रेस के दौर में नेहरू का आलोचनात्मक विश्लेषण - चाहे वह समाजवाद पर हो या उनकी कश्मीर और चीन नीतियों पर - रोका गया जिसका मतलब था कि सत्ता में आते ही भाजपा ने हर मोड़ पर नेहरूवादी विरासत को व्यवस्थित रूप से कमजोर करने का मौका गंवा दिया.
इससे एक तीसरा विवादास्पद मुद्दा उठा: नेहरू-गांधी वंश का उदय. नेहरू के बाद की कांग्रेस मुख्यतः वंशवादी राजनीति के प्रभुत्व से आकार लेती रही है, जो एक ही परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही. इंदिरा गांधी ने ही पार्टी को पारिवारिक विरासत बनाया था, फिर भी किसी न किसी तरह नेहरू पर 'वंशवादी' सिद्धांत का नेता होने का आरोप लगाया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि लाल बहादुर शास्त्री ही उनके उत्तराधिकारी चुने गए थे.
इतिहासकार राम गुहा लिखते हैं, 'उनके वंशजों के कामों ने नेहरू की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचाया है.' न केवल नेहरू की मूर्तियां बनाई गईं, बल्कि उन पर और गांधी-नेहरू परिवार के अन्य लोगों पर आधारित नामकरण की होड़ ने जनमानस में उनका नाम अंकित कर दिया.
2013 में सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन में बताया गया था कि 450 से ज्यादा योजनाओं, निर्माण प्रोजेक्ट्स और संस्थानों का नाम परिवार के तीन सदस्यों: नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर रखा गया था. एक बार फिर, इस अंधभक्ति ने, जो पूरी तरह से चमचागिरी की हद तक पहुंच गई है, मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को नेहरू पर निशाना साधने का मौका दे दिया है.
इससे मोदी के नेहरू-प्रेम पर एक और महत्वपूर्ण बात सामने आती है. एक ऐसे महान प्रधानमंत्री के लिए, जिन्होंने पिछले साल ही खुद को 'नॉन बायोलॉजिकल गॉड' बताया था, उनके और भारत के सबसे महान प्रधानमंत्री के रूप में पहचाने जाने की चाहत के बीच सिर्फ नेहरू ही खड़े हैं. इंदिरा गांधी को लगातार सबसे लंबे कार्यकाल वाले प्रधानमंत्री के रूप में पीछे छोड़ते हुए, मोदी और एक प्रभावशाली उपलब्धि के बीच सिर्फ नेहरू ही बचे हैं.
लेकिन ये सिर्फ रिकॉर्ड तोड़ने वाले आंकड़ों का खेल नहीं है. मोदी को लगातार नेहरू पर फोकस करना होगा ताकि अपने अनुयायियों को ये यकीन दिला सकें कि वो पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने नेहरूवादी भारत के विचार से पूरी तरह अलग होकर एक 'नए' भारत का निर्माण किया है जो उन सिद्धांतों पर आधारित है जिनसे आरएसएस पूरी तरह जुड़ा हुआ है.
जहां आरएसएस सभ्यता के अतीत और प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों का महिमामंडन करना चाहता है, वहीं नेहरू तर्क और विज्ञान पर आधारित एक आधुनिक समाज का निर्माण करना चाहते थे. विचारों पर नेहरूवादी एकाधिकार को तोड़ने के लिए, मोदी को खुद उस व्यक्ति को ध्वस्त करना होगा. ऐसा करने का एकमात्र तरीका नेहरू के लिए गए हर फैसले पर हमला करना है, चाहे वह विदेश नीति पर हो या घरेलू मोर्चे पर.
फिर, चाहे वह योजना आयोग को भंग करना हो या अब सिंधु जल संधि को निलंबित करना हो, बड़ा उद्देश्य स्पष्ट है: नेहरू की खामियों को उजागर करके और उनकी कई उपलब्धियों को नकारकर उनका कद छोटा करना. इस प्रक्रिया में, मोदी और उनके समर्थक एक बड़ी गलती कर रहे हैं: आप नेहरू को जितना अधिक अर्धसत्य और झूठ से बदनाम करेंगे, उतना ही वे जनता की कल्पना में जीवंत होते जाएंगे.
हाल के समय में राजनेताओं के 75 साल की उम्र में सेवानिवृति की चर्चा चल रही है. इस चर्चा के बीच मैंने एक भाजपा नेता से पूछा कि प्रधानमंत्री मोदी कब कुर्सी छोड़ने पर विचार करेंगे, अगर करेंगे तो? जवाब था, 'कम से कम 2031 तक तो नहीं.' क्यों? 'क्योंकि यही वो साल होगा जब मोदी नेहरू को पीछे छोड़कर भारत के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाले प्रधानमंत्री बन जाएंगे!'
(राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. उनकी नई किताब है- 2024: The Election That Surprised India)