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आदिवासियों को जनगणना में हिंदुओं से अलग धर्म में क्यों रखना चाहती है कांग्रेस? 

कांग्रेस आदिवासियों के लिए सरना कोड के डिमांड का समर्थन करती रही है. पर अब संसद में कांग्रेस ने जनगणना में आदिवासियों को हिंदू धर्म से अलग कटेगरी में रखने की डिमांड कर राजनीतिक आग लगा दी है.

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परंपरागत नृत्य करते गोवा के आदिवासी
परंपरागत नृत्य करते गोवा के आदिवासी

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) ने लोकसभा में मांग की है कि आदिवासियों को जनगणना में अलग धार्मिक श्रेणी के रूप में मान्यता दी जाए. यह मांग 3 दिसंबर 2025 को INC के आधिकारिक X हैंडल (@INCIndia) पर पोस्ट किए गए वीडियो के माध्यम से सुर्खियों में आई, जिसमें झारखंड से कांग्रेस सांसद गौवाल्क पदवी (Gowalk Padavi) लोकसभा में बोलते नजर आ रहे हैं. वीडियो में पदवी कहते हैं कि ब्रिटिश शासन में हुई 1931 की जनगणना में आदिवासी वर्ग को अलग श्रेणी में गिना गया था. ये श्रेणी सभी प्रमुख धर्मों के साथ बराबरी से सूचीबद्ध थी. वे आगे जोर देते हैं कि आदिवासियों की विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान किसी अन्य धर्म के साथ समाहित नहीं होती और सरकार से संविधान की भावना का सम्मान करते हुए उन्हें सांस्कृतिक विलुप्ति से बचाने की अपील करते हैं. 

 जाहिर है कि यह मांग मुख्य रूप से 'सरना धर्म कोड' (Sarna Dharma Code) से जुड़ी है, जो झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में लंबे समय से उठ रही है. सरना एक प्रकृति-पूजा आधारित आदिवासी परंपरा है, जिसमें वन, जल, पर्वत आदि को देवता माना जाता है. 

कांग्रेस का तर्क है कि वर्तमान जनगणना फॉर्म में 'अन्य' (Other) कॉलम के तहत आदिवासियों को हिंदू या अन्य धर्मों में जबरन समाहित किया जा रहा है, जो उनकी पहचान को मिटा रहा है. दूसरी ओर भाजपा समर्थक इसे 'विभाजनकारी' और 'देश की एकता-अखंडता के खिलाफ' बता रहा है. X पर इस पोस्ट के जवाबों में भी यही बहस छिड़ी है. एक यूजर ने इसे खतरनाक अलगाववादी कहा, जबकि अन्य ने कांग्रेस पर 'मिशनरी एजेंडे' का आरोप लगाया है. 

1-कांग्रेस यह मांग क्यों उठा रही है?

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यह मुद्दा न केवल सांस्कृतिक है, बल्कि राजनीतिक भी है. 2024-25 के झारखंड विधानसभा चुनावों में यह सरगर्मी का विषय बना, जहां कांग्रेस-झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) गठबंधन ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया. लेकिन सवाल उठता है कि कांग्रेस यह मांग क्यों लगातार उठा रही है? और क्या यह वाकई राष्ट्रीय एकता को खतरे में डालने वाली है? दरअसल आदिवासियों की धार्मिक पहचान का मुद्दा नया नहीं है. ब्रिटिश काल की 1931 जनगणना में आदिवासियों को 'प्रिमिटिव ट्राइब्स' या 'एनिमिस्ट' के रूप में अलग श्रेणी में गिना गया था. 

 उस समय भारत की कुल आबादी में आदिवासी 22.08% थे, और उनकी प्रकृति-पूजा को हिंदू धर्म से अलग रखा गया. स्वतंत्र भारत में 1951 तक यह प्रथा चली, लेकिन 1961 की जनगणना में कांग्रेस सरकार ने इसे हटा दिया. कारण? स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 'राष्ट्रीय एकीकरण' नीति, जहां आदिवासियों को हिंदू समाज का अभिन्न अंग माना गया. 2011 की जनगणना में 49 लाख आदिवासियों ने 'सरना' लिखा, लेकिन 'अन्य' कॉलम में डाल दिया गया.

हालांकि सरना कोई नया धर्म नहीं, बल्कि संथाल, मुंडा, ओरांव जैसे समुदायों की प्राचीन परंपरा है, जो वेदों की प्रकृति-पूजा से जुड़ी है. कांग्रेस का दावा है कि 1931 का मॉडल बहाल करने से आदिवासियों की सांस्कृतिक अस्मिता बचेगी. लेकिन आलोचक कहते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियो की 'डिवाइड एंड रूल' नीति को कांग्रेस दोहरा रही है. अलोचकों का कहना है कि 1931 में अंग्रेजों ने आदिवासियों को अलग गिना, आज कांग्रेस फिर से बांटना चाहती है? 

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1961 का फैसला संविधान से प्रेरित था. अनुच्छेद 25-28 में धार्मिक स्वतंत्रता है, लेकिन अनुसूचित जनजाति (ST) लाभ केवल हिंदू, सिख, बौद्ध को मिलते हैं. अलग कोड देने से ST दर्जा खतरे में पड़ सकता है, जो आरक्षण और वन अधिकारों को प्रभावित करेगा. झारखंड के पूर्व CM चंपाई सोरेन का कहना है कि कांग्रेस ने 1961 में ही हटा दिया, अब क्यों यह मांग फिर से कर रही है? 

2-कांग्रेस की मांग के पीछे क्या राजनीतिक लाभ की मंशा?

कांग्रेस यूं तो आदिवासियों को हिंदू धर्म से अलग पहचान देने के पीछे सांस्कृतिक संरक्षण का तर्क देती है. सांसद पदवी के भाषण में कहा गया कि आदिवासियों की पहचान समाहित नहीं होनी चाहिए, वरना सांस्कृति विलुप्ति हो जाएगी.  झारखंड में 26% आबादी आदिवासी है, और सरना को मानने वाले 40 लाख से ज्यादा हैं. कई आदिवासी नेता यह मानते हैं कि सरना कोड से डीलिस्टिंग रुकेगी, जो ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण का हथियार है. 

कांग्रेस का कहना है कि 'अन्य' कॉलम से डेटा अस्पष्ट होता है, जो नीतियों (जैसे PESA, वन अधिकार कानून) को प्रभावित करता है.  2020 में झारखंड विधानसभा ने प्रस्ताव पास किया, लेकिन केंद्र ने अनदेखा किया . मई 2025 में रांची में कांग्रेस ने धरना दिया, जहां कांग्रेस नेताओं ने कहा: फॉर्म में सिर्फ 6 कॉलम हैं, सरना के लिए जगह नहीं है.  X पर एक कांग्रेस नेता ने लिखा कि यह पहचान और अस्तित्व की लड़ाई है. राजनीतिक रूप से, यह झारखंड चुनावों का मुद्दा है. नवंबर 2024 में JMM-Congress गठबंधन ने इसे वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया. 

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3-सरना कोड को लेकर बीजेपी की क्या है मंशा?

झारखंड में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले यह मुद्दा हमेशा से गर्म हो जाता रहा है. 2024 के विधानसभा चुनावों मं भाजपा, कांग्रेस और जेएमएम जैसी पार्टियों ने इस मुद्दे पर अपने-अपने विचार रखे हैं, जिससे यह चुनावी बहस का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया था. चुनाव प्रचार के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि भाजपा सरना धार्मिक संहिता के मुद्दे पर विचार करेगी और उचित निर्णय लेगी. असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह सरना कोड लागू करेगी. हालांकि भाजपा ने कभी अतीत में सरना कोड का विरोध नहीं किया है, लेकिन वह इस विषय पर मुखर भी नहीं रही है.

दूसरी तरफ जेएमएम और कांग्रेस लगातार सरना धर्म संहिता को लागू करने की मांग करते रहे हैं. विधानसभा चुनावों के दौरान इसे चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा भी बनाया गया.

4-सरना धर्म कोड लागू करवाने के पीछे साजिश की थियरी कितनी सही

सरना धर्म कोड को लेकर आदिवासी समाज बंटा हुआ है. कुछ लोग कह रहे हैं कि सरना धर्म कोड मिलने से आदिवासियों की धार्मिक पहचान सुनिश्चित होगी. वहीं एक पक्ष कहता है कि इस चाहत के पीछे एक बड़ी साजिश छिपी हुई है.

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विधानसभा से सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव पारित होने पर दिसंबर 2020 में लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष पद्मविभूषण करिया मुंडा ने कहा था कि सरना धर्म कोड की मांग प्रायोजित है. क्योंकि अलग धर्म कोड मिलने से आदिवासी अल्पसंख्यक हो जाएंगे. इसलिए आदिवासी से ईसाई बने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए यह साजिश मिशनरी के स्तर पर की जा रही है. चर्च जाने वालों को अपने मसले देखने चाहिए. उनको सरना धर्म से क्या लेना-देना है. वे क्यों मांग कर रहे हैं.

 समर्थक मानते हैं कि जनगणना में अलग कोड मिलने से उनकी धार्मिक पहचान मजबूत होगी और वे 'अन्य' श्रेणी में खो न जाएं .लेकिन इस मांग को लेकर समुदाय में दो धड़ों का टकराव है. एक पक्ष इसे शुद्ध सांस्कृतिक संघर्ष बताता है, तो दूसरा इसे एक सुनियोजित चाल के रूप में देखता है, जो मुख्य रूप से ईसाई मिशनरियों और धर्मांतरित आदिवासियों के हितों को साधने के लिए रची गई है. 

 दरअसल बहुत से लोगों का यह मानना है कि सरना कोड लागू होने से आदिवासी समुदाय हिंदू बहुमत से अलग हो जाएगा, जिससे वे राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक की तरह लाभ उठा सकेंगे. वर्तमान में, सरना अनुयायी जनगणना में 'हिंदू' या 'अन्य' में गिने जाते हैं, लेकिन कोड मिलने पर वे एक अलग धार्मिक समूह बन जाएंगे. आलोचकों का कहना है कि यह बदलाव मुख्य रूप से उन आदिवासियों को फायदा पहुंचाएगा जो पहले ही ईसाई बन चुके हैं. 

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आदिवासी आरक्षण (एसटी कोटा) धार्मिक परिवर्तन पर निर्भर नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों में परंपरागत रीति-रिवाजों से अलगाव पर सवाल उठे हैं. ईसाई आदिवासी अक्सर आरक्षण दावे में चुनौती का सामना करते हैं, क्योंकि उनका तर्क दिया जाता है कि वे अब 'मूल' आदिवासी संस्कृति से कट चुके हैं. सरना कोड से पूरा समुदाय अल्पसंख्यक जैसा दर्जा पा लेगा, तो धर्मांतरितों को बिना विवाद के आरक्षण मिल सकेगा. करिया मुंडा ने ठीक यही इशारा किया था कि चर्च के प्रभाव वाले लोग सरना मांग को हथियार बना रहे हैं, ताकि वे अपनी 'दोहरी पहचान' (आदिवासी + ईसाई) को मजबूत कर सकें.

 कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह मिशनरी रणनीति का हिस्सा है, जहां धर्मांतरण को आसान बनाने के लिए सांस्कृतिक विभाजन को बढ़ावा दिया जा रहा है. उदाहरणस्वरूप, झारखंड में ईसाई आबादी 4-5% है, लेकिन आदिवासी इलाकों में यह 20-30% तक पहुंच जाती है, और सरना कोड से यह समूह राजनीतिक रूप से मजबूत हो सकता है.  भाजपा समर्थक इसे हिंदू एकता तोड़ने की चाल मानते हैं, जहां वनवासी (आदिवासी) को सनातन धर्म से अलग कर ईसाई प्रभाव बढ़ाया जा रहा है.

 झारखंड जैसे राज्यों में धर्मांतरण के आंकड़े (एनएफएचएस सर्वे के अनुसार, आदिवासी ईसाई आबादी बढ़ रही है) और राजनीतिक दलों के वोट बैंक गणित इसे आधार देते हैं. सरना कोड से अल्पसंख्यक लाभ (जैसे मदरसों जैसी सुविधाएं) का डर वाजिब लगता है, खासकर जब कुछ ईसाई नेता सरना आंदोलनों में सक्रिय दिखते हैं.

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5-सरना की मांग करने वाले लोग अभी भी बहुमत में नहीं हैं 

2011 की जनगणना के तहत पूरे देश में आदिवासियों की कुल जनसंख्या 10.42 करोड़ थी. यह कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है. इसमें झारखंड के कुल आदिवासियों की जनसंख्या 86.45 लाख थी. राष्ट्रीय आदिवासी समन्वय समिति का कहना है कि 2011 के जनगणना प्रपत्र में झारखंड के 86 लाख आदिवासियों में से 41 लाख ने अपना धर्म सरना बताया था.

इसी तरह पश्चिम बंगाल के 53 लाख में से 4 लाख लोगों ने खुद को सरना धर्मावलंबी कहा था. वहीं 5 लाख संथाली आदिवासियों ने अपना धर्म 'सारी ' लिखा था. ओडिशा में 96 लाख में से 4 लाख, छत्तीसगढ़ में 78 लाख में से 8 हजार और बिहार में 13 लाख में से 10 हजार से अपना धर्म 'सरना' बताया था. आंकड़ों को देखे तो यह साफ दिख रहा है कि सरना की डिमांड अभी भी बहुसंख्यक ड़िमांड नहीं है.

6-धर्म परिवर्तन करने वाले अनुसूचित जनजाति के लोग क्या आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे?

भारत के आदिवासी इलाकों में एक नया विवाद उभर रहा है. क्या ईसाई या इस्लाम अपनाने वाले अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लोग आरक्षण के लाभ से वंचित हो जाएं? बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह बहस तेज हो गई है. कुछ संगठन, जैसे जनजाति सुरक्षा मंच और आरएसएस से जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम, दावा करते हैं कि धर्मांतरण करने वाले आदिवासी 'दोहरा लाभ' उठा रहे हैं—एसटी आरक्षण के साथ-साथ अल्पसंख्यक सुविधाएं. वे एससी (अनुसूचित जाति) की तर्ज पर डीलिस्टिंग की मांग कर रहे हैं, जहां परिवर्तन लाभ छीन लेता है. 

झारखंड में तमाम आदिवासी इसे साजिश बताते हैं. वे कहते हैं कि यह हमें बांटने की कोशिश है. ईसाई और सरना अनुयायी अलग हो जाएंगे, तो हम अल्पसंख्यक बन जाएंगे. हम प्रकृति पूजक हैं, हिंदू नहीं. वहीं, कुछ लोग तर्क देते हैं, धर्म बदलने वाले हमारी रीति-रिवाजों का सम्मान नहीं करते, वे समुदाय से अलग हो चुके हैं. जनजाति सुरक्षा मंच के इंदर भगत कहते हैं, डॉ. आंबेडकर ने संविधान में प्रावधान बनाया था कि विदेशी धर्म अपनाने पर एससी लाभ छूटेगा. यही एसटी पर लागू हो. 

संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत एसटी सूची जनजातीय पहचान, परंपराओं और पिछड़ेपन पर आधारित है, न कि धर्म पर. एसटी कोटा 7.5% है, जो शिक्षा, नौकरी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व (अनुच्छेद 330-332) देता है. पांचवीं अनुसूची विशेष अधिकार सुनिश्चित करती है. छत्तीसगढ़ चुनावों में डीलिस्टिंग और 'घर वापसी' ने बीजेपी को आदिवासी वोट मिलाए. मिशनरी गतिविधियां सदी पुरानी हैं, पर यह बहस धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रही है.

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